Saturday 21 April, 2018

देश के समक्ष मौजूद चुनौतियाँ और वामपंथ


   देश आजादी के बाद के सबसे जटिल संकट से गुजर रहा है। देश और अधिकतर राज्यों की सत्ता ऐसे समूह के हाथों में केन्द्रित है जो संपूर्णतः देश के मेहनतकशों के हितों पर डाका डाल कर पूँजीपतियों की तिजौरियाँ भरने को प्रतिबद्ध हैं, पर चोरी और सीनाजोरी साथ साथ नहीं चल सकते, अतएव सत्तारूढ़ गिरोह ने धर्म का लबादा ओढ़ लिया है। भेड़ों के शिकार के लिए भेड़िए ने भेड़ों की ही खाल ओढ़ ली है। देश की आबादी का लगभग 70 प्रतिशत भाग आज भी ग्रामों में रहता है। यह ग्रामीण भारत खेती और खेती से जुड़े लघु उद्यमों पर आश्रित है। वहीं ग्रामीण आबादी का एक भाग मजदूरी दस्तकारी करने को शहरों को जाता है और फसलों की कटाई-बोआई के समय गाँव लौट आता है। आज यह ग्रामीण समुदाय आर्थिक रूप से सबसे अधिक असुरक्षित और विपन्न है। कारण-खेती बेहद घाटे का सौदा बन चुकी है। पूँजीवादी अर्थतंत्र खेती के बल पर टिका हुआ है पर खेती किसान की लागत और मेहनत को निगल रही है। खेती बदहाल है तो उससे जुड़े लघु और कुटीर उद्योग भी बरबाद हैं। खेती और उसकी बदहाली के कई प्रमुख कारण हैं। कृषि उत्पादों की कीमतें तय करने का अधिकार किसान के पास नहीं है। कुछेक खाद्यान्नों की कीमतें सरकार तय करती है तो फल सब्जी और कई अन्य की कीमतें मंडी में माँग-आपूर्ति के आधार पर तय होती हैं। यह लागत, जमीन के किराए और किसान के परिश्रम की तुलना में काफी कम होती हैं। इसके अलावा खेती में काम आने वाली हर वस्तु की कीमत मुनाफे पर आधारित बाजार निर्धारित करता है। इससे खेत्ती का लागत मूल्य बढ़ जाता है। प्राकृतिक आपदाओं की मार भी किसानों के ऊपर ही पड़ती है।
    ऐसी ही अन्य कई वजहों से किसान निरंतर घाटे के चलते कर्जदार होता जा रहा है। बैंक ऋण हासिल करने में आने वाली कठिनाइयाँ उसे सूदखोरों से कर्ज लेने को बाध्य करती हैं। यही वजह है कि कर्ज में डूबे पीड़ित किसानों द्वारा आत्महत्याएँ करने का दौर थमने का नाम नहीं ले रहा। भाजपा और मोदी ने गत लोकसभा चुनावों के दौरान किसानों की आमदनी दोगुना करने का वादा किया था। पर अन्य वादों की तरह यह भी जुमला ही साबित हुआ। वस्तुतः किसान तथा अन्य ग्रामीण श्रमिक ठगा महसूस कर रहे हैं। ग्रामीण श्रमिकों की जीवनरेखा- मनरेगा को भी सीमित कर दिया गया है।
    यद्यपि गत शताब्दी के सातवें दशक से ही मन्दी और उद्योग बन्दी शुरू होगयी थी लेकिन 1991 में शुरू हुए आर्थिक नवउदारवाद के दौर में मंदी और बंदी की यह रफ्तार और तेज हो गयी। मोदी सरकार के कतिपय कदमों जिनमें नोटबन्दी और जीएसटी का लागू किया जाना प्रमुख हैं, ने हालात को और संगीन बना दिया है। फलतः हमारी अर्थव्यवस्था में चहुँतरफा गिरावट स्पष्ट दिखाई दे रही है। डालर के मुकाबले रूपये की कीमत निरंतर गिर रही है। आयात बढ़ा है और निर्यात घटा है। सकल घरेलू उत्पाद (जीएसटी) की दर हो या औद्योगिक उत्पादन की दर, लगातार क्षरण की ओर है। इसके परिणाम स्वरूप बेरोजगारी में बेतहाशा वृद्धि हुई है। मोदीजी ने दो करोड़ नौजवानों को हर वर्ष रोजगार देने का वादा किया था पर उन्हें रोजगार देने के बजाए सिर्फ मुद्रा, स्टार्टअप, स्किल इंडिया और डिजिटल इंडिया आदि नारों से बहलाने की कोशिश की जा रही है। देश की युवा पीढ़ी भाजपा की गलत नीतियों का खामियाजा भुगत रही है। पूँजीपतियों, जिनके कतिपय हिस्से आज कारपोरेट घराने बन चुके हैं, को लाभ पहुँचाने को जनता की गाढ़े पसीने की कमाई से स्थापित हुए व स्वदेशी बुद्धिमत्ता और परिश्रम से विकसित हुए सार्वजनिक उद्यमों को उनके हाथों बेचा जा रहा है। बैंकों में आम जनता के जमा धन को जबरिया धनिक वर्ग को दिलाया जा रहा है जिसे वे वापस करने के बजाय बट्टे खाते में डलवा रहे हैं या फिर बैंकों से भारी रकमें लेकर विदेशों को भाग रहे हैं। बैंकों से लगातार हो रही इन अवैध निकासियों का भार सामान्य निवेशकों पर डाला जा रहा है। जितने घपले घोटाले संप्रग सरकार के दो कार्यकालों में हुए थे उससे कहीं ज्यादा राजग/भाजपा के चार सालों में हो चुके हैं। सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली को बरबाद करने की प्रक्रिया दशकों से जारी थी लेकिन मोदी राज में वह और तेज हुई है। शिक्षा का बजट निम्नतम् स्तर पर ला दिया गया है। अब चुनिंदा और प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों को निजीकरण की दिशा में धकेला जा रहा है। नीति यह है कि इसे इतना महँगा बना दिया जाए कि समाज के सामान्य हिस्से इससे वंचित हो जाएँ और वे लुटेरी और शोषक पूँजीवादी व्यवस्था की भट्टी में जलने वाले सस्ते ईंधन के तौर पर इस्तेमाल होते रहें। इस उद्देश्य से श्रम कानूनों को भी नख-दन्त विहीन बनाया जा रहा है। शिक्षा को धर्मान्धता, पाखण्ड, पोंगापंथ और सांप्रदायिकता फैलाने का औजार बनाने के लिए इसके पाठ्यक्रमों में प्रतिगामी बदलाव किये जा रहे हैं। इतिहास, कला और संस्कृति की व्याख्या नागपुरी दृष्टिकोण से की जा रही है।
   शिक्षा की तरह स्वास्थ्य सेवाएँ भी सरकार के निशाने पर हैं और वे भी बेहद महँगी, छलपूर्ण और आम आदमी की पहुँच से बाहर होती चली जा रही हैं। महँगाई ने निरंतर पाँव पसारे हैं और सार्वजनिक वितरण प्रणाली को पंगु बना कर गरीबों के मुहँ का निवाला छीना जा रहा है। हर तरह की सब्सिडी पर कुल्हाड़ी चलाई जा रही है। आतंकवाद को समाप्त करने और सीमा पार के दुश्मनों का खात्मा करने के मोदी और भाजपा के दावों का खोखलापन इसी से जाहिर हो जाता है कि गत चार सालों में पूर्व के भारत-पाक युद्धों से भी अधिक संख्या में हमारे सैनिक और अन्य सुरक्षा बलों के जवान शहीद हो चुके हैं। मोदी, भाजपा और आरएसएस की काकटेल और कारपोरेट हितों की पोषक इस सरकार के प्रति जनता का मोहभंग तेजी से बढ़ रहा है। हाल में कई राज्यों में हुए उपचुनावों, निकाय और अन्य चुनावों के परिणामों ने भाजपा के पैरों तले से जमीन के खिसकने का संकेत दे दिया है। उत्तर प्रदेश के गोरखपुर और फूलपुर की लोकसभा सीटें, जिन पर प्रदेश के मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री  जीते थे, पर भाजपा की करारी हार ने साबित कर दिया है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की पराजय का रास्ता तैयार हो रहा है। उनका दावा कि “मोदी का कोई विकल्प नहीं”, उत्तर प्रदेश में ही जमींदोज होने जा रहा है।
    जाहिर है संपूर्ण सत्ता का स्वाद चख चुकी भाजपा और उसका रिंग मास्टर आरएसएस इसे इतनी आसानी से छोड़ने वाला नहीं। बेनकाबी जितनी तेजी से बढ़ रही है उसको नकाब पहनाने के प्रयास भी उतनी ही तेजी से बढ़ रहे हैं। अतएव हर वह हथकंडा जो जनता को गुमराह और विभाजित कर सके अपनाया जा रहा है। सभी जानते हैं कि मंदिर-मस्जिद विवाद सर्वोच्च न्यायालय के
विचाराधीन है और उसका फैसला आने पर ही हल की ओर बढ़ सकता है। फिर भी मंदिर निर्माण के लिए अलग-अलग मुखों से तीखे बोल बोले जा रहे हैं। कथित लव जिहाद, गोरक्षा और तीन तलाक जैसे मुद्दों की आड़ में अल्पसंख्यकों और दलितों को निशाना बनाया जा रहा है। दंगे कराये जा रहे हैं और दंगों तथा हत्याओं में संलिप्त संघी अपराधियों को आरोपों से मुक्त किया जा रहा है। विभाजनकारी यह एजेंडा दिन ब दिन धारदार बनाया जाना है। संविधान और न्यायिक प्रणाली तक को बदलने का प्रयास जारी है।
    कारपोरेट हितों की पोषक और फासिस्टी रुझानों से सराबोर इस सरकार को सत्ताच्युत करना आज हर लोकतंत्रवादी ताकत का सबसे प्रमुख लक्ष्य बन गया है। वामपंथ ने तो इस सरकार के पदारूढ़ होते ही संकल्प व्यक्त किया था कि वह इस जन विरोधी और लोकतंत्र विरोधी सरकार को उखाड़ फैंकने को कोई कोर कसर बाकी नहीं रखेगी। तदनुसार वामदलों और उनके सहयोगी संगठनों ने इन चार सालों में अनेक जन प्रश्नों पर आन्दोलन खड़े किए हैं। परन्तु परिस्थितियों की जटिलता को देखते हुए ये नाकाफी हैं। अतएव समय की माँग है कि
जनविरोधी, लोकतंत्र और संविधान विरोधी इस सरकार को अपदस्थ करने को एक व्यापक और व्यावहारिक रणनीति बनाई जाए। सभी लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और वामपंथी ताकतों का एक प्लेटफार्म तैयार कर संघर्षों को नई ऊँचाइयों तक ले जाया जाए। बरबादी की जड़ आर्थिक नवउदारवाद की नीतियों का एक आर्थिक-सामजिक विकल्प पेश किया जाए। सांप्रदायिकता, धर्मान्धता और रूढ़िवादिता के खिलाफ वैचारिक मुहिम छेड़ी जाए। इसके लिए संकीर्णताओं से मुक्त और कार्यक्रम
आधारित वामपंथी एकता बेहद जरूरी है। वामपंथी दलों को इस दिशा में तत्काल ठोस पहल करनी चाहिए। पूर्व की भाँति ढील-ढाल और हीला-हवाली नकारात्मक परिणाम दे सकती है। अच्छी बात है कि देश की दो प्रमुख पार्टियों-भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के राष्ट्रीय
महाधिवेशन इसी अप्रैल माह में होने जारहे हैं। एक अन्य कम्युनिस्ट पार्टी माले का महाधिवेशन भी हो रहा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इन महाधिवेशनों से अभूतपूर्व वाम एकता और उसके इर्द-गिर्द व्यापक जनवादी ताकतों की एकता का मार्ग अवश्य ही प्रशस्त होगा।             
    
-डॉ. गिरीश
मोबाइल : 09412173664
लोकसंघर्ष पत्रिका अप्रैल 2018 विशेषांक में प्रकाशित 

उत्तर-सत्य के इस काल में कम्युनिस्टों की मुक्तिकामी राजनीति को स्थापित करना होगा


यह समय भारत की राजनीति में एक नये प्रकार के उथल-पुथल का समय है, जिसमें भाजपा-आरएसएस सत्ता के मद में अपने सारे कपड़े उतार कर निपट नंगे रूप में सरे बाजार सीना फुलाये घूम रहे हैं और पूरा देश उनकी सारी उदंडताओं को देखते हुए 2019 के चुनाव की अधीरता से प्रतीक्षा कर रहा है। मोदी के स्वेच्छाचारी शासन के खिलाफ जनता के तमाम हिस्से लामबंद हो रहे हैं। दूसरी ओर यही समय भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन के लिए एक प्रकार के अस्तित्वीय संकट का समय भी जान पड़ता है जिसमें उसे पूरी तरह से दीवार से सटा दिए जाने की स्थिति से अपनी पूरी ताकत लगा कर पलट कर खड़ा होने की ताकत का परिचय देना है। संयोग से अभी भारत की दो प्रमुख कम्युनिस्ट पार्टियों की पार्टी कांग्रेस की प्रक्रिया का भी समय है, उनकी सर्वोच्च नीति नियामक सभा के आयोजन का समय।
    इसलिए देश और दुनिया के सामने आज के समय की बिल्कुल नई प्रकार की चुनौतियों के वक्त कम्युनिस्ट पार्टियों की कांग्रेस के ये आयोजन बहुत ही अर्थपूर्ण और संभावनापूर्ण साबित हो सकते हैं। समय और राजनीति का पूरा परिदृश्य तेजी से बदल चुका है और कम्युनिस्ट पार्टियों को इन नई परिस्थितियों के संदर्भ में खुद को रखते हुए यदि राजनीति की अपनी समझ को विकसित और समीचीन नहीं बनाती है, व्यापक मेहनतकश जनता के हितों से जुड़े अपने मूल तत्व की शक्ति को नये सिरे से अर्जित नहीं करती है तो भारत में वामपंथ की गिरावट के इसी बीच जो सभी संकेत सामने आ चुके हैं, उनसे आगे उबर पाना असंभव हो जाएगा। ये पार्टी कांग्रेस ही एक प्रकार से ऐसे बचे हुए अवसरों में से एक सबसे प्रमुख अवसर हैं जब हर प्रकार की कोरी गुटबाजी से ऊपर उठते हुए पार्टी एक गंभीर बहस और समकालीन परिस्थिति का सटीक विश्लेषण करके नये सिरे से भारत की राजनीति में मेहनतकशों के संगठित हस्तक्षेप की संभावनाओं को बनाये रख सकती है।
    सारी दुनिया में कम्युनिस्ट राजनीति की सबसे बड़ी विशेषता क्या है? कम्युनिस्ट राजनीति का मूल तत्व है जनता की मुक्ति, उसके जीवन को तमाम बंधनों से मुक्त करके उसकी सर्जनात्मक शक्ति को उन्मोचित करना। कम्युनिस्ट राजनीति का लक्ष्य कभी भी शुद्ध रूप में किसी राजसत्ता के दमनकारी तंत्र का निर्माण नहीं हो सकता है। समाजवादी क्रांति के बाद निर्मित समाजवादी व्यवस्था और राजसत्ता का लक्ष्य भी सभी प्रकार की राजसत्ता को खत्म करने की दिशा में ही चरितार्थ हो सकता है। जब भी समाजवादी राज्य अपनी उस भूमिका को भूल कर सिर्फ जनता पर शासन करने के एक तंत्र के रूप में काम करने लगता है, उसमें वे सारी विकृतियाँ उत्पन्न होने लगती हैं, जो समाजवाद के मुक्तिदायी चरित्र को उससे छीन लेती हैं। सोवियत संघ में समाजवाद के पराभव के मूल में यही सच्चाई काम कर रही थी जहाँ किसी भी वजह से क्यों न हो, समाजवादी व्यवस्था ने भी एक दमनकारी नौकरशाही व्यवस्था का रूप ले लिया था और इसलिए समाजवाद को मुक्तिकामी चरित्र और पूँजीवाद-सामंतवाद के शोषणकारी चरित्र के बीच का फर्क ओझल होने लगा जो अंत में समाजवाद के पूरी तरह से पराभव का कारण बना।
    इसी मानदंड पर भारत में कम्युनिस्ट पार्टियों को भी अपनी राजनीति की बार-बार समीक्षा-पुनर्समीक्षा करने की जरूरत है। भारत में आजादी के इन सत्तर सालों में एकाधिक राज्यों में कम्युनिस्ट पार्टियों को राज्य सरकारें बनाने का मौका मिला है और केरल, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा की इन सरकारों ने खास तौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में भूमि सुधार और पंचायती राज के कामों के जरिए गाँव के गरीबों के जीवन को जिस प्रकार से शोषण के जुए से मुक्त किया, वह भारतीय राजनीति के इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय कहलाएगा। इसीका परिणाम रहा कि पश्चिम बंगाल में तो रिकर्ड 34 सालों तक लगातार वाम मोर्चा सरकार का शासन कायम रहा, लेकिन भूमि सुधार के इन कामों के अलावा शहरी और औद्योगिक क्षेत्र में वामपंथी सरकारें अपनी भूमिका को दूसरी पूँजीवादी पार्टियों से अलग रूप में दिखाने में असमर्थ रहीं। उल्टे तंत्र पर उसकी निर्भरशीलता ने मौके-बेमौके इन सरकारों को अपनी ही जनता की आकांक्षाओं के विरुद्ध खड़ा कर दिया। शहरी विकास के लिए जमीन के
अधिग्रहण के मामले में इसका नजरिया गरीब जनता के हित में होने के बजाए उनके खिलाफ तक देखा गया, और भारतीय वामपंथ को इससे एक भारी राजनैतिक खामियाजा भुगतना पड़ा है। इसके कारण वामपंथ अपने मुक्तिकामी चरित्र के साथ समझौता करता हुआ दिखाई देने लगता है।
    पश्चिम बंगाल में नंदीग्राम और सिंगुर के बाद अभी हाल में केरल के कन्नूर जिले के एक छोटे से गाँव में एक बाईपास बनाने के लिए जमीन के अधिग्रहण के मामले में विवाद ने जो रूप लिया, वह भी कुछ ऐसा ही मामला था, लेकिन सौभाग्य की बात है कि अंततः केरल की सरकार के वामपंथी नेतृत्व में शुभ बुद्धि का उदय हुआ और उन्होंने इस समस्या के समाधान का एक वैकल्पिक रास्ता खोज लिया-जमीन के अधिग्रहण के बिना फ्लाई ओवर के जरिए काम को आगे बढ़ाने का रास्ता।
    यह विवाद इसी बीच इतना बढ़ गया था कि वह राष्ट्रीय खबरों में शामिल हो गया था। वहाँ की एलडीएफ सरकार और पार्टी गाँव के अंदर से ही सड़क को ले जाने पर तुले हुए थे और किसान अपनी जमीन को न देने पर आमादा थे। जाहिर है कि यह हमें अनायास ही बंगाल की नंदीग्राम और सिंगुर की घटनाओं की याद दिला रहा था। सत्ता पर आकर राजनीति को भूल सिर्फ अर्थनीतिक ‘विकास’ के प्रति मोहांधता सचमुच एक कथित क्रांतिकारी पार्टी के द्वारा जनता के अराजनीतिकरण का काम करने की तरह है। समाज में कोई भी परिवर्तन सर्व-मान्य धारणाओं से चिपके रह कर संभव नहीं है, बल्कि नया कुछ करने के लिए प्रचलित सोच से अपने को काटना पड़ता है। वही राज्य की अपनी जड़ता को भी तोड़ने का कारक बन सकता है और इस प्रक्रिया में जनता के साथ वैर की कोई जगह नहीं हो सकती है। पार्टी का नौकरशाही ढाँचा अक्सर अपने को जनता की इस प्रकार की अन्दुरूनी सक्रियता, उसके आंदोलन के खिलाफ खड़ा कर लेता है।
    इसलिए वामपंथ के लिए प्रमुख बात यह है कि जनता के जो भी हिस्से अपने जीवन की समस्याओं के लिए जो भी आंदोलन कर रहे हो, वामपंथी ताकतों को उन आंदोलनों में अपनी मौजूदगी और उनके साथ हमेशा अपनी एकजुटता के लिए हमेशा तत्पर रहना चाहिए। क्रांतिकारी राजनीति का दायित्व शासन की समस्याओं का समाधान नहीं है, जनता की समस्याओं का समाधान है और अपने इसी दायित्व के तहत उन्हें  अपने शासन को भी संचालित करना चाहिए। फिर यह समस्या आम लोगों की अपनी राष्ट्रीय-जातीय पहचान से जुड़ी हुई भी हो सकती है, वर्ण-वैषम्य से मुक्ति की भी हो सकती है, गाँव के किसानों के उत्पाद के वाजिब मूल्य की माँग की हो सकती है या संगठित-असंगठित क्षेत्र के मजदूरों, कर्मचारियों और विभिन्न पेशेवरों की जीविका के सवालों से भी जुड़ी हो सकती है। 
    आज सामान्य तौर पर देखा जाए तो भारत की राजनीति के लिए भारतीय गणतंत्र की रक्षा का सवाल एक सबसे प्रमुख सवाल है। मोदी-आरएसएस सरकार के रूप में एक ऐसी शक्ति ने यहाँ राजसत्ता पर अपना कब्जा कर रखा है जो इस देश के धर्म-निरपेक्ष और जनतांत्रिक
संविधान पर, नागरिकों के मूलभूत अधिकारों पर विश्वास नहीं करती है। हिटलर की प्रेरणा से निर्मित इस संगठन का एकमात्र लक्ष्य है सारी सत्ता को केंद्रीभूत करके एक अधिनायकवादी शासन-व्यवस्था कायम करना। नागरिकों की हैसियत इनकी नजर में गुलामों से बेहतर नहीं है। पिछले चार सालों में अपने अनेक कदमों से इसने अपने इन इरादों को पूरी नंगई के साथ प्रकट किया है। नोटबंदी और जीएसटी की तरह के कदम एक वही स्वेच्छाचारी सरकार उठा सकती है जो जनता को अपना गुलाम मानती है। इसी प्रकार जिस धृष्टता के साथ ये न्यायपालिका के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं, जज की हत्या तक के मसलों को दबाने की कोशिशों से बाज नहीं आ रहे हैं, उसने जनतांत्रिक राजनीति के सभी रूपों के सामने संकट पैदा कर दिया है। पूरी अर्थ-व्यवस्था ठप है।
    इन सबके साथ ही आज के समय में मीडिया के विभिन्न रूपों के प्रयोग से जिस प्रकार झूठ को ही राजनीति का आधार बना दिया जा रहा है, वह आज के समय का एक बेहद खतरनाक पहलू है। इसी वजह से आज के युग को ही उत्तर-सत्य का युग कहा जाने लगा है। हम जानते हैं कि हर जगह बुर्जुआ राजनीतिज्ञ झूठ बोलते रहे हैं, लेकिन यहाँ समस्या यह है कि राजनीतिज्ञों की इस नई पौध का सच से जैसे कोई नाता ही नहीं है! और इससे भी बड़ी समस्या यह है कि इतनी नंगई के साथ झूठ बोलने वाला भी राजनीति में जनता के द्वारा पुरस्कृत हो जाता है। साधारण लोगों को उसकी उटपटांग बातों से कुछ इस प्रकार का अहसास होने लगता है कि देखो, यह एक शेर आया है जो अब तक के सारे बुद्धिमानों, कुलीनों की अक्ल ठिकाने लगा सकता है।
    दुनिया में डोनाल्ड ट्रंप को इस पोस्ट ट्रुथ का प्रवर्तक माना जाता है। लेकिन राजनीति के इस रूप का हमारा अनुभव तो ट्रंप से भी दो साल पुराना है, केंद्र की राजनीति में मोदी के उदय के समय से ही। हमने तो देखा था कि मोदी कैसे धड़ल्ले से तक्षशिला को बिहार में ले आए थे और सिकंदर की लड़ाई बिहारियों से करवा दी थी। उन्होंने जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी को क्रांतिकारी बताने के लिए उन्हें लंदन में श्याम कृष्ण वर्मा बता दिया। यहाँ तक कि धारा 370 के बारे में कह दिया कि वह तो सिर्फ औरतों के अधिकारों से जुड़ी एक धारा है। ऐतिहासिक तथ्यों की मनमानी व्याख्या में भी उनकी कोई बराबरी नहीं थी। भारत को वे 1000-1200 साल से गुलाम बताने से नहीं हिचकते। सामाजिक समरसता नामक पुस्तक का विमोचन करते हुए उन्होंने कह दिया कि “दलित मंद बुद्धि बच्चों की तरह होते हैं।” वाल्मीकि समुदाय के लोगों के बारे में कहा कि वे आध्यात्मिक अनुभव लेने के लिए मैला ढोया करते हैं और गटर साफ करते हैं। सोहराबुद्दीन शेख के फर्जी इनकाउंटर के बारे में भरी सभा में कहा कि वह इसी प्रकार के व्यवहार का हकदार था, और उस पर सभा में शामिल लोगों का अनुमोदन भी हासिल किया। हांकने में वे इतने उस्ताद रहे कि पश्चिमी सीमाओं पर डटे हुए सैनिकों के प्रति अपने प्रेम को जताने के लिए कह दिया कि वे 700 किलोमीटर की पाइप लाईन बैठा कर उनके लिये नर्मदा का पानी लाये हैं। इसके पहले अपनी एक सभा में उन्होंने फैला दिया था कि 15 दिसंबर 2012 के दिन भारत गुजरात और
सिंध को समुद्र में अलग करने वाले सर क्रीक मुहाने को पाकिस्तान को सौंप देगा, जबकि इस विषय पर कभी किसी की किसी के साथ कोई चर्चा तक नहीं हुई थी। सन् 2002 में मुसलमानों के बारे में कहा कि उनका उसूल है हम पाँच और हमारे पच्चीस। जबकि गुजरात में मुसलमानों की आबादी के अनुपात में पचास साल में कोई वृद्धि नहीं हुई है। सोनिया गांधी के इलाज पर सरकार ने 1800 करोड़ रुपये खर्च कर दिए, यह भी उनका फैलाया हुआ ही एक झूठ था। मोदी शुरू से लेकर आज तक ऐसी न जाने कितनी बेतुकी, तथ्यहीन बातें कहते रहे हैं, इसका कोई हिसाब नहीं है। नोटबंदी के समय तो वे हर रोज एक नया झूठ गढ़ा करते थे। अभी वे डावोस में अपने भाषण में कितनी झूठी बातें बोल रहे थे, भारत में शांति और समृद्धि के बारे में, लाल फीताशाही के खात्मे और इनक्लुसिव ग्रोथ के बारे में। इन बातों को हम सब जानते हैं। जिस समय वे भारत में सबका साथ सबका विकास की बात कह रहे थे, उसी समय यहाँ  पर इन तथ्यों पर चर्चा चल रही थी कि देश की 73 प्रतिशत संपदा पर 1 प्रतिशत लोगों का कब्जा है। देश में अपने को सुखी और समृद्ध समझने वालों की संख्या घटते-घटते अब आबादी का सिर्फ तीन प्रतिशत रह गई है और प्रधानमंत्री डावोस में बड़े लोगों के अपने टोले के साथ बेपनाह मौज में लगे हुए थे।
    इसके अतिरिक्त मीडिया का विस्फोट भी उत्तर-सत्य की इन परिस्थितियों में अपनी भूमिका अदा कर रहा है। सूचना केंद्रों के बिखराव से झूठ और अफवाहों के केंद्रों में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। व्हाट्स अप इंडस्ट्री तो झूठ की फैक्ट्री है। इसके ग्रुप के सदस्य आपस में ही एक-दूसरे पर विश्वास करते हैं, और किसी पर नहीं। इस प्रकार के केंद्रों से फैलाये जाने वाले झूठ की काट भी मुश्किल होती है। इन सब चक्कर में अक्सर जिसका नुकसान होता है वह है सच का नुकसान। बहसें सच पर नहीं, झूठ पर केंद्रित हो जाती हैं। जीवन के असली विषय पीछे छूट जाते हैं। भारत के टीवी मीडिया पर जब मोदी के आईटी सेल का छोड़ा हुआ दूसरा कोई मुद्दा नहीं होता है तब किम जोंग उन या सीरिया, इराक की कहानियां छाई रहती हैं। इन हालात का इसके अलावा हमें दूसरा कोई उत्तर नहीं दिखाई देता है कि परिस्थितियाँ जितनी भी प्रतिकूल क्यों न हो, सत्य की लड़ाई लड़ने वालों को पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ अपने सत्य पर अडिग रहना होगा। झूठ से मुकाबले के नाम पर उसी के जाल में फंसने से बचना होगा। सत्य की ताकत पर भरोसा रखना होगा। आज मीडिया के विस्फोट के इस काल का एक सच यह भी है इसमें झूठी बातों पर से बहुत जल्द ही पर्दा भी उठ जाता है। फैलाए गए झूठ का तत्काल सही काट भी व्हाट्सअप, फेसबुक आदि पर आ जाता है। हर षड्यंत्र के बेनकाब होने की संभावना भी बनी रहती है। यह सोशल मीडिया का ही दबाव है कि जज लोया के मामले की तलवार आज भी अभियुक्त अमित शाह पर लटक रही है। कानून की दुनिया को अगर इस उत्तर सत्य ने प्रभावित किया है, तो उसमें विद्रोह के बीज भी सत्य की लड़ाई के जरिए देखने को मिल रहे हैं। आज उत्तर-सत्य के मोदी-शाह जैसे नायकों को भी इसी के औजारों का डर सता रहा है। कहना न होगा इससे राज्य के और ज्यादा दमनकारी होने का खतरा है, तो आम लोगों में विद्रोह की संभावना भी बन रही है। मोटे तौर पर यह एक राजनैतिक परिस्थितियों का संदर्भ है जिसमें भारत के कम्युनिस्टों को अपनी मुक्तिकामी राजनीति को नए सिरे से अर्जित करना है। यह काम सभी जनतंत्र-प्रेमी और धर्म-निरपेक्ष ताकतों को लामबंद करने की एक व्यापक राजनैतिक दृष्टि के जरिये ही किया जा सकता है। भविष्य सिर्फ और सिर्फ जनता को बंधनों से मुक्त करने वाली राजनीति पर विश्वास करने वाली ताकतों का ही है।  
-अरुण माहेश्वरी
मो-09831097219
लोकसंघर्ष पत्रिका अप्रैल 2018 विशेषांक में प्रकाशित

कार्ल मार्क्स के अनमोल विचार


  
दुनिया के मजदूरों एकजुट हो जाओ, तुम्हारे पास खोने को कुछ भी नहीं है सिवाय अपनी जंजीरों के। हर किसी से उसकी क्षमता के अनुसार, हर किसी को उसकी जरूरत के अनुसार-
  • इतिहास खुद को दोहराता है, पहले एक त्रासदी की तरह, दूसरे एक मजाक की तरह।                     
  • कोई भी जो इतिहास की कुछ जानकारी रखता है वह ये जानता है कि महान सामाजिक  बदलाव बिना महिलाओं के उत्थान के असंभव हैं। सामाजिक प्रगति, महिलाओं की सामजिक स्थिति, जिसमें बुरी दिखने वाली महिलाएं भी शामिल हैं, को देखकर मापी जा सकती है।                 
  • लोकतंत्र समाजवाद का रास्ता है।         
  • पूँजी मृत श्रम है, जो पिशाच की तरह केवल जीवित श्रमिकों का खून चूस कर जिंदा रहता है, और जितना अधिक ये जिंदा रहता है उतना ही अधिक श्रमिकों को चूसता है।दुनिया के मजदूरों एकजुट हो जाओ, तुम्हारे पास  खोने को कुछ भी नहीं हैए सिवाय अपनी जंजीरों के। कार्ल मार्क्स धर्म मानव मस्तिष्क जो न समझ सके उससे निपटने की नपुंसकता है। 
  • शासक वर्ग को कम्युनिस्ट क्रांति के डर से कांपने दो। मजदूरों के पास अपनी जंजीरों के आलावा और कुछ भी खोने को नहीं है। उनके पास जीतने को एक दुनिया है। सभी देश के कामगारों एकजुट हो जाओ।    
  • मेरा भी मालिकाना होगा कब्जा होगा हम सबका- बार्सिलोना हाबिक मोसान मैनचेस्टर के कपड़ा मिलों पर अगर नहीं, तो नहीं!       
    (अनुवाद-दिगम्बर)

-गोपाल मिश्रा
लोकसंघर्ष पत्रिका अप्रैल 2018 विशेषांक में प्रकाशित 

वन्दे जम्हूरियत


   त्रिपुरा में ढाई दशकों के शासन के बाद मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सत्ता के पतन को वाम विचारधारा के अंत के रूप में देखना-प्रचारित करना सरासर इतिहास विरोधी दृष्टि होगी। त्रिपुरा में  हार को वाम शक्तियों की राज सत्ता के पराभव के रूप में देखा जा सकता है, न कि वामवादी वैचारिक सत्ता की पराजय।
    फिर भी ठोस राजनैतिक यथार्थ को नजरंदाज करना भी इतिहास से मुँह मोड़ना होगा। यकीनन यह समय दक्षिणपंथ की आक्रमकता का है, जिसके आलम हमलावर हैं नरेन्द्र मोदी, डोनाल्ड ट्रम्प जैसे लोग अमरीका, यूरोप ,एशिया समेत विश्व के दूसरे भागों में कॉर्पोरेट-याराना पूँजीवाद के राकेट पर सवार होकर  दक्षिणपंथी शक्तियाँ चारों दिशाओं में हमले कर रही हैं। इस नक्शे को दिमाग में रख कर त्रिपुरा-हार और  संघ-भाजपा उभार को देखा जाना चाहिए।
    प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने त्रिपुरा चुनाव प्रचार में हुंकार भरी थी कि राज्य में वामपंथ के गढ़ को ध्वस्त करके रहेंगे। उन्हें माणिक-सरकार से कहीं ज्यादा नफरत थी ‘वामपंथ ‘ से। अतः मोदी-सेना ने जैविक  घृणा से लैस होकर त्रिपुरा पर धावा बोल दिया। कामयाबी भी मिली, लेकिन इसका श्रेय वैश्विक दक्षिण पंथी ताकतों को भी जाता है। हालाँकि, जन-फैसले का आदर किया जाना चाहिए, लेकिन, सच यह भी है कि अकूत संसाधनों से लैस संघ-परिवार ने त्रिपुरा चुनावों में अपनी पूरी शक्ति झांक दी थी। त्रिपुरा-विजय का सबब-सन्देश है निरंकुश पूँजीवाद का विस्तार, कट्टरवादी-अंधराष्ट्रवादी-युद्ध उन्मादी प्रवृतियों का फैलाव : फियर-सायकोसिस से प्रगतिशीलों-अल्पसंख्यकों की सामजिक व राजनैतिक घेराबंदी। भाजपा एक सामान्य व प्रोफेशनल राजनैतिक पार्टी नहीं है। यह पूरी तरह से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर आश्रित है। संघ का सुदूरगामी  एजेंडा  है भारत को ‘धार्मिक उर्फ हिन्दू राष्ट्र‘ बनाना। इसके लिए संविधान में संशोधन अनिवार्य है। यह तभी मुमकिन है जब संसद और विधान सभाओं में अनिवार्य सस्दस्य संख्या रहे। इसलिए त्रिपुरा-जीत या उत्तर-पूर्व विजय अभियान पर वैचारिक दूरबीन से नजर रखनी होगी।
    प्रधानमंत्री मोदी कहते हैं कि वास्तु शास्त्र की दृष्टि से  उत्तर-पूर्व दिशा अच्छी होती है। उन्होंने  इस चुनावी सफलता को तुरंत ही मध्ययुगीन मानसिकता के साथ नत्थी कर दिया। दूसरे शब्दों में इसे धार्मिक-सांस्कृतिक रंग दे डाला। एक ‘अखिल भारतीय हिन्दुत्त्व मानसिकता’ को चुनावी राजनीति के केंद्र में ले आए, यह खतरनाक संकेत है। संघ परिवार की कोशिश यही है कि पूरा देश ‘संघ मय‘ व ‘हिन्दू’ मय बन जाए। इस सन्दर्भ में संघ-सुप्रीमो मोहन भागवत के दम्भ भरे उवाच को याद रखना चाहिए। उन्होंने 25 फरवरी को मेरठ में आह्वान किया था कि  ‘सारा समाज संघ बने।’ वे कहते हैं कि हिन्दुओं को एकताबद्ध होना पड़ेगा। उनके ही काँधों पर भारत की जिम्मेदारी है। इन शब्दों का सीधा अर्थ यह है कि भाजपा राजनैतिक  सफलताओं तक ही सीमित नहीं रहेगी, न ही संतुष्ट होगी। यह तो उसका छद्म एजेंडा है। असली एजेंडा है देश के धर्मनिरपेक्षवादी चरित्र को ध्वस्त कर देना। उसके स्थान पर गुरु गोलवरकर जी के सपनों को साकार करना। उनके ‘बंच ऑफ थॉट्स‘ के मार्ग दर्शन में आगे बढ़ना। इसलिए उत्तर-पूर्व में संघ-परिवार के उभार को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए। इसके दूरगामी परिणामों पर नजर गड़ाए रखना होगा।
    मोदीजी कहते हैं कि मुसलमानों के एक हाथ में कुरान, दूसरे हाथ में कंप्यूटर होना चाहिए। इससे असहमति किसी की नहीं है। लेकिन वे यही बात तथाकथित लव जेहादियों, गौरक्षकों जैसों पर भी लागू करेंगे? उनके सौ खून माफ। यह कैसी आधुनिकता है, यह कैसा ‘सबका साथ-सबका विकास’ है! वास्तव में संघ परिवार उत्तर-पूर्व को अपनी नई सांस्कृतिक-धार्मिक प्रयोगशाला बनाने के उपक्रम में है जहाँ पिछली सदियों में पादरियों ने इस क्षेत्र का ईसाईकरण किया था, अब इस सदी में संघ जनजातियों का ‘हिन्दूकरण‘ करना चाहता है। जनजाति संस्कृति पर वर्चस्ववादी संस्कृति आरोपित करना चाहता है। मुख्य भारत के क्षेत्रों में इसने यही किया है। (लेखक की पुस्तक देखें-यादों का लाल गलियारा-दंतेवाड़ा) सारांश में, मोदी जी अल्पसंख्यकों का तो आधुनिकीकरण करना चाहते हैं, लेकिन अपने तथाकथित सांस्कृतिक सेना को मध्ययुगीनता के अस्तबल में ही बाँधे रखना चाहते हैं। कैसी है यह दोगली मानसिकता! क्या उत्तर-पूर्व की भी यही नियति रहेगी?
    जरूरत इस बात की है कि मोदी-शाह जुगलबंदी का राग कर्णाटक और अन्य प्रदेशों में सुनायी न दे, इसके लिए सभी सच्चे लोकतान्त्रिक राष्ट्रवादियों, धर्मनिरपेक्षवादियों, संविधानवादियों और नस्ल-जात विरोधियों को गोलबंद होने का समय है।          
 -रामशरण जोशी
मोबाइल : 09810525019
लोकसंघर्ष पत्रिका अप्रैल 2018 विशेषांक में प्रकाशित

बदली हुई स्थितियों में वाम आन्दोलन के नये पाठ के प्रयास के जरूरी सन्दर्भ


दुनिया भर में औद्योगिक क्रान्तियों ने सर्वहारा मजदूर वर्ग को जन्म दिया। इसके साथ ही मजदूर वर्ग की मुक्ति के विचारए विचारक तथा योद्धा पैदा हुए। मजदूर वर्ग के विस्तार तथा उसके शोषण ने उस बुनियादी संघर्ष को तेज किया जिसे ष्वर्ग संघर्षष् कहा जाता है। मार्क्स और ऐंगेल्स ने व्यवस्थित रूप से दर्शनए समाजए इतिहासए विज्ञान के अध्ययन और विश्लेषण द्वारा शोषण.उत्पीड़न के औजारों को चिह्नित किया। प्रत्येक तरह के शोषण से मुक्ति का विचार ष्क्रान्तिष् की अवधारणा पेश की। अपने अध्ययन क्रम में उन्होंने अपना प्रस्थान बिन्दू तय किया कि ष्ष्अब तक दार्शनिकों ने दुनिया को समझने का प्रयास किया है सवाल इसके बदलने का है। इसी क्रम में कम्युनिस्ट घोषणापत्र दुनिया भर के मजदूरों तथा उनके साथियों के लिए मार्गदर्शक सिद्धान्त बन गया। मार्क्स ने साफ किया कि चली आ रही व्यवस्था में शोषण.उत्पीड़न का अन्त देखना गलत होगा। हमें एक नई व्यवस्था का निर्माण करना होगा। शोषण.उत्पीड़न का आधार उत्पादन के साधनों की इजारेदारी को अर्थात निजी सम्पत्ति खत्म कर एक सहकार की व्यवस्था बनायी जाएए तभी शोषण का अन्त सम्भव है। इस अवधारणा तथा विचार दर्शन को क्रान्ति का दर्शन कहा जाता है।
    अपने अध्ययन विश्लेषण में मार्क्स.ऐंगेल्स ने साफ किया कि किसी भी समाज व्यवस्था का आधार उत्पादन के साधनए उस पर मालिकाना हकए उजरती श्रम और वितरण प्रणाली ही होती है। अब तक प्राचीन सामन्ती समाज से पूँजीवादी समाज में हुए रूपान्तरण में पुराने शोषण के रूप थोड़े परिवर्तन के साथ बने रहे बल्कि और निर्मम हो गये। इसलिए न्यायपूर्ण समाज निर्माण के लिए सम्पूर्ण व्यवस्था को ही बदलना होगा। इस सन्दर्भ में उन्होंने वर्गए वर्ग समाजए वर्ग संघर्ष तथा क्रान्ति की पूरी रूपरेखा प्रस्तुत किया। कम्युनिस्ट घोषणा पत्र से लेकर बहुत सारी महत्वपूर्ण कृतियाँ उनके क्रान्तिकारी कार्यक्रम का मसौदा हैं। लेकिन जहाँ दुनिया भर के मजदूर आन्दोलन से जुड़े लोगोंए पार्टियोंए संगठनों ने कम्युनिस्ट घोषणा.पत्र को अपना मार्गदर्शक सिद्धांत बनाकर कार्य किया वहीं घोषणा.पत्र की अन्तिम पंक्ति को हमेशा भुला दिया जाता रहा। वहीं पहली पंक्ति अब तक प्राप्त इतिहास वर्ग संघर्षों का हैए याद रहाए वहीं अन्तिम पंक्ति ष्ष्निःसन्देह भिन्न.भिन्न देशों में ये उपाय भिन्न.भिन्न होगेष्ष्।ए भुला दिया या भूलते रहेए जिन्होंने इसे याद रखा उन्होंने अपने देश में क्रान्तियाँ कीं और नये समाज की नींव रखी। जिन्होंने भुला दिया वे समाज परिवर्तन की लड़ाई में पिछड़ते गये।
    20वीं शताब्दी के महान सर्वहारा क्रान्तियों का अध्ययन किया जाये तो यह बात बहुत ही साफ है कि प्रत्येक देश में होने वाली क्रान्तियाँ अलग.अलग तरीके से सम्पन्न हुईं। रूसए चीनए वियतनामए क्यूबा के संघर्ष और क्रान्ति बिल्कुल अलग.अलग हैं। कोई किसी की कापी नहीं है। यहाँ यह भी साफ तौर पर देखा जा सकता है कि अपने.अपने देश.समाज के ठोस आर्थिक.सामाजिक.सांस्कृतिक स्थितियों के अनुसार रणनीति तथा कार्यक्रम बनाने तथा उस पर अमल करने से ही वहाँ क्रान्तियां सम्भव हुइंर् या हो सकीं।
    उपर्युक्त बातें कोई नई नहीं हैं लेकिन आज बहुत ही जरूरी हैं। क्योंकि दुनिया भर में तथा अपने देश में हम सर्वाधिक कठिन समय.दौर से गुजर रहे हैं। इस सचाई से मुँह मोड़ना बेहत आत्मघाती होगा कि आज हम इतिहास में सबसे कमजोर स्थिति में हैं या पहुँच गए हैं। वामपंथ की सभी तरह की धाराएँ आज धीमी व बचाव मुद्रा में हैं। लेकिन इसके उलट भारी संख्या में जनान्दोलन खासकर किसान.मजदूर.दलित.छात्र आन्दोलन के बाढ़ का भी यह समय है। अमरीका से लेकर भारत तक छात्र.नौजवान सड़कों पर हैं और संकट ग्रस्त पूँजीवाद के विरुद्ध लड़ रहे हैं। या इसे इस रूप में कहें कि वित्तीय पूँजी तथा कारपोरेट लूट से पैदा होने वाले संकटों के विरुद्ध संघर्षरत हैं। ऐसे में कमजोर आत्मगत शक्तियों और विस्फोटक वस्तुगत परिस्थितियों के बीच एक फॉक सी दिखलाई पड़ रही है। ऐसे में विस्फोटक वस्तुगत परिस्थितियों का विश्लेषण तथा आत्मगत शक्तियों की वैचारिक तैयारी का यह जरूरी समय है। इसे व्यापक स्तर पर वामपंथ की प्रत्येक धारा तक जमीनी स्तर के बहस में बदलना आज की आवश्यकता है। यह भी यहाँ साफ होना चाहिए कि कोई एक सूत्र.एक बिन्दु.एक रणनीति.कार्यक्रम नहीं है जो दुनियाभर के लिए बन जाय और हम उस रास्ते क्रान्ति तक पहुँच जाएँ। बल्कि प्रत्येक देश.क्षेत्र आदि के लिए वस्तुगत परिस्थितियों के अनुसार सृजनात्मक संघर्षों और नये सिरे से पार्टी बिल्डिंग का लाभ हाथ में लेकर ही हम महान सर्वहारा की सेवा कर सकते हैं जो हमारा ऐतिहासिक कार्यभार है। जरूरी नहीं और कत्तई जरूरी नहीं कि हमारा रास्ता रूसए चीनए क्यूबा का रास्ता होगा या है। हमें अपने लिए नये औजारों की तलाश करनी होगी और उसे सृजनात्मक तरीके से लागू करना होगा। कई सारी पुरानी अवस्थितियों का निर्मम मूल्यांकन करना होगा। आत्मावलोकन के पीड़ादायी दौर से गुजरना होगा।ष्ष् निचली कतारों तक मार्क्सवाद और क्रान्ति के दर्शन को पहुँचाना होगा। ऊपर से नीचे नहीं बल्कि नीचे से ऊपर की तरफ अनुभव संगत ज्ञान का अलग.अलग क्षेत्रों के अनुसार सूत्रीकरण करना होगा जिससे नये नेतृत्व का विकास.अवकाश सम्भ्व हो सकेगा।
    सबसे पहले वस्तुगत परिस्थितियों का विश्लेषण जरूरी है। अपने पुराने सूत्रीकरण पर विचार करने की जरूरत है। जरूरत तो विचारधारा स्तर पर स्टालिन.माओ के वैचारिकी को भी समझने की हैए खासकर खुश्चेव.माओं त्सेतुंग के बीच की बहस को। लेकिन वह ऐसा क्षेत्र है जहाँ भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन के बहुत सारे विभाजक.विवाद मौजूद हैं जबकि आज जरूरत एकता तथा संयुक्त मोर्चा बनाने की है। ऐसे में इन वैचारिक अवस्थितियों को थोड़ा विराम देकर बात की जानी चाहिए। मेरा आशय.विश्लेषण भारतीय समाज के ष्अर्द्धसामन्ती.अर्द्धऔपनिवेशिकष् स्वरूप के सूत्रीकरण से है। क्या भारतीय समाज में विगत 70 वर्षों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। यदि सन् 1990 के बाद उदारीकरण.बाजारीकरण ने पूँजी के पुराने वित्तीय लूट से अलग कारपोरेट विशाल बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के माध्यम से आरम्भ हुआ है। पूँजी का प्रभाव मात्र स्वदेशी.विदेशी के शास्त्रीय रूप में नहीं बल्कि विचलन और आवारा पूँजी के रूप में बदल जाने से हैं। उपनिवेशवाद अपना रूप.चेहरा खो चुका है और उसकी जगह पर भयावह शोषण का नंगा रूप आज नमूदार है। लूट के वितरण में नये पुराने सारे नियम और कम्पनियों का एक विशाल सहकार बना है और यह बहुत ही अमूर्त होने के बावजूद अलग.अलग क्षेत्रों में श्रम की लूट को ऐड्रेस करते समय इसे ध्यान में रखकर प्रभावशाली परिणाम निष्कर्ष हम प्राप्त कर सकते हैं।
    इसी प्रकार ग्रामीण तथा खेतिहार क्षेत्र की समस्याएँ हैं जो अधिकतर पूँजी के भयानक रूपोंए कारपोरेट लूट से जुड़ी हैं। बैंकए बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँए अर्थात पूरी तरह वित्तीय और कारपोरेट लूट का हमला पुराने सामन्ती स्वरूप से भिन्न है। क्योंकि यह पूर्व स्थितियों में एक वर्गीय संरचना मौजूद थी लेकिन वर्ग शत्रु अभूत हैं और ज्यादातर शोषित हैं। जिन्हें हमें अपने पहले की भाषा में भूस्वामी और सामन्त कहते रहे हैं ज्यादातर आत्महत्या करने वालों की जमात इसी में से आती है। एक अजीब सा पसमन्जर जिसे सूत्रीकरण करना अपने पुराने रूपों में अब सम्भव नहीं है इसलिए हमें जनता को ऐड्रेस करने के लिए नये सूत्रोंए नारां की आवश्यकता होगी।
    मेरा इस सन्दर्भ में निवेदन है कि वस्तुगत यथार्थ का विस्तृत निवेदन-विश्लेषण की जरूरत है। खासकर अपने पुराने सूत्रीकरण को नये सिरे से मार्क्सवाद की रौशनी में जांचने परखने की आवश्यकता है। खासकर वर्तमान पूँजीवाद की स्थितियों को जो सामन्ती-मूल्यों से गठजोड़ कर फासिज्म का रूप अख्तियार किये हैं। इतिहास के तमाम विकास क्रम को आज उसने उल्टी गति में डाल दिया है या डालने के प्रयास में संलग्न है। नये नवजागरण और नये प्रवोधन की जरूरत आज खड़ी हो गई है।
    आत्मगत शक्तियों की तैयारी की सबसे बड़ी समस्या नई पीढ़ी को मार्क्सवाद-लेनिन वाद से परिचित कराना है। आज एक तरफ युवा पीढ़ी अराजकता का शिकार है तो दूसरी तरफ रोज-रोज के संघर्षों ने शोषण-उत्पीड़न से मुक्ति की वैचारिकों के प्रति आकर्षण भी पैदा किया है। धीरे.धीरे थोड़े से ही सही लेकिन युवा नेतृत्व पैदा हुआ है। उसमें चमक है और आकर्षण भी है जिसके द्वारा हम युवा पीढ़ी को अपनी विरासत अपनी कुर्बानियों संघर्षों के इतिहास से परिचित करा सकते हैं।
    मीडिया के वैकल्पिक रूपों का विकास आज हमारी सर्वाधिक जरूरत है जिसमें नियमित रूप से वैचारिक तथा सृजनात्मक लेखन द्वारा हम आम जनता को तथा पार्टी कतारों को शिक्षित प्रशिक्षित कर सकते हैं।
    यह आत्मावलोकन.आत्मालोचन का भी समय है। इस दिशा में ईमानदार कोशिश हमें नया जीवन प्रदान करेगी। प्रेमचन्द्र के ष्रंग भूमि में सूरदास मि0 जॉन से हारने के बाद कहता है। जानते हो हम क्यों हारें हमें ठीक से खेलना नहीं आता। सबसे बड़ी बात कि हममें एका नहीं है। हम सीखेंगे और एका करेंगे। फिर एक दिन तुम्हें हरा देंगे।यह विश्वास कि षएका करेंगे और सीखेंगे। आज का हमारा केन्द्रीय नारा होना है।
 
- राजेश मल्ल
मो. 9919218089
लोकसंघर्ष पत्रिका अप्रैल 2018 विशेषांक में प्रकाशित

यह सपना अधूरा है अब तक पूँजीवादी व्यवस्था का खात्मा चाहते थे कार्ल मार्क्स

यह सपना अधूरा है अब तक पूँजीवादी व्यवस्था का खात्मा चाहते थे कार्ल मार्क्स

कार्ल मार्क्स का नाम आते ही एक ऐसे व्यक्तित्व की छवि उभरती है, जिसने पूरी दुनिया को वैज्ञानिक समाजवाद का दर्शन दिया। 5 मई सन 1818 को कार्ल मार्क्स का जन्म जर्मनी के एक यहूदी परिवार में हुआ था। इनके परिवार ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था लेकिन जब कार्ल मार्क्स बड़े हुए तब उन्होंने ईसाई धर्म को त्याग कर नास्तिकता की राह अपनाई और पूरे जीवन भर अपने अर्थशास्त्रीय ज्ञान के आधार पर समाजवाद की स्थापना में लगे रहे। उनका आर्थिक-राजनैतिक चिंतन आज भी महत्वपूर्ण है और दुनिया भर के मजदूरों को एकजुट करने का उनका सपना पूरी मानवता के लिए महत्व रखता है। मार्क्स के जीवन को हम देखें, तो आश्चर्य होता है कि पूरी दुनिया में पूँजीवाद के खिलाफ संघर्ष करने वाले ऐसे दार्शनिक को घनघोर आर्थिक मुसीबतों का सामना करना पड़ा। 14 मार्च 1883 को लंदन में कार्ल मार्क्स का निधन हुआ।
    कार्ल मार्क्स ने ‘दास कैपिटल’ जैसी कालजयी कृति की रचना की। कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणा पत्र भी कार्ल मार्क्स ने तैयार किया था। इस घोषणा पत्र को साम्यवादी घोषणा पत्र के रूप में याद किया जाता है, जिसमें पूँजीवादी विसंगतियों के बारे में बताते हुए सर्वहारा लोगों की सत्ता कैसे स्थापित हो, इस पर गंभीर विमर्श किया गया है। कार्ल मार्क्स ने यह घोषणा पत्र फ्रेडरिक एंगेल्स के साथ तैयार किया था। 1848 में पहली बार यह घोषणा पत्र जर्मन भाषा में ही तैयार हुआ। बाद में तो दुनिया के अनेक देशों की भाषाओं में इसका अनुवाद भी हुआ। मार्क्स का चिंतन आज भी पूरी दुनिया में संघर्षशील बिरादरी को लगातार हौसला प्रदान करता है। समतावादी समाज की रचना की दिशा में मार्क्स का घोषणा पत्र काबिलेगौर है। दुर्भाग्य है कि ऐसे समय में जबकि साम्यवाद पूरी दुनिया का आधार बन सकता था, तब उसकी जगह पूँजीवादी व्यवस्था ने ले ली है। यही कारण है कि पूँजीवादी व्यवस्था ने संघर्षशील मनुष्य के दमन की परिपाटी शुरू कर दी है तथा वर्ग संघर्ष की स्थिति निरंतर बनी हुई है। गरीब और गरीब होता जा रहा है, पूँजीपति और अधिकतम सम्पन्न बनता जा रहा है। विषमता की खाई बढ़ रही है और समाज में विद्वेष भी फैलता जा रहा है। जिसके कारण हिंसा भी बढ़ी है। ऐसी विषम स्थिति के बीच जब हम कार्ल मार्क्स के चिंतन को देखते हैं तो समझ में आता है कि दुनिया को इसी रास्ते से आगे बढ़ना था, लेकिन हर महान सपना बहुत जल्दी तार-तार हो जाता है। वैज्ञानिक समाजवाद भी
धीरे-धीरे हाशिए पर चला गया।
    मार्क्स ने अपने घोषणा पत्र में यही चिंता व्यक्त की थी कि पूरी दुनिया में एक तरफ पूँजीवाद बढ़ रहा है, तो दूसरी तरफ सर्वहारा की समस्या भी बढ़ती जा रही है। दोनों के बीच संघर्ष की स्थिति है। एक मालिक है और दूसरा श्रमिक है। श्रमिक जीवन भर श्रमिक ही बना रहता है। वह अपनी तरक्की नहीं कर पाता।  और दूसरी तरफ मालिक दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करता है। यही कारण है कि दोनों के बीच निरंतर संघर्ष की स्थिति बनी रहती है। कोई भी सत्ता जब बड़े पूँजीवादियों के हाथों में चली जाती है तो समाज के छोटे-छोटे लोग प्रभावित होते हैं। ये छोटे दुकानदार भी हो सकते हैं। कास्तकार हो सकते हैं। किसान हो सकते हैं, मजदूर हो सकते हैं। ये सब अंततः शोषित पीड़ित वर्ग में शरीक हो जाते हैं। मार्क्स मजदूर संगठनों पर विशेष जोर देते हैं और उनकी एकता के लिए प्रतिबद्ध दिखाई देते हैं। इस घोषणा पत्र के बाद सर्वहारा वर्ग में वैश्विक स्तर पर एक चेतना आई और लोग अपने अधिकारों के लिए उठ खड़े हुए। यही कारण है कि 1871 मैं पेरिस में संघर्ष हुआ। 70 दिनों तक मजदूरों ने सत्ता पर अपना एकाधिकार जमाए रखा। तब मार्क्स ने एक लेख लिखा था जिसमें उन्होंने कहा था कि सत्ता पर काबिज होकर ही हम अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सकते। सत्ता में सुधार कैसे लाया जाए, इस दिशा में चिंतन करना चाहिए। मार्क्स के दर्शन से प्रभावित होकर रूस में 1917 में मजदूर आंदोलन ने क्रांति का रुप ले लिया और उसका साम्यवादी चेहरा उभर कर पूरी दुनिया के सामने आया, लेकिन कहीं-न-कहीं आंतरिक विफलताओं और सामंजस्य के अभाव के कारण साम्यवादी  स्वप्न तार-तार हो गया। ऐसा किसलिए हुआ, इस पर आज भी मिल-जुलकर के विचार करने की जरूरत है। समाज में पूँजीवादी व्यवस्था खत्म हो, यही मार्क्स के घोषणापत्र का पवित्र लक्ष्य था। लेकिन हम देख रहे हैं इस दिशा में बहुत संतोषजनक प्रगति नहीं हो रही है और अब तो पूरी दुनिया जैसे पूँजीवादी बाजार के खूनी पंजे में ही कैद होकर रह गई है। ऐसे समय में एक बार फिर नए सिरे से मार्क्स को पढ़ने, समझने और समझाने की जरूरत है।                
 -गिरीश पंकज
मोबाइल : 09425212720
लोकसंघर्ष पत्रिका अप्रैल 2018 विशेषांक में प्रकाशित

फ्रेड्रिक एंजिल्स

“अपने दोस्त कार्ल मार्क्स के बाद फ्रेड्रिक एंजिल्स पूरी सभ्य दुनिया में आधुनिक सर्वहारा में सबसे बड़े विद्वान और अध्यापक थे”। ऐसा कहना था आधुनिक युग के एक अन्य महापुरूष और महान क्रान्तिकारी व्लादिमीर लेनिन का। मार्क्स और एंजिल्स ने ही सबसे पहले समाजवाद की व्याख्या की और बताया कि यह कोई सपना नहीं बल्कि आधुनिक समाज में उत्पादक शक्तियों के विकास का अंतिम लक्ष्य और आवश्यक परिणाम है। ऐसे महान क्रान्तिकारी और समाजवादी दार्शनिक फ्रेड्रिक एंजिल्स का जन्म 28 नवम्बर 1820 में जर्मनी के रहाइन प्रान्त में बारेन नामक स्थान पर एक टेक्सटाइल फैक्ट्री के मालिक के घर में हुआ। एंजिल्स का परिवार ईसाई धर्म के प्रोटेस्टेंट पंथ को मानने वाला था। ऐसे में अपने क्रान्तिकारी विचारों के चलते उनके रिश्ते घर से बहुत अच्छे नहीं थे। उनके पिता चाहते थे कि वे अपने पैतृक कारोबार को आगे बढ़ाएँ, इसीलिए उन्हें 18 साल की आयु में व्यापरिक अनुभव प्राप्त करने के लिए ब्रेमेन भेज दिया। ब्रेमेन में 30 साल के प्रवास के दौरान उदारवादी और क्रान्तिकारी कामों में उनकी रुचि बढ़ती गई। कई छोटे वामपंथी विचारकों ने उन्हें आकर्षित किया लेकिन वह संतुष्ट नहीं हुए और हेजेल के दर्शन को अपना लिया। ईसाइयत के खिलाफ आक्रमक रुख ने एंजिल्स को अज्ञेयवादी से नास्तिक बना दिया लेकिन उनके क्रान्तिकारी संकल्प अभी किसी भी दिशा में जा सकते थे। 1842 में वह मोसेस हेस से मिले जिन्होंने उन्हें कम्युनिस्ट बना दिया। उन्होंने एंजिल्स को बताया कि हेलेजियन दर्शन का तार्किक नतीजा साम्यवाद है। एंजिल्स को कविता लिखने का शौक था और अब तक पत्रकारिता के मैदान में भी उन्होंने अपनी पहचान बना ली थी, हालाँकि उनके लेख फ्रेड्रिक ओसवाल्ड के छद्म नाम से कई जर्नलों और अखबारों में छपते थे। उनका मार्क्स से परिचय भी उनके लेखों के माध्यम से ही हुआ। मार्क्स से मुलाकात करने के मकसद से वे दस दिन के लिए पेरिस गए। उसके बाद दोनों क्रांतिकारी यात्रा में 1983 में मार्क्स की मृत्यु तक साथ रहे। अपने इंग्लैंड में प्रवास के दौरान वहाँ की चमक दमक वाली औद्योगिक क्रांति के पीछे अंधकार में डूबी मजदूरों की दुर्दशा पर ‘द कंडीशन आफ वर्किंग क्लास इन इंगलैंड’ नाम से शोध कार्य प्रकाशित किया। एंजिल्स ने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। मार्क्स के साथ मिलकर कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो और द होली फैमिली लिखा तो वहीं दास कैपिटल के दूसरे और तीसरे भाग का संपादन भी किया। उन्होंने द ओरिजिन आफ द फैमिली, प्राइवेट प्रापर्टी एंड द स्टेट, आउटकम आफ क्लासिकल जर्मन फिलासफी जैसी मशहूर किताबें लिखीं।     
       
 -मसीहुद्दीन संजरी
मो0 09455571488
लोकसंघर्ष पत्रिका अप्रैल 2018 विशेषांक में प्रकाशित

सामाजिक क्रांति के जनक व्लादिमीर लेनिन


    20वीं सदी के अग्रणी रूसी राजनेता विश्व इतिहास में बहुत महत्वपूर्ण और प्रभावशाली व्यक्ति थे। बोल्शेविक राजनैतिक दल के संस्थापक के रूप में वे एक सफल रूसी कम्युनिस्ट क्रांतिकारी, राजनीतिज्ञ और राजनैतिक सिद्धांतकार थे। व्लादिमीर लेनिन 1917 से 1924 तक सोवियत रूस की सरकार के प्रमुख थे। उनके प्रशासन के अंतर्गत, रूस और उसके बाद व्यापक सोवियत संघ रूसी कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा नियंत्रित एक-पक्ष कम्युनिस्ट राज्य बन गया। 1893 से लेनिन ने रूस के साम्यवादी विचारधारा का प्रचार करना प्रारंभ किया था। लेनिन को कई बार जेल भेजा गया था तथा निर्वासित भी किया गया। ‘प्रलिटरि’ एवं ‘इस्क्रा’ के संपादन के अतिरिक्त 1898 में उन्होंने बोल्शेविक पार्टी की स्थापना की। 1905 की क्रांति के उसके प्रयास असफल रहे किन्तु 1917 में उन्होंने रूस के पुननिर्माण की योजना बनाई और सफल हुए। उन्होंने केरेन्सकी की सरकार पलट दी और 7 नवम्बर, 1917 को लेनिन की अध्यक्षता में सोवियत सरकार की स्थापना हुई। रूस का भाग्यविधाता बनने के बाद लेनिन ने अपने देश को विकसित करने का प्रयत्न किया था। कड़े अनुशासन के साथ देश पर नियंत्रण रखा।
लेनिन रूस के इतिहास में ही नहीं विश्व इतिहास के कर्णधारों में एक अग्रणी नाम है। उन्होंने रूस की काया पलट कर के सारे विश्व को ही आश्चर्य चकित कर दिया। उन्हीं के प्रयत्नों से रूस में समाजवाद की स्थापना हुई थी। मार्क्स के स्वप्न को साकार करने का श्रेय भी लेनिन को ही जाता है। 21 जनवरी, 1924 को इस क्रांतिकारी व्यवस्थापक का स्वर्गवास हो गया लेकिन सोवियत की जनता उनको आज भी अपने साथ मानती है, उनको सँजोकर रखा है उनको अंतिम संस्कार के बजाए पिरामिड की तरह सुरक्षित रखा है। आज भी लेनिन पूरे विश्व में सभी के दिलो में बसे हुए है, उनके सिद्धांतों व आदर्शां को मानते हैं और उनके रास्ते पर चल रहे हैं। लेनिन के सिद्धांतों व आदर्शों के प्रशंसकों की सम्पूर्ण विश्व में कमी नहीं है, अभी भी व्लादिमीर लेनिन सामाजिक क्रांति के प्रेरक है।
    मॉस्को के रेड स्क्वायर में रखा व्लादिमीर लेनिन का पार्थिव शरीर आज भी विश्वभर के पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है।
     व्लादिमीर इल्यीच उल्यानोव (लेनिन) का जन्म 10 अप्रैल, 1870 में उल्यानोव्स्क नगर में हुआ था, यह नगर बोल्वा नदी के तट पर स्थित है। लेनिन 6 भाई बहन थे, इनके पिता का नाम इल्या निकोलायेविन और माता मरीया अलेक्सान्द्रोवना था। लेनिन बचपन से ही बहुत ही होनहार, मजाकिया, खुशमिजाज और साहसी थे। उन्हें तैराकी, स्केटिंग और जोशीले गेम बहुत प्रिय थे इसके अलावा दोस्तों के साथ दूर-दूर तक घूमना फिरना बहुत अच्छा लगता था। पढ़ाई के साथ ही रूस के प्रमुख स्थानों का भ्रमण कर चुके थे। लेनिन ने पाँच वर्ष की उम्र में पढ़ना-लिखना सीख लिया था, नौ साल की उम्र में हाई स्कूल में एडमीशन ले लिया था और 21 साल की अवस्था में कानून की डिग्री प्राप्त कर ली थी। वह बड़ी मेहनत और लगन से पढ़ाई करते थे इस कारण उन्हें हर साल योग्य छात्र होने का अवार्ड भी मिलता था वे अपने सहपाठियो की पढ़ाई लिखाई में हमेशा हेल्प करते थे। उन्हें बचपन से बहुत ज्ञान पिपासा थी, रूस के सभी महान लेखकों की किताबें और रचनाओं को लगातार अध्ययन करते रहते थे। प्रगतिशील रूसी साहित्य के अध्ययन और आस-पास के वातावरण का युवा लेनिन के चरित्र और विचारों के निर्माण पर बहुत प्रभाव पड़ा लेनिन का मन वकालत में नहीं लगता था, बहुत कम समय समारा की जिला कचहरी में देते थे, वे मुख्यतयः गरीब किसानो की ओर से ही अदालत में पेश होते थे उनका सारा समय और बल तो मार्क्सवाद के अध्ययन में लगा रहता और सर्वहारा मेहनतकश वर्ग की भलाई में रहता। लेनिन ने 1892 में मार्क्स और एंगेल की कृतियों के अध्ययन और प्रचार के लिए समारा में प्रथम मार्क्सवादी मंडल संगठित किया और क्रातिकारी विचार रखने वाले युवाओं को मंडल का सदस्य बनाया। 23 साल की उम्र में लेनिन में सरलता, सहृदयता, खुशमिजाजी और विनोद प्रियता तथा स्थिरता, अच्छा ज्ञान, कठोर तार्किक कर्मठता और स्पष्ट विचार अभिव्यक्ति की क्षमता का अद्भुत मिलाप था, लोग उनके भाषण सुनकर फॉलो करने लगते और उनके साथ जुड़कर क्रांति के लिए समर्पित हो जाते।
-डॉ. बाल गोविन्द वर्मा
मोबाइल : 7860778767
लोकसंघर्ष पत्रिका अप्रैल 2018 विशेषांक में प्रकाशित

जेनी मार्क्स

   
    उन्होंने पैसों की समस्या से निपटने के लिए एक गृह उद्योग शुरू किया। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि इस गृह उद्योग के लिए वे कबाड़ियों की दुकानों से पुराने कोट खरीदकर लातीं और उन्हें काटकर बच्चों के लिए छोटे-छोटे कपड़े बनातीं। इन कपड़ों को वे एक टोकरी में रखकर मोहल्ले में घूम घूमकर बेच आतीं। आज शायद यह बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि मार्क्स की पत्नी की इसी कर्मठता के कारण ही उन्हें ‘दास कैपिटल‘ जैसा ग्रंथ पढ़ने को मिला।
जेनी मार्क्स की कहानी
    महान दार्शनिक और राजनैतिक अर्थशास्त्र के प्रणेता कार्ल मार्क्स को जीवनपर्यंत घोर अभाव में जीना पड़ा। परिवार में सदैव आर्थिक संकट रहता था और चिकित्सा के अभाव में उनकी कई संतानें काल-कवलित हो गईं। जेनी वास्तविक अर्थों में कार्ल मार्क्स की जीवनसंगिनी थीं और उन्होंने अपने पति के आदर्शों और युगांतरकारी प्रयासों की सफलता के लिए स्वेच्छा से गरीबी और दरिद्रता में जीना पसंद किया।
    जर्मनी से निर्वासित हो जाने के बाद मार्क्स लन्दन में आ बसे। लन्दन के जीवन का वर्णन जेनी ने इस प्रकार किया है “मैंने फ्रेंकफर्ट जाकर चांदी के बर्तन गिरवी रख दिए और कोलोन में फर्नीचर बेच दिया। लन्दन के महँगे जीवन में हमारी सारी जमापूँजी जल्द ही समाप्त हो गई। सबसे छोटा बच्चा जन्म से ही बहुत बीमार था। मैं स्वयं एक दिन छाती और पीठ के दर्द से पीड़ित होकर बैठी थी कि मकान मालकिन किराये के बकाया पाँच पौंड माँगने आ गई। उस समय हमारे पास उसे देने के लिए कुछ भी नहीं था। वह अपने साथ दो सिपाहियों को लेकर आई थी। उन्होंने हमारी चारपाई, कपड़े, बिछौने, दो छोटे बच्चों के पालने, और दोनों लड़कियों के खिलौने तक कुर्क कर लिए। सर्दी से ठिठुर रहे बच्चों को लेकर मैं कठोर फर्श पर पड़ी हुई थी। दूसरे दिन हमें घर से निकाल दिया गया। उस समय पानी बरस रहा था और बेहद ठण्ड थी। पूरे वातावरण में मनहूसियत छाई हुई थी।” और ऐसे में ही दवावाले, राशनवाले, और दूधवाला अपना-अपना बिल लेकर उनके सामने खड़े हो गए। मार्क्स परिवार ने बिस्तर आदि बेचकर उनके बिल चुकाए।
    ऐसे कष्टों और मुसीबतों से भी जेनी की हिम्मत नहीं टूटी। वे बराबर अपने पति को ढाढ़स बंधाती थीं कि वे
धीरज न खोयें।
    कार्ल मार्क्स के प्रयासों की सफलता में जेनी का अकथनीय योगदान था। वे अपने पति से हमेशा यह कहा करती थीं “दुनिया में सिर्फ हम लोग ही कष्ट नहीं झेल रहे हैं।”जेनी मार्क्स
    मित्रों, जेनी ने बहुत मेहनत की, दरिद्र जैसी जिन्दगी जी, फिर भी कार्ल मार्क्स का कंधे से कंधा मिलाकर साथ दिया। जेनी की पारिवारिक पृष्ठभूमि बहुत ही शानदार थी। जेनी प्रशिया के अभिजात वर्ग के एक प्रमुख परिवार ैंस्रूमकमस में पैदा हुई थीं।
    इतिहास खुद को दोहराता है , पहले एक त्रासदी की तरह, दूसरे एक मजाक की तरह कोई भी जो इतिहास की कुछ जानकारी रखता है वह ये जानता है कि महान सामाजिक  बदलाव बिना महिलाओं के उत्थान के असंभव हैं । सामाजिक प्रगति महिलाओं की सामजिक स्थिति, जिसमें बुरी दिखने वाली महिलाएँ भी शामिल हैं, को देखकर मापी जा सकती है।
लोकतंत्र समाजवाद का रास्ता है।
    पूँजी मृत श्रम है, जो पिशाच की तरह केवल जीवित श्रमिकों का खून चूस कर जिंदा रहता है, और जितना अधिक ये जिंदा रहता है उतना ही
अधिक श्रमिकों को चूसता है।
    कार्ल मार्क्स के अनमोल विचार ‘दुनिया के मजदूरों एकजुट हो जाओ’ या तुम्हारे पास खोने को कुछ भी नहीं है, सिवाय अपनी जंजीरों के।
    हर किसी से उसकी क्षमता के अनुसार , हर किसी को उसकी जरूरत के अनुसार।
    धर्म मानव मस्तिष्क जो न समझ सके उससे निपटने की नपुंसकता है। शासक वर्ग को कम्युनिस्ट क्रांति के डर से कांपने दो। मजदूरों के पास अपनी जंजीरों के अलावा और कुछ भी खोने को नहीं है। उनके पास जीतने को एक दुनिया है। सभी देश के कामगारों एकजुट हो जाओ।
    सामाजिक प्रगति समाज में महिलाओं को मिले स्थान से मापी जा सकती है। साम्यवाद के सिद्धांत को एक वाक्य में अभिव्यक्त किया जा सकता है सभी निजी संपत्ति को खत्म किया जाये। नौकरशाह के लिए दुनिया महज एक हेर-फेर करने की वस्तु है। इतिहास कुछ भी नहीं करता। उसके पास आपार धन नहीं होता, वह लड़ाइयाँ नहीं लड़ता। वे तो मनुष्य हैं, वास्तविक, जीवित, जो ये सब करते हैं। शांति का अर्थ साम्यवाद के विरोध का नहीं होना है। अगर कोई चीज निश्चित है तो यह कि मैं खुद एक मार्क्सवादी नहीं हूँ। जरूरत तब तक अंधी होती है जब तक उसे होश न आ जाये । आजादी जरूरत की चेतना होती है। मानसिक पीड़ा का एकमात्र मारक शारीरिक पीड़ा है।
    इसलिए पूँजीवादी उत्पादन टेक्नॉलोजी विकसित करता है, और तरह-तरह की प्रक्रियाओं को सम्पूर्ण समाज में मिला देता है पर ऐसा वह सिर्फ संपत्ति के मूल स्रोतों मिटटी और मजदूर को सोख कर करता है।
    पूँजीवादी समाज में पूँजी स्वतंत्र और व्यक्तिगत है, जबकि जीवित व्यक्ति आश्रित है और उसकी कोई वैयक्तिकता नहीं है। बहुत सारी उपयोगी चीजों के उत्पादन का परिणाम बहुत सारे बेकार लोग होते हैं। अमीर गरीब के लिए कुछ भी कर सकते हैं लेकिन उनके ऊपर से हट नहीं सकते।
    अनुभव सबसे खुशहाल लोगों की प्रशंसा करता है, वे जिन्होंने सबसे अधिक लोगों को खुश किया। लोगों की खुशी के लिए पहली आवश्यकता धर्म का अंत है। बिना किसी शक के मशीनों ने समृद्ध आलसियों की संख्या बहुत अधिक बढ़ा दी है। यह बिल्कुल असंभव है कि प्रकृति के नियमों से ऊपर उठा जाए। जो ऐतिहासिक परिस्थितियों में बदल सकता है महज वह रूप है जिसमें ये नियम खुद को क्रियान्वित करते हैं। पूँजी मजदूर की सेहत या उसके जीवन की लम्बाई के प्रति लापरवाह है ,जब तक कि उसके ऊपर समाज का दबाव ना हो। धर्म दीन प्राणियों का विलाप है, बेरहम दुनिया का हृदय है और निष्प्राण परिस्थितियों का प्राण है। यह लोगों का अफीम है।
    समाज व्यक्तियों से नहीं बना होता है बल्कि खुद को अंतर संबंधों के योग के रूप में दर्शाता है, वह सम्बन्ध जिनके बीच में व्यक्ति खड़ा होता है। हमें यह नहीं कहना चाहिए कि एक आदमी के एक घंटे की कीमत दूसरे आदमी के एक घंटे के बराबर है, बल्कि यह कहें कि एक घंटे के दौरान एक आदमी उतना ही मूल्यवान है जितना कि एक घंटे के दौरान कोई और आदमी। समय सबकुछ है, इंसान कुछ भी नहीं वह अधिक से अधिक समय का शव है। पिछले सभी समाजों का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास रहा है। कारण हमेशा से अस्तित्व में रहे हैं , लेकिन हमेशा उचित रूप में नहीं।
    जमींदार, और सभी लोगों की तरह, वहाँ से काटना पसंद करते हैं जहाँ उन्होंने कभी बोया नहीं। बिना उपयोग की वस्तु हुए किसी चीज की कीमत नहीं हो सकती। क्रांतियाँ इतिहास के इंजिन हैं । जीने और लिखने के लिए लेखक को पैसा कमाना चाहिए , लेकिन किसी भी सूरत में उसे पैसा कमाने के लिए जीना और लिखना नहीं चाहिए। एक भूत यूरोप को सता रहा है-साम्यवाद का भूत। शायद यह कहा जा सकता है कि मशीनें विशिष्ट श्रम के विद्रोह को दबाने के लिए पूँजीपतियों द्वारा लगाए गए हथियार हैं।
    शासक वर्ग के विचार हर युग में सत्तारूढ़ विचार होते हैं, यानी जो वर्ग समाज की भौतिक वस्तुओं पर शासन करता है, उसी समय में वह उसके बौद्धिक बल पर भी शासन करता है।
    मानसिक श्रम का उत्पाद विज्ञान हमेशा अपने मूल्य से कम आँका जाता है, क्योंकि इसे पुनः उत्पादित करने में लगने वाले श्रम-समय का इसके मूल उत्पादन में लगने वाले श्रम-समय से कोई सम्बन्ध नहीं होता। चिकित्सा संदेह तथा बीमारी को भी ठीक करती है।
    सभ्यता और आमतौर पर उद्योगों के विकास ने हमेशा से खुद को वनों के विनाश में इतना सक्रिय रखा है कि उसकी तुलना में हर एक चीज जो उनके संरक्षण और उत्पत्ति के लिए की गयी है वह नगण्य है ।
    लेखक इतिहास के किसी आन्दोलन को शायद बहुत अच्छी तरह से बता सकता है, लेकिन निश्चित रूप से वह इसे बना नहीं सकता। जबकि कंजूस मात्र एक पागल पूँजीपति है, पूँजीपति एक तर्कसंगत कंजूस है। लोगों के विचार उनकी भौतिक स्थिति के सबसे प्रत्यक्ष उद्भव हैं। जितना अधिक श्रम का विभाजन और मशीनरी का उपयोग बढ़ता है, उतना ही श्रमिकों के बीच
प्रतिस्पर्धा बढती है, और उतना ही उनका वेतन कम होता जाता है।

  साम्यवाद के जन्मदाता कार्ल मार्क्स अपना अमर ग्रंथ ‘दास कैपिटल‘ लिखने में तल्लीन थे। इस कार्य के लिए उन्हें पूरा समय पुस्तकालयों से नोट वगैरह लेने में लगाना पड़ता था। ऐसे में परिवार का निर्वाह उनके लिए एक बड़ी परेशानी बन गया। उन्हें बच्चे भी पालने थे और अध्ययन सामग्री भी जुटानी थी। दोनों ही कार्यों के लिए उन्हें पैसा चाहिए था। इन विकट स्थितियों में मार्क्स की पत्नी आगे आईं।
लोकसंघर्ष पत्रिका अप्रैल 2018 विशेषांक में प्रकाशित

समाजवादी समाज के निर्माण के लिए समर्पित भाकपा

भारत की भूमि पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना सम्मेलन उत्तर प्रदेश के कानपुर में 90 साल पहले 26-28 दिसम्बर, 1925 को सम्पन्न हुआ था। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के केन्द्रीय सचिव मंडल सदस्य रहे तथा वर्षों तक गहन अनुसंधान के बाद कई खंडों में प्रकाशित पार्टी इतिहास का सम्पादन करने वाले डॉ. गंगाधर अधिकारी ने ‘डाक्युमेंट्स ऑफ दि हिस्ट्री ऑफ दि कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया’ के द्वितीय खंड (1923-1925) में लिखा है कि सबसे पहले कानपुर बोल्शेविक षड्यंत्र केस में गिरफ्तार कम्युनिस्ट गुटों के नेताओं ने, विशेषकर कॉ. एस.ए. डांगे को ऐसा सम्मेलन कराने का विचार आया था। कम्युनिस्ट रहे एस. सत्यभक्त ने इंडियन कम्युनिस्ट पार्टी के सचिव के नाम पर जारी एक परिपत्र द्वारा देश के विभिन्न शहरों में कार्यरत कम्युनिस्ट गुटों के सदस्यों तथा उन सभी को जिनको पार्टी के कार्यों पर विश्वास था, आग्रह किया था कि वे सभी कानपुर में 26 से 28 दिसम्बर, 1925 को आयोजित इस सम्मेलन में भाग लें। 20 सितम्बर, 1925 को हुई बैठक में इस सम्मेलन के लिए स्वागत समिति का गठन किया गया। उसके अध्यक्ष बने मौलाना हसरत मोहानी और सचिव गणेश शंकर विद्यार्थी। ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य के रूप में वहाँ के पार्लियामेंट में चुने गए एक भारतीय कॉ. शापुरजी सकलतवाला को सत्यभक्त ने इस सम्मेलन की अध्यक्षता करने का आमंत्रण पत्र भेजा था। उनके असमर्थता जताने पर मद्रास के कम्युनिस्ट नेता कॉ. सिंगारावेलु चेट्टीयार को अध्यक्षता के लिए आमंत्रित किया गया। कॉ. सकलतवाला द्वारा भेजे गए संदेश को सम्मेलन में पढ़कर सुनाया गया। कॉ. सिंगारावेलु ने अपने अध्यक्षीय भाषण में पढ़ा-ऐसे समय जबकि कम्युनिज्म के विरोधी लोग इस धरती पर बसने वाले सभी मनुष्यों के लिए दुनिया को ज्यादा से ज्यादा खुशहाल और सुख-सम्पन्न बनाने वाले हमारे लोकोपकारी आंदोलन को कुचलने का प्रयास कर रहे हैं, भारत के हम कम्युनिस्ट भारत की राजनैतिक और आर्थिक स्थिति पर सामान्य रूप से विचार करने आज इस हॉल में एकत्र हुए हैं। हम उम्मीद करते हैं कि इस सम्मेलन में होने वाले विचार-विमर्शों के माध्यम से हमारे देशवासी और हमारे शासक दोनों ही हमारे शांतिपूर्ण आंदोलन को अच्छी तरह समझेंगे तथा हम अपनी इच्छा व्यक्त करते हैं कि सामान्य जनता, खासकर उद्योग-धंधों और कृषि क्षेत्रों के मजदूर, जिनके लाभ के लिए ही यह सम्मेलन हो रहा है, हमारे कार्यों का भली-भाँति मूल्यांकन करेंगे।
    के.मुरुगेसन और सी.एस. सुब्रह्मण्यम द्वारा लिखित, ‘सिंगारावेलु दक्षिण भारत में कम्युनिज्म के अग्रदूत’ अंग्रेजी पुस्तक जिसका हिन्दी अनुवाद श्री कन्हैया द्वारा किया गया, उसे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की 50वें वर्षगाँठ के अवसर पर पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित की गई थी। उसे पढ़ने से हम जान पाते हैं कि, सिंगारावेलु दक्षिण में कम्युनिज्म के जनक थे। वे अपने कम्युनिस्ट विचारों को मजदूर-वर्ग के संघर्षों के प्रत्येक कार्य क्षेत्र में, कांग्रेस के आत्मगौरव आंदोलन में और नागरिक मामलों में भी लागू करते थे। 1860 में मद्रास के एक मछेरे परिवार में जन्मे सिंगारावेलु ने कानून की डिग्री हासिल की और हाईकोर्ट में वकालत की। 1902 में इंग्लैंड की यात्रा कर वहाँ विश्व बौद्ध सम्मेलन में भाग लिया। जब वह भारत लौटकर आए, तो उनके घर में ही महाबोधि सोसायटी की बैठक होने लगी। बाद में वे रूस की 1905 की क्रांति के समाचार से प्रेरित हुए, जलियांवाला बाग हत्याकांड और राष्ट्रीय आंदोलन के लिए गांधीजी के आह्वान के बाद मद्रास शहर में नौजवानों के एक दल का नेतृत्व करना शुरू किया। उन्होंने 1922 में कांग्रेस प्रतिनिधि के रूप में गया-अधिवेशन में भी भाग लिया। सिंगारावेलु ने 1923 में मद्रास में हिन्दुस्तान मजदूर-किसान पार्टी की स्थापना की और मद्रास नगर में मई दिवस सभा का आयोजन किया। इतिहास में भारत में आयोजित पहला मई दिवस वही था। दैनिक समाचार पत्र कीर्ति के अनुसार कानपुर में आयोजित कांग्रेस पार्टी के
अधिवेशन पंडाल के पास ही सड़क के दूसरी तरफ विशेष रूप से बनाए गए अस्थायी सभागृह में कम्युनिस्ट पार्टी के सम्मेलन में 300 से ऊपर प्रतिनिधि उपस्थित थे। 25 दिसम्बर को सम्मेलन उद्घाटन अधिवेशन हुआ था। 26 दिसम्बर की शाम को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की विधिवत स्थापना का प्रस्ताव भी था। 27 दिसम्बर को पार्टी संविधान पारित किया गया और केन्द्रीय कार्यकारिणी समिति व पदाधिकारियों का चुनाव हुआ। महाराष्ट्र, बंगाल, लाहौर, उत्तर प्रदेश, पंजाब व मद्रास के कम्युनिस्ट गुटों के प्रतिनिधि शामिल थे। मुजफ्फर अहमद द्वारा 1969 में बंगाली में लिखित पुस्तक अमार जीवन आर. भारतेर कम्युनिस्ट पार्टी के मुताबिक इस सम्मेलन से एस.व्ही. घाटे और जानकी प्रसाद बगरेहट्टा संयुक्त महासचिव चुने गए और घाटे को बम्बई केन्द्रीय कार्यालय संचालन की जिम्मेदारी दी गई। पार्टी का 11 सदस्यीय केन्द्रीय कार्यकारिणी का भी चुनाव हुआ, जिसमें से एक थे कॉ. मुजफ्फर अहमद। बाद में कॉ. मुजफ्फर अहमद ने उसी पुस्तक में, जिसे पार्टी का 1964 में विभाजन के बाद 1969 में लिखा गया था, लिखा कि कानपुर में कम्युनिस्ट सम्मेलन एक बच्चों का खेल था और वे इसे एक शर्मनाक घटना मानते हैं। उन्होंने दावा किया कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना कानपुर में 26 दिसम्बर 1925 को नहीं, बल्कि ताशकंद में एम.एन. राय के नेतृत्व में 17 अक्टूबर, 1920 को 7 सदस्यों की एक बैठक आयोजित की गई थी। 1964 में बनी सीपीआई (एम) के नेताओं ने उनकी पार्टी का कलकत्ता में सम्पन्न सप्तम पार्टी कांग्रेस (31 अक्टूबर से 7 नवंबर, 1964) में सीपीआई (एम)  के जिस पार्टी कार्यक्रम को पास करवाया गया, उसकी भूमिका में लिखा गया कि सन् 1920 में कम्युनिस्ट पार्टी का गठन हुआ और 1920 के दशक में पार्टी गठित होने के बाद पार्टी गैरकानूनी घोषित हो गई। सीपीआई (एम) के स्थापना वर्ष को 1920 दर्शाते हुए उस पार्टी ने अपने को सीपीआई से अलग दिखाने का प्रयास ही नहीं किया, बल्कि सन 2014 में सीपीआई से अलग होने का 50वीं वर्षगाँठ मनाते हुए इस बात की बहुत खुशी जाहिर की कि उनकी पार्टी को सीपीआई के संशोधनवाद से मुक्ति मिली थी। वहीं अपने लक्ष्य के बारे में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने कहा, पार्टी ऐसे न्यायपूर्ण समाजवादी समाज के लक्ष्य के लिए दृढ़तापूर्वक समर्पित है जो हर किस्म के शोषण और वर्ग, जाति एवं लिंग अंतरों के कारण पैदा होने वाले सामाजिक उत्पीड़न को समाप्त करने के लिए रास्ता साफ करेगी। पार्टी ऐसे समाजवादी समाज के निर्माण के लिए समर्पित है, जिसमें मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण अंततः समाप्त हो जाएगा। तमाम मतांध और मात्र सिद्धांतवादी एवं मताग्राही सोच एवं संशोधनवादी रूझानों को अस्वीकार करते हुए, पार्टी एक ऐसे नये समाजवादी समाज के लिए रास्ते की रूपरेखा तैयार करने के लिए भारत की विशिष्ट परिस्थितियों के अनुसार मार्क्सवादी लेनिनवाद के विज्ञान को लागू करेगी। यह रास्ता सामने उपस्थित विशिष्ट ऐतिहासिक परिस्थितियों और साथ ही हमारे स्वयं के देश की विशेष विशिष्टताओं एवं लक्षणों, इसके इतिहास, परंपरा, संस्कृति, सामाजिक बनावट एवं विकास के स्तर से तय होगा। यह किसी मॉडल पर आधारित नहीं होगा। यह अद्वितीय और विशेषतः इस 21वीं सदी में समाजवाद का भारतीय रास्ता होगा। मुख्य तत्व है उत्पादन के मुख्य साधनों का समाजीकरण। सीपीआई के राजनैतिक प्रस्ताव-2015 में कहा गया कि, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी दृढ़तापूर्वक विश्वास करती है कि अपनी समृद्ध विरासत के साथ जनता के उद्देश्यों के लिए संघर्ष और अभियान से समाजवादी समाज के लिए पथ प्रशस्त करके एक जनविकल्प का निर्माण होगा। समाजवादी हमारा भविष्य है।
-चित्तरंजन बक्शी
लोकसंघर्ष पत्रिका अप्रैल 2018 विशेषांक में प्रकाशित

भारतीय संसद की वह बुलंद आवाज

साठ और सत्तर के दशक में भारतीय संसद में हीरेन मुखर्जी, नाथ पाई, ज्योतिर्मय बसु और अटल बिहारी वाजपेई के साथ-साथ जिस वक्ता की सबसे ज्यादा धाक होती थी वे थे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के भूपेश गुप्त।
    एक बार मशहूर रंगमंच आलोचक केनेथ टिनेन ने कहा था, अंग्रेज कंजूसों की तरह लफ्जों की जमाखोरी करते हैं, जबकि आयरिश एक शराबी की तरह उन्हें बाहर निकाल देते हैं। भूपेश गुप्त ने अपने जीवन में कभी शराब नहीं पी, लेकिन राज्यसभा में जब भी वे बोलने के लिए खड़े हुए, उनके मुँह से लफ्ज एक आयरिश मैन की तरह ही निकले। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव अतुल कुमार अंजान की भूपेश गुप्त से पहली मुलाकात तब हुई जब वे सिर्फ 16-17 साल के हुआ करते थे।
    अंजान बताते हैं, कि मैं आल इंडिया स्टूडेंट फेडेरेशन के एक प्रदर्शन में दिल्ली आया था 1972 में, बोट क्लब पर हुए उस प्रदर्शन में मैंने भूपेश गुप्त को पहली बार बोलते हुए सुना। वहीं मैंने मधु लिमये, अमृतपद डाँगे और नाथ पाईजी को सुना। मैं इन सबसे प्रभावित हुआ, लेकिन सबसे अधिक प्रभावित हुआ भूपेश गुप्त की सिंहगर्जना से, जिसको सुनने से हृदय, शरीर और रोम में कंपन होता था।
    अंजान आगे बताते हैं, क्या शब्द थे उनके! क्या था उनका उच्चारण! उस जमाने में उतनी अंग्रेजी नहीं जानता था लेकिन तब भी लगता था कि वे हमारी ही बात कर रहे हैं। जब वे उठकर जाने लगे तो मैं उनके पास जा कर खड़ा हो गया। उनसे बातचीत की, हाथ मिलाया। उन्होंने अंग्रेजी में पूछा कहाँ से? मैंने कहा लखनऊ से, ये मेरी उनकी पहली मुलाकात थी।
    बाद में तो अतुल अंजान और भूपेश गुप्त का काफी साथ रहा। जब भी वे लखनऊ से दिल्ली आते तो, उन्हीं के घर ठहरते थे। सुबह साढ़े तीन बजे उठ जाते थे भूपेश गुप्त। तभी अखबार वाला धड़ाप की आवाज के साथ अखबार का बंडल फेंक जाता था।
    दैनिक कार्य से निवृत्त होने के बाद वे चार बजे से अखबार पढ़ना शुरू कर देते थे। पाँच बजे से वे राज्यसभा में ध्यानाकर्षण प्रस्ताव के लिए तैयारी शुरू कर देते थे। एक ही उंगली से अपने पुराने टाइप राइटर पर टाइप करना शुरू कर देते थे। सात साढ़े सात बजे तक उनका काम रोको प्रस्ताव और जीरो आवर में कौन सा सवाल पूछेंगे-इन सब की तैयारी हो जाती थी।
    आठ सवा आठ बजे राज्यसभा के सचिवालय में उनका प्रश्न पहुँच जाता था और ठीक दस बजे वे संसद पहुँच जाते थे। कुल मिलाकर उन्होंने राज्यसभा में 1500 से 2000 के बीच भाषण दिए हैं।
    जब भूपेश बोलते थे तो सभापति तक के बूते की बात नहीं होती थी कि वे उनके भाषण में व्यवधान डालेें या उनसे कहें, योर टाइम इज अप मिस्टर भूपेश गुप्त। जब वे खड़े होते थे तो लोग अपनी कुर्सी से चिपक कर बैठ जाते थे। सुमित चक्रवर्ती मेनस्ट्रीम पत्रिका के संपादक और जाने माने पत्रकार निखिल चक्रवर्ती के बेटे हैं। वे बताते हैं, अबू अब्राहम ने एक बार लिखा था कि जब वे राज्यसभा में पहली बार एक सदस्य की हैसियत से घुसे तो उन्होंने देखा कि भूपेश गुप्त सदन में कोई मामला उठा रहे थे। उनका भाषण कुछ लंबा हो चला था। सभापति ने उनसे गुजारिश की कि मुद्दे पर आइए।
    भूपेश ने जवाब दिया मैं धीरे-धीरे वही कर रहा हूँ। एक मोती से माला नहीं बन जाती। उनको एक-एक कर पिरोने से ही माला बनती है। उनकी एक और अदा होती थी कि अपना भाषण देने के बाद वे अपना हियरिंग एड उतार देते थे। लोग मजाक में कहते थे कि वे ऐसा इसलिए करते थे ताकि उनके भाषण की आलोचना उनके कानों तक न पहुँच सके। एक बार नेहरू के भाषण के दौरान ही उन्होंने अपना हियरिंग एड उतार दिया था। जब नेहरू ने कहा था कि हम में से बहुतों को यह सौभाग्य नहीं प्राप्त है कि हम वह न सुनें जो हम सुनना नहीं चाहते।
    हिरण्मय कार्लेकर हिंदुस्तान टाइम्स के संपादक रह चुके हैं। उन्होंने भूपेश गुप्त के राजनैतिक जीवन को बहुत नजदीक से देखा है। वे बताते हैं, अगर उनसे बात करनी होती थी तो आपको बहुत जोर से बोलना पड़ता था, क्योंकि वे ऊँचा सुनते थे। दूसरा वे खुले इंसान थे। जो कुछ कहना होता था साफ बोलते थे। तीसरे विवादास्पद बात करने में उन्हें बहुत मजा आता था। एक बात करके वे छोड़ देते थे और फिर देखते थे कि उसका उन लोगों पर क्या असर पड़ रहा है जिनके लिए वह बात कही गई थी।
    भूपेश शराब को हाथ नहीं लगाते थे। सुमित चक्रवर्ती एक किस्सा सुनाते हैं, एक बार नव वर्ष के मौके पर एक महिला ने उनसे कहा कि आज तो कम से कम आप शैरी पी सकते हैं। भूपेश ने जोर से ठहाका लगाते हुए कहा था कि तुम मुझसे वह काम करने के लिए कह रही हो जो मुझसे माओत्से तुंग और निकिता रुशचेव भी नहीं करवा पाए। उन्होंने कितनी बार मुझसे शराब पीने का इसरार किया लेकिन मैंने कभी उनकी बात नहीं मानी।
    मेनस्ट्रीम के पूर्व संपादक निखिल चक्रवर्ती भूपेश गुप्त को उनके लंदन के दिनों से जानते थे। उनकी मौत के बाद उन्होंने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा था, भूपेश संसदीय बहस के लिए बहुत तैयारी करते थे। वे अपने निजी सचिव खुद थे। उनका कमरा हमेशा बेतरतीब रहता था लेकिन वह मेज जिस पर वे काम करते थे, हमेशा साफ सुथरी होती थी। उस जमाने में संसद में ध्यान आकर्षित करने के कई तरीके हुआ करते थे। एक था राजनारायण स्टाइल जहाँ आप मसखरापन कर सांसदों का ध्यान खींचते थे और दूसरा था संजय गांधी स्टाइल जहाँ आप ताकत और ऊँची आवाज के जोर पर अपनी बात मनवाते थे। भूपेश इन दोनों से अलग थे। उन्हें इसलिए सुना जाता था क्योंकि वे हमेशा नाइंसाफी और असमानता के खिलाफ आवाज उठाते थे। भूपेश गुप्त की अकेली संपत्ति उनकी किताबें थी। उनके पास बहुत कम कपड़े होते थे। अगर कोई उन्हें कोई कपड़ा देता भी तो वे उसे किसी जरूरतमंद को बाँट देते थे। कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्व नेता मोहित सेन उनके बहुत करीबी थे।
    उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘द ट्रैवलर एंड द रोड’ में लिखा है, जब वे मरे तो उनके बैंक अकाउंट में बहुत कम पैसे थे। उनके पास किताबों, नोटबुक्स और बहुत मामूली वार्डरोब के अलावा कुछ भी नहीं था। मुझे वे बहुत पसंद करते थे और अक्सर हम उनके फिरोज शाह रोड वाले घर से बंगाली मार्केट पैदल जाया करते थे जहाँ वे गोलगप्पे और मिठाइयाँ खाते थे। तीस के दशक से ही वे इंदिरा गांधी से बहुत जुड़े हुए थे और उनके और फिरोज गाँधी के बीच संदेशवाहक का काम करते थे, लेकिन 1977 के बाद से वे उनके सख्त खिलाफ हो गए थे, हालाँकि उन्होंने इमरजेंसी का समर्थन किया था। उसके बाद वे उनसे निजी तौर पर कभी नहीं मिले। भूपेश गुप्त और इंदिरा गांधी की दोस्ती के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है। इंदिरा गांधी, उनके होने वाले पति फिरोज गांधी और भूपेश गुप्त ब्रिटेन से एक ही पानी के जहाज से भारत वापस लौटे थे। इंदिरा गांधी की नजदीकी दोस्त पुपुल जयकर ने उन पर लिखी जीवनी में लिखा है, जब इंदिरा गांधी फिरोज गाँधी से शादी के मुद्दे पर अपने पिता जवाहरलाल नेहरू को नहीं मना पाईं तो वे और फिरोज, कम्युनिस्ट नेता और अपने बहुत अच्छे दोस्त भूपेश गुप्त के पास गए। जब भूपेश ने यह सुना तो वे फिरोज की तरफ मुड़ कर बहुत गंभीरता से बोले क्या तुम वफादार रह पाओगे? फिरोज जोर से हँसे और घुटनों के बल बैठ कर बोले, क्या तुम चाहते हो कि मैं वफादारी का प्रण लूँ? भूपेश गुप्ता ने फिरोज गांधी को कोई जवाब नहीं दिया, बल्कि इंदिरा गांधी की तरफ मुड़ कर पूछा, क्या तुम वास्तव में फिरोज से शादी करना चाहती हो? उनको पता था कि इंदिरा जिद्दी है और उन्हें कोई ताज्जुब नहीं हुआ जब इंदिरा ने कहा कि उनका यही इरादा है। भूपेश ने तब दोनों से कहा कि वे महात्मा गांधी से सलाह लें। इंदिरा गाँधी से निकटता होने के बावजूद दोस्ती कभी भी उनके राजनैतिक विचारों के आड़े नहीं आई। वक्त का तकाजा हुआ तो उन्होंने इंदिरा गांधी पर राजनैतिक हमलों से परहेज नहीं किया।
            अतुल कुमार अंजान बताते हैं, इंदिरा गांधी के साथ उनके संबंध नीतियों के सवाल पर कठोर होते थे। लंदन के अध्ययन काल में दोनों के संबंधों के बीच बहुत जीवंतता और आत्मीयता थी। एक बार मैं उनके निवास स्थान से संसद भवन पैदल जा रहा था। अचानक उनके सामने एक एंबेसडर कार आ कर रुकी। शीशा उतार कर एक महिला बोल रही थी भूपेश... भूपेश, मैंने देखा वह प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थीं। उन्होंने अपनी कार का दरवाजा खोला और उनसे अपनी कार में बैठने का आग्रह करने लगीं। लेकिन भूपेश कार में बैठने में झिझक रहे थे। अंततः वे कार में नहीं बैठे। तब मुझे लगा कि यह सिर्फ एक अद्वितीय सांसद और प्रधानमंत्री के बीच का मामला नहीं है, बल्कि यह बहुत गहरा आत्मीय संबंध है। जब 1980 में अचानक इंदिरा गांधी के छोटे बेटे संजय गांधी का एक हवाई दुर्घटना में निधन हो गया, तो घोर राजनैतिक विरोधी होते हुए भी भूपेश गुप्त ने संजय गांधी को जिस तरह की भावभीनी श्रद्धांजलि दी, वैसी शायद किसी ने भी नहीं दी। भूपेश गुप्त बोले, कई मौके ऐसे आते हैं जब नियमों को ताक पर रख दिया जाता है। अगर नियमों को ताक पर नहीं रखा गया होता तो 23 जून को हुई दुर्घटना नहीं हुई होती, तो प्रधानमंत्री के बेटे, सत्ताधारी पार्टी के महासचिव और 25 सालों तक मेरे दोस्त रहे फिरोज गांधी के छोटे बेटे और अगर मुझ पर चापलूसी का इल्जाम न लगाया जाए, तो मेरी दोस्त इंदिरा गांधी के बेटे के प्राण नहीं जाते। मैं भरे दिल से यह सब कह रहा हूँ। 1981 में जब भूपेश गुप्त का निधन हुआ और उनके पार्थिव शरीर को अजय भवन लाया गया, तो इंदिरा गांधी स्वयं उन्हें श्रद्धांजलि देने कम्युनिस्ट पार्टी के मुख्यालय अजय भवन पहुँचीं। उस समय अतुल अंजान भी अजय भवन में मौजूद थे। अतुल बताते हैं, मैंने देखा कि इंदिरा जी आईं थीं। एकदम श्वेत परिधान में थीं...एकदम सफेद। काला चश्मा लगाए हुए थीं। जब वे भूपेश के पार्थिव शरीर के पास आईं तो बहुत देर तक खड़ी रहीं। उनका शरीर शीशे के कास्केड में रखा गया था, जिसमें उनका चेहरा दिखाई दे रहा था। वे अपनी लंबी गर्दन निकाल कर बहुत गौर से भूपेश के चेहरे को देखती रहीं। मैं उनकी बगल में खड़ा था। मैंने देखा कि काले चश्मे के नीचे से टप-टप आँसू बह रहे थे।
-रेहान फजल
बीबीसी संवाददाता
लोकसंघर्ष पत्रिका अप्रैल 2018 विशेषांक में प्रकाशित

कुछ बस्तियाँ यहाँ थीं बताओ किधर गई


                                    कुछ बस्तियां यहाँ थीं बताओ किधर गईं,
                                   कद्र अब तक तेरी तारीख ने जानी ही नहीं।

    1943, बंगाल का अकाल, अनाज की कमी नहीं लेकिन लोगों को मिला नहीं. तीस लाख लोग भूख से मारे गए लेकिन अंग्रेज सरकार के कान पर जूं तक ना रेंगी। जब ब्रिटेन के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल से मदद मांगी गई कि बंगाल में लोग भूखे मर रहे हैं तो उन्होंने जबाब भेजा-अच्छा, तो गांधी अब तक क्यों नहीं मरे! उधर दूसरा विश्वयुद्ध दुनिया की राजनैतिक समीकरण बदलने को उतारू था। रूस की क्रांति ने भारत में भी बदलाव की ललक पैदा की।
    ऐसे में कम्युनिस्ट पार्टी ने एक ऐसी संस्था की परिकल्पना की जो देश भर में ना सिर्फ आजादी की अलख जगाए बल्कि सामाजिक बुराइयों अशिक्षा और अंधविश्वास से भी लोहा ले। मनोबल टूटा था लेकिन जिजीविषा बाकी थी। सही अर्थों में सर्वहारा समाज के उत्थान के लिए इप्टा का निर्माण हुआ।
   25 मई 1943 को मुंबई के मारवाड़ी हाल में प्रो. हीरेन मुखर्जी ने इप्टा की स्थापना के अवसर पर अध्यक्षता करते हुए यह आह्वान किया, “लेखक और कलाकार आओ, अभिनेता और नाटककार आओ, हाथ से और दिमाग से काम करने वाले आओ और स्वंय को आजादी और सामाजिक न्याय की नई दुनिया के निर्माण के लिए समर्पित कर दो”। इसका नामकरण प्रसिद्ध वैज्ञानिक होमी जहाँगीर भाभा ने किया था। इसका नारा था, “पीपल्स थियेटर स्टार्स पीपल”। इसे आकार देने में मदद की श्रीलंका की अनिल डि सिल्वा ने। इप्टा का प्रतीक चिह्न बनाया भारत के प्रसिद्ध चित्रकार चित्ताप्रसाद ने। ‘रंग दस्तावेज’ के लेखक महेश आनंद के अनुसार ‘इप्टा यानी इंडियन पीपल्स थिएटर असोसिएशन के रूप में ऐसा संगठन बना जिसने पूरे हिन्दुस्तान में कलाओं की परिवर्तनकारी शक्ति को पहचानने की कोशिश पहली बार की। कलाओं में भी अवाम को सजग करने की अद्भुत शक्ति है जिसे हिंदुस्तान की तमाम भाषाओं में पहचाना गया। ललित कलाएं, काव्य, नाटक, गीत, पारंपरिक नाट्यरूप, इनके कर्ता, राजनेता और बुद्धिजीवी एक जगह इकठ्ठा हुए, ऐसा फिर कभी नहीं हुआ।”
बंगाल कल्चरल स्क्वाड
    बंगाल-अकाल पीड़ितों के लिए राहत जुटाने के लिए स्थापित ‘बंगाल कल्चरल स्क्वाड’ के नाटकों ‘जबानबंदी’ और ‘नबान्न’ की लोकप्रियता ने इप्टा के स्थापना की प्रेरणा दी। मुंबई तत्कालीन गतिविधियों का केंद्र था लेकिन बंगाल, पंजाब, दिल्ली, युक्त प्रांत, मालाबार, कर्णाटक, आंध्र, तमिलनाडु में प्रांतीय समितियाँ भी बनीं। स्क्वाड की प्रस्तुतियों और कार्यशैली से प्रभावित होकर बिनय राय के नेतृत्व में ही इप्टा के सबसे सक्रिय समूह ‘सेंट्रल ट्रूप’ का गठन हुआ। भारत के विविध क्षेत्रों की विविध शैलियों से संबंधित इसके सदस्य एक साथ रहते। इनके साहचर्य ने ‘स्पिरिट ऑफ इंडिया’, ‘इंडिया इम्मोर्टल’, कश्मीर जैसी अद्भुत प्रस्तुतियों को जन्म दिया।
पीसी जोशी और इप्टा
    भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पहले महासचिव पूरन चंद जोशी ने इस बात को समझा कि एक दृढ़ राजनैतिक जागृति का आधार सांस्कृतिक और सामाजिक जागरूकता ही हो सकती है। प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव प्रो. अली जावेद कहते हैं, वे बहुत दूरदर्शी आदमी थे। उन्होंने देश भर में योग्य कलाकारों, लोगों को पहचाना और उन्हें इस मूवमेंट से जोड़ने की कोशिश की।
कैफी आजमी और अली सरदार जाफरी
    प्रोफेसर जावेद ने बताया कि कैफी आजमी आजमगढ़ के एक गाँव के रहने वाले थे और लखनऊ आए थे मौलवी बनने के लिए। कानपुर की एक ट्रेड यूनियन के एक मुशायरे में पीसी जोशी ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और उन्हें अपने साथ जोड़ा। हिंदी के वरिष्ठ लेखक विश्वनाथ त्रिपाठी कहते हैं कि भारत की रचनात्मकता और अभिव्यक्ति पर गांधी के बाद अगर किसी और राजनेता का प्रभाव पड़ा तो वे पी सी जोशी ही थे। इप्टा से पहले उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना में और आजादी के बाद जब दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की स्थापना हुई तो उसकी परियोजना और विकास में भी पीसी जोशी का बड़ा योगदान रहा।
मिथक पुरुष
    बलराज सिंह और दमयंती सिंह। विश्वनाथ