Thursday 27 May, 2010

लो क सं घ र्ष !: लोकसंघर्ष से पूछे गए सवालों का जवाब

• जब भारत सेकुलर देश है तो फिर कानून सांप्रदाए के आधार पर क्यों?

भारत एक बहुजातीय, बहुधर्मीय देश है। संविधान इस बात की इजाजत देता है की आप अपने धार्मिक रीति रिवाजो के अनुसार अपनी जीवन शैली निर्धारित कर सकते हैं इसीलिए प्रत्येक धर्म वालों को अपने धार्मिक रीति रिवाजों के अनुसार रहने की स्वतंत्रता है। जब कोई धर्म के मानने वाले सरकार से अनुरोध करते हैं कि उनके समाज में यह कुरीतियाँ है और इनको हटाने के लिए कानून बनाया जाए तो सरकार कानून बनाती है। जैसे सती प्रथा, बाल विवाह और दहेज़ प्रथा जैसी कुरीतियों पर सरकार ने कानून बनाये।

• जब संविधान धर्म के आधार पर आरक्षण की मनाही करता है तो फिर मुसलमानों को धर्म के आधार पर आरक्षण की मांग क्यों ?

श्रीमान जी, भारत लोकतान्त्रिक देश है। लोकतान्त्रिक ढांचे के तहत हर समुदाय, हर धर्म वाले को अपनी बात कहने का हक़ है कोई जरूरी नहीं है कि वह मांग मानी ही जाए। वास्तव में संविधान पत्थर की लकीर नहीं है की जिसको संशोधित न किया जा सके भारतीय संविधान में कई बार संशोधन किये जा चुके हैं और भविष्य में होते रहेंगे। समाज जैसे जैसे आगे बढ़ता है आवश्यकताएं बदलती रहती हैं। समय और काल के अनुरूप संशोधन होते रहेंगे।


• जब भारत धर्म आधारित राज्य नहीं तो फिर अलपसंख्यकवाद का नारा क्यों?

क्या आप इसको मानने के लिए तैयार हैं। आप तो हिंदुत्व वादी विचारधारा के तहत इसको हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहते हैं जबकि बहुसंख्यक हिन्दू आपके खिलाफ है क्योंकि हिन्दू धर्म में घृणा और द्वेष का कोई समावेश नहीं है सिर्फ नागपुर मुख्यालय से संचालित होने वाले लोग तरह-तरह के किस्से गढ़ा करते हैं। मर्यादा पुरषोत्तम राम और कर्मयोगी कृष्ण ने कहीं भी जो सवाल आप उठाते हैं उन्होंने उठाये हैं। आप तो सिर्फ घृणा और द्वेष फैला कर इस देश के नागरिको में परस्पर मारपीट कराकर देश को अस्थिर करना चाहते हैं। अगर कोई अल्पसंख्यकवाद या बहुसंख्यकवाद का नारा देता है तो वह देश का भला नहीं चाहता है।


• अगर गुजरात में आतंकवादियों द्वारा हिन्दूओं को जिन्दा न जलाया जाता तो गुजरात में दंगे होते क्या?

गुजरात में नर पिशाचों ने लोगो को जलाने का काम किया नर पिशाचों में हिन्दू मुसलमान, सिख, इसी ढूंढना मेरा काम नहीं है । इसके लिए अमेरिकन साम्राज्यवाद के पिट्ठू नागपुर मुख्यालय से संचालित होने वाले लोग ही काफी हैं।

• जब मक्का मदीना के लिए प्रति मुसलमान 60000 रूपए की सहायता सरकार देती है तो फिर हिन्दूओं की धार्मिक यात्राओं(बाबा अमरनाथ गुफा यात्रा,महाकुंभ यात्रा...) पर विशेष टैक्स क्यों?

बड़े नासमझ हैं आप अभी हरिद्वार में कुम्भ मेला चल रहा था ज्सिकी व्यवस्था करने में करोनो व अरबों रुपये खर्च किये गए है। जिसमें हिंदुत्व वाले ठेकेदारों ने काफी घोटाले भी किये हैं। राम की पवित्र नगरी अयोध्या में सरकार करोनो रुपये खर्च करती है। इस देश के नागरिक कहीं भी अपनी संस्कृति के अनुसार कोई भी आयोजन करते हैं तो सरकार का दायित्व है की वह आपने नागरिको के स्वास्थ्य, सुरक्षा की व्यवस्था करे। अमरनाथ की यात्रा का भारत सरकार ही कराती है अगर सिख भाई पकिस्तान में अपने धार्मिक तीर्थ स्थानों की यात्रा करते है तो सरकार थोडा ही सही कुछ न कुछ करती है।


• जब आतंकवादियों द्वार लगातार देश को लहुलुहान किया जा रहा है तो फिर उनके मानबधिकारों का रोना क्यों?

जब तक निर्धारित न्याय व्यवस्था के अनुसार किसी को सजा नहीं हो जाती है। तब तक आतंकवादी कहना ही गलत है। सजा हो जाने के बाद भी न्याय व्यवस्था के अनुसार उसकी सजा उसको दी जाती है लेकिन आप जैसे लोग हर समय गाली गलौज करते हैं। यह अधिकार आपको न संविधान न न्याय व्यवस्था देती है। जज की एक योग्यता होती है यदि वह योग्यता आप में होती तो आप जज होते और उस समय भी आप व्यवस्था तोड़ कर कोई कार्य नहीं कर पाते।

• क्या आम जनता व आम जनता की सुरक्षा के लिए लड़ रहे सुरक्षावलों के कोई मानबाधिकार नहीं?

श्रीमान जी, सबसे पहले उन्ही के मानव अधिकार है और उनका ही प्रमुख कार्य है कि वह मानव अधिकारों की सुरक्षा करें हमारा काम नहीं है लेकिन जब वह व्यवस्था तोड़ते हैं तो ऊँगली उठती है । और जो लोग आम जनता के खिलाफ विधि व्यवस्था का उल्लंघन करते हैं वह अपराधी होते हैं और उसकी सजा विधि के अनुसार मिलती है और मिलनी चाहिए।

• जब आप बार-बार कहते हैं कि हमारी न्यायप्रक्रिया कमजोर है तो फिर आम जनता के जानमाल को खतरे में डालने वाले आतंकवादियों को मुठभेड़ में मारे जाने पर हाए-तौवा क्यों?

शायद आप को जानकार नहीं है की इस देश के अन्दर मुठभेड़ के नाम पर लाखो नवजवानों का क़त्ल किया जा चुका है। लेकिन आप तो जानबूझ कर अनजान बनते हैं। आप को अनजान बनाने के लिए नागपुर मुख्यालय सक्रीय रहता है। आये दिन अखबारों में आप भी पढ़ते होंगे की फर्जी मुठभेड़ में मारे गए नवजवानों के सशक्त परिवार वालों द्वारा सजायें भी करवाई जा रही हैं। सनातन हिन्दू संस्था, श्री राम सेना, प्रज्ञा ठाकुर एंड कंपनी को यदि फर्जी मुठभेड़ में मार दिया जाये तो आप को कैसा महसूस होगा। विधि व्यवस्था द्वारा निर्धारित मौत के अतिरिक्त कोई भी मौत दुखद है।

• जब आपलोग भारत माता व हिन्दू देवीदेवताओं का अपमान करने वाले एम एफ हुसैन का समर्थन करते हैं तो फिर हजरत मुहम्मद का अपमान करने वाले डैनिस कलाकार का विरोध क्यों?

यह सवाल आप का हिन्दू देवताओं का अपमान करने वालों से है। उन्ही से उत्तर ले लीजिये ज्यादा अच्छी बात होगी। हमारे लिए चाहे हजरत मोहम्मद हों या हिन्दू देवी देवता हम लोग किसी का अपमान नहीं करते है। रही एम.ऍफ़ हुसैन का वह कलाकार है कृपया कला को रहने दीजिये हमारे घर के पास लोधेस्वर महादेव का धार्मिक स्थल है जहाँ पर लाखो कावांरथी आते हैं जो आदि देवता शिव और पार्वती के सम्बन्ध में गन्दी-गन्दी गालियाँ देते हैं । कवितायेँ कहते हैं हमारे यहाँ के लोग उनको रोक रोक कर जगह जगह नाश्ता पानी करते हैं और वह लोग अपने को शिव का बाराती कहते हैं तो कुछ लोग पार्वती की तरफ होते हैं जो उसका उसी भाषा में जवाब देते हैं। इसका क्या करोगे।


• जब अधिकतर दंगे मुसलिमबहुल क्षेत्रों में आतंकवादियों द्वारा शुरू किए जाते हैं तो फिर उनका दोष हिन्दूओं पर क्यों?

आप ही लोग जानबूझ कर उनकी आर्थिक सम्रधता को लूटने के लिए लड़ने जाते हैं। हमारा शहर मुस्लिम बाहुल्य है कभी दंगा नहीं हुआ है। लेकिन हिन्दुवात्व वाले लोग जबरदस्ती उनसे भिड़ने की कशिश करते हैं उसके बाद भी लड़ाई नहीं होती है। हमर जनपद बाराबंकी हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए पूरी दुनिया में मशहूर है। हमारे जनपद के श्री काशिम शाह ने 18 वी शताब्दी में हंस जवाहर नाम से पूरा राम चरित्र उर्दू भाषा में लिखा था वहीँ हाजी वारिस अली शाह की दरगाह भी प्यार मोहब्बत का सन्देश देती है दुनिया में सतनाम पीठ बाराबंकी से ही शुरू हुई है जिसके संस्थापक जगजीवन साहब हैं। कबीर की भी शिक्षाओं को बाराबंकी जनपद ने नई दिशा दी है । आप की हिंदुत्व वाली विचारधारा के पास सिर्फ एक काम है की हल्दी में राम राज, पीसी धनिया में घोड़े की लीद , नकली खादें व नकली दवाएं बेचने का ही काम है। अक्सर गिरफ्तार होकर जेल भी जाते रहते हैं।

• जब संविधान हर नागरिक को अपनी रक्षा करने का अधिकार देता है तो फिर आतंकवादियों द्वारा हमला किए जाने पर हिन्दूओं द्वारा इस संबैधानिक अधिकार का प्रयोग करने पर आपको आपती क्यों?

कोई भी हिन्दू या मुसलमान कोई यह रोक नहीं है की विधि व्यवस्था के विरुद्ध काम करने वाले लोगों को गिरफ्तार न करे। सी.आर.पि.सी में प्राइवेट व्यक्तियों द्वारा गिरफ्तारी की व्यवस्था है। अपराधी-अपराधी है उसको हिन्दू मुसलमान में मत बांटो।


• जब आपको भारत की सभ्यता संस्कृति,सुरक्षावलों,नयाय प्रक्रिया व संविधान पर कोई भरोशा नहीं तो फिर आपको आतंकवादियों की पनागाह पाकिस्तान या चीन जाकर बसने पर दिक्कत क्या?

ये आप से किसने कह दिया। भारतीय सभ्यता और संस्कृति की आप की कोई अलग व्याख्या होगी। भारतीय सभ्यता और संस्कृति में बहुत कुछ समाहित है। आपके पास घृणा और द्वेष के अतिरिक्त कुछ नहीं है।

यदि कोई उत्तर समझ में न आवे तो फिर सवाल पूछ लेना। आप जो लिखते हैं वह एडोल्फ हिटलर की जेर्मन नाजी विचारधारा है फिर ब्रिटिश साम्राज्यवाद के आप समर्थक हुए और अब अमेरिकन साम्राज्यवाद से संचालित होते हैं। आप को इस देश में किसानो की आत्महत्याएं , भूख प्यास, महंगाई, भ्रष्टाचार आदि कुछ नहीं दिखाई देता है। अमेरिकन साम्राज्यवाद इस देश की एकता और अखंडता को नष्ट कर देना चाहता है इसलिए ऐसी बातों का प्रचार किया जाता है ।

सादर
सुमन
loksangharsha.blogspot.com

Tuesday 4 May, 2010

लो क सं घ र्ष !: खोने के लिए बेड़ियां और जीतने के लिए सारा जहान


1 मई हमारे लिए उन मजदूर साथियों और उनकी शहादत को याद करने का दिन है जो समूचे मजदूर-मेहनतकश तबके के हितों और हकों के लिए लडे, ज़ो साम्राज्यवाद-पूंजीवाद के रास्ते में चट्टान बनकर खडे हुए और समाजवाद के सपने को करोड़ों दिलों में बसा गए। 1 मई उस संकल्प को याद करने का भी दिन है कि ये समाज व्यवस्था, जो लालच, स्वार्थ, मुनाफे, भेदभाव और गैर-बराबरी पर टिकी है, ये हमें मंजूर नहीं। इसे हम बदल डालेंगे और एक ऐसा समाज बनाएंगे जहां इंसान का और श्रम का सम्मान हो, न कि पूंजी और मुनाफे का।
पिछले वक्त में जो महंगाई बढ़ी और जरूरी चीजों के दाम आसमान छूने लगे तो क्या कारखानों, खेतों में काम करने वाले मजदूरों ने मेहनत करनी कम कर दी थी? या कोई भयानक अकाल, बाढ या कौन सी तबाही सारी दुनिया में आ गई थी जिसकी वजह से सब कुछ तहस-नहस हो गया था? लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था। सारी दुनिया के मजदूर पहले की ही तरह, बल्कि पहले से भी ज्यादा मेहनत कर रहे हैं, लेकिन फिर भी एक तरफ उनका गला बढ़ती हुई महंगाई दबोचती है तो दूसरी तरफ से नौकरी छिन जाने की तलवार सिर पर लटकती रहती है। सब कहते हैं कि इन हालातों की वजह आर्थिक मंदी है, जो सारी दुनिया में संकट बनकर छाई है, लेकिन इस बात पर सभी पर्दा डालते हैं कि इस मंदी या आर्थिक संकट की वजह पूंजीवाद है, जिसका एकमात्र उद्देश्य मुनाफा कमाना है। आज अमरीका, यूरोप और दुबई से लेकर मुंबई, कोलकाता और गाजियाबाद, नोएडा, कोयंबतूर, इन्दौर, पीथमपुर, मालनपुर तक के मजदूर, छोटे कारखानेदार और छोटे व्यवसायी इस आर्थिक मंदी के शिकार होकर अपनी रोजी-रोटी खो बैठे हैं। वे जानते भी नहीं कि भरपूर मेहनत करने के बावजूद ऐसा उनके साथ क्यों हुआ। मुनाफे की होड़ में दनादन कर्ज बांटते गए अमरीकी बैंकों की गलतियों से अमरीकी अर्थव्यवस्था का जो दिवाला पिटा, उसका सबसे खराब नतीजा दुनिया भर के गरीब मजदूरों-किसानों को भुगतना पड रहा है।
उदारीकरण के नाम पर कंपनियों को ज्यादा मुनाफा कमाने की ढील और मजदूरों के जायज हकों में कटौती का जो दौर 20 बरस पहले शुरू हुआ था, वो अब और भी बेशर्म होकर गरीब जनता का शोषण कर रहा है। संगठित उद्योगों के भीतर कपड़ा मिलों के मजदूरों ने लगातार संघर्ष करते हुए जो जीत और मजदूरों के फायदे की जो उपलब्धियां हासिल की थीं, आज वे मजदूर सरकारी नीतियों और पूंजीपतियों की साझा साजिशों का शिकार होकर बेहद खराब जीवन स्थितियों से गुजर रहे हैं। कभी कपडा मिल में नौकरी मिलने को बैंक और शिक्षक की नौकरी से अच्छा माना जाता था। एक वजह तो यही थी कि कपडा मिलों में संगठित मजदूर आंदोलनों से नौकरी की सुरक्षा अधिक थी, कार्य स्थितियां बेहतर थीं, सामूहिकता का आनंद था और कारखाने में काम करना देश के लिए कुछ करने जैसा समझा जाता था। आज उन्हीं कपडा मिल मजदूरों के हाल ये हैं कि वे अपनी उम्र की अधेड़ अवस्था में कहीं प्राइवेट सुरक्षा गार्ड बनकर खडे हैं, कहीं सब्जी का ठेला लगा रहे हैं, कहीं पंचर जोड रहे हैं या कहीं किराए पर ऑटो रिक्शा चला रहे हैं। मिलें बंद हुए बरसों बीत गए लेकिन मिल मजदूरों को उनके हक की लडाई अभी तक लडनी पड रही है। जो इस सारी व्यवस्था से आजिज आ गए हैं, उनमें से अनेक हैं जिन्होंने अपने आपको निराशा में गर्क कर लिया है। उन्हीं की नई बेरोजगार पीढ़ी आसान शिकार बनती है साम्प्रदायिक, धार्मिक अंधविश्वास के कारोबारियों और अपराधी ताकतों का। इसके बावजूद ठीकरा मजदूर के सिर पर ही फोड़ा जाता है। इल्जाम लगाया जाता है कि मजदूरों की आरामतलबी और ट्रेड यूनियन राजनीति की वजह से कपड़ा मिलें घाटे में गईं। पूछा जाना चाहिए कि क्या अचानक देश की उन 112 कपड़ा मिलों में काम करने वाले मजदूर एकसाथ आरामतलब हो गए थे जिन्हें 1970 के दशक में बीमार घोषित कर नेशनल टेक्सटाइल कॉर्पोरेशन के अधीन लिया गया? दरअसल मालिकों ने करीब पांच दशकों तक इन मिलों से सैकड़ों गुना मुनाफा बनाया और जब मशीनें बदलने, नई तकनीक लाने और मजदूरों की जीवन स्थितियों पर खर्च करने की स्थिति आई तो उन्होंने कपड़ा मिलों को बीमार घोषित कर मजदूरों को सरकार के माथे पर थोपा, अपनी पूंजी मुनाफे के नए रोजगार में लगा दी। उद्योगों के अलावा सेवा क्षेत्र में भी कर्मचारी संगठनों ने कर्मचारियों के लिए बेहतर सेवा स्थितियों व उनकी नौकरी की सुरक्षा के सवाल को लेकर लगातार संघर्ष किया और कामयाबियां हासिल कीं। लेकिन पिछले दिनों जो रवैया सरकार और प्रबंधन ने स्टेट बैंक ऑफ इन्दौर के मामले में अपनाया, वो कर्मचारी संघर्षों के मामले में अभूतपूर्व है और ठोस सबूत है इस बात का कि मुनाफे की मंजिल हासिल करने के लिए पूंजीवादी राज्य व उसके पुर्जे किसी भी हद तक गिर सकते हैं। नब्बे वर्षों से लगातार लाभ में चल रहे स्टेट बैक ऑफ इन्दौर का विलय स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में कराने के लिए स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने न केवल पूरे देश में ख्यातिप्राप्त बैंक यूनियन को तोडा, बल्कि नियमों को ताक पर रखकर यूनियन के पदाधिकारियों के स्थानांतरण किए गए, अचानक विलय का प्रस्ताव लाया गया और उसे लागू कराने के लिए एडी-चोटी का जोर लगाया गया। आनन-फानन में प्रबंधन की बनाई एक दूसरी यूनियन को मान्यता दे दी गई। प्रबंधन के इस कार्य को निश्चित ही राज्य का समर्थन प्राप्त होगा। आज हमारा 'कल्याणकारी राज्य' सेठों और जमींदारों से ज्यादा दमनकारी हो गया है, बल्कि अब तो कंपनियां भी दमन करने के लिए अपनी प्राइवेट पल्टन रखने के बजाय राज्य को ही ठेका दे देती हैं। मध्य प्रदेश से लेकर असम, उडीसा, छत्तीसगढ, झारखण्ड, उत्तर प्रदेश, सभी जगह यही हाल हैं।
बैंक, बीमा का क्षेत्र हो या बडे उद्योगों का, सभी जगह मुनाफा बढ़ाने के लिए आरी कर्मचारियों और मजदूरों के हितों पर ही चलाई जा रही है। अनेक मजदूर-कर्मचारी यह सोचते हैं कि उनकी नौकरी बची हुई है तो वे क्यों किसी संगठन की राजनीति का हिस्सा बनें। वे इस इतिहास से नावाकिफ हैं कि उन्हें हासिल होने वाली छुट्टियों, तनख्वाह वृद्धि, भविष्यनिधि, पेंशन व अन्य लाभ संगठित मजदूरों के अथक और लंबे संघर्षों का नतीजा हैं। और जैसे ही संगठित मजदूरों की ताकत कम होती है, पूंजीवाद दिए हुए सारे हक मजदूरों-कर्मचारियों से छीन लेता है। पूंजीवाद-साम्राज्यवाद की चाकरी करने के लिए संगठित मजदूर संघर्ष को तोड़ने में खुद सरकार भी कल्याणकारी होने के सारे नकाब उतार कर मजदूर विरोधी भूमिका में आ गई है। रोजगार बचाने की, संघर्षों से हासिल हुए हकों को बचाने की ये लडाई आज हर क्षेत्र के मजदूरों-कर्मचारियों के लिए बडी चुनौती बन गई है। असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के प्रति तो मुनाफाखोर बाजार का रवैया और भी भयानक होता है। बीडी बनाने वाले, लघु उद्यागों में काम करने वाले, घरेलू कामकाज करने वाले, ठेला चलाने वाले, हम्माली करने वाले या इसी तरह के तमाम छोटे-बड़े कामों में दिन-रात पसीना बहाकर किसी तरह पेट पालने का जतन करते मजदूरों को रोजगार सुरक्षा और स्वास्थ्य-शिक्षा की सुविधाएं देना तो दूर, उल्टे उनके मुंह का निवाला भी छीना जा रहा है। खेती की हालत तो इससे भी ज्यादा खराब है। भूमिहीन मजदूरों और छोटे किसानों को जिन्दा रहने के लिए अधिकतर घर-परिवार छोड़कर पलायन करना पडता है और औनी-पौनी मजदूरी पर काम करके जीवन चलाना होता है। छोटे और मझोले किसानों के लिए भी खेती लगातार महंगी और मुश्किल होती जा रही है। खेती की बुरी हालत का इससे बडा क्या सबूत होगा कि सरकार खुद मान चुकी है कि पिछले 20 बरसों में 2 लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। इसके बावजूद देश में अरबपति बढ रहे हैं, कई कंपनियों का मुनाफा भी बढ़ रहा है, खिलाडियों की नीलामी वाला अरबों का आईपीएल क्रिकेट बढ रहा है, लेकिन रोजगार नहीं बढ़ रहा। ये सट्टेबाजी का ऐसा दौर है जिसमें उत्पादन कुछ नहीं हो रहा लेकिन पैसा बढ रहा है।
दो साल पहले अमरीका के राष्ट्रपति ने कहा था कि दुनिया में अनाज की कमी इसलिए आ रही है क्योंकि भारत और चीन के लोग ज्यादा खाने लगे हैं। इसी तर्ज पर कुछ और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने कहा है कि भारत के लोग जरूरत से ज्यादा खाते हैं। इस पर हमारी सरकार ये विचार कर रही है कि अभी गरीबों को जो थोड़ा-बहुत अनाज राशन की दुकानों से मिल जाता है, उसमें और कमी कर दी जाए। ऐसा सोचते हुए ये शर्म भी सरकार को नहीं आती कि खुद सरकार के ही अर्जुन सेनगुप्ता आयोग ने कहा है कि देश की 80 प्रतिशत से ज्यादा आबादी की हैसियत 20 रुपए रोज का खर्च करने की भी नहीं है।
एक तरफ सरकार बडी-बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों को पूरे देश में कहीं भी आने और प्राकृतिक संपदा से लेकर मजदूरों के शोषण के लिए न्यौता दे रही है और दूसरी तरफ गरीबों से उनकी नमक रोटी भी छीन रही है। अपना हक मांगने वाले किसानों, मजदूरों, कथित विकास परियोजनाओं के विस्थापितों-पीडितों, आदिवासियों और दलितों-शोषितों के बजाय सरकार की चिन्ता ये है कि विदेशी कंपनी के बीटी बैंगन व अमरीका के फायदे के परमाणु समझौते की रुकावटें किसी तरह दूर हो जाएं।
इन बातों की चर्चा 1 मई के मौके पर इसलिए करना जरूरी है क्यों कि इतिहास गवाह है कि जब सत्ता इतनी अमानवीय और क्रूर हो जाती है तो लोगों के सब्र का पैमाना भी छलकने लगता है। ये असंतोष हम देश में हर जगह उफनता हुआ देख रहे हैं। पूंजीवाद लोगों के गुस्से से पहले तो दमन करके निबटता है। लेकिन जब गुस्सा इतना व्यापक और गहरा हो जाए कि जेलें और गोलियां भी कम पड ज़ाएं तो वो बेचैन शोषित लोगों को साम्प्रदायिक, जातीय, नस्लीय, भाषायी, क्षेत्रीय और तमाम तरह के झगडाें में उलझााने, बांटने और आपस में ही लडाने की कोशिशें करता है। दुनिया का सबकुछ हडप लेने की हवस में साम्राज्यवाद-पूंजीवाद न केवल मजदूरों के हक-अधिकारों को खत्म करना चाहता है बल्कि हमने देखा कि कैसे तेल की खातिर उसने अफगाानिस्तान, इराक, लेबनान, फिलिस्तीन और अन्य देशों के लाखों लोगों और बच्चों का कत्लेआम किया। 1 मई का दिन हमें ये याद दिलाता है कि पूंजीवाद को मेहनतकश जनता की सामूहिक ताकत के सामने आखिरकार झुकना पडता है। सन् 1886 की 1 मई को अमरीका के शिकागो शहर के हे मार्केट में जुलूस निकालते निहत्थे मजदूरों पर गोलियां चलाई गयीं और अनेक मजदूर मारे गए। बाद में चार मजदूर नेताओं को फांसी की सजा दी गई। उनका कसूर सिर्फ ये था कि वे काम के घंटे आठ किए जाने की मांग कर रहे थे। उस वक्त औद्योगिक क्रांति हुई ही थी और नए-नए उद्योग लग रहे थे। मजदूरों से गुलामों की तरह 12-14 घंटे बेहिसाब काम लेना आम बात थी। 1 मई को शहीद हुए उन मजदूर साथियों के खून से रंगा वो लाल झण्डा सारी दुनिया के मजदूर आंदोलन को सुर्ख रंग दे गया। उसके बाद से मजदूर आंदोलन तेज होता गया और तमाम संघर्षों के साथ कामयाबी की सीढ़ियां चढता गया। आज पूंजीवाद फिर अपने मुनाफे की खातिर मजदूरों से वो सारी उपलब्धियां छीन लेना चाहता है जो उन्होंने पीढियों के संघर्ष और अपना खून बहाकर हासिल की हैं। 1 मई हमारे लिए उन मजदूर साथियों और उनकी शहादत को याद करने का दिन है जो समूचे मजदूर-मेहनतकश तबके के हितों और हकों के लिए लडे, ज़ो साम्राज्यवाद-पूंजीवाद के रास्ते में चट्टान बनकर खडे हुए और समाजवाद के सपने को करोड़ों दिलों में बसा गए। 1 मई उस संकल्प को याद करने का भी दिन है कि ये समाज व्यवस्था, जो लालच, स्वार्थ, मुनाफे, भेदभाव और गैर-बराबरी पर टिकी है, ये हमें मंजूर नहीं। इसे हम बदल डालेंगे और एक ऐसा समाज बनाएंगे जहां इंसान का और श्रम का सम्मान हो, न कि पूंजी और मुनाफे का। 1 मई यह याद करने का भी दिन है कि शोषण के खिलाफ लडी ज़ा रहीं तमाम लंडाइयां शोषणविहीन समाज की स्थापना के व्यापक संघर्ष का ही हिस्सा हैं और हम सब मिलकर पूंजीवाद को उखाड़ फेंकने में जरूर कामयाब होंगे। इसी सपने की खातिर लडी ज़ाने वाली लड़ाइयों के लिए इंकलाबी शायर फैज अहमद फैज ने लिखा था -

यूं ही हमेशा जुल्म से उलझती रही है खल्क (जनता) उनकी रस्म नई है अपनी रीत नई यूं ही हमेशा खिलाए हैं हमने आग में फूल उनकी हार नई है अपनी जीत नई।


विनीत तिवारी

देशबन्धु से साभार

हिन्दी ब्लॉग टिप्सः तीन कॉलम वाली टेम्पलेट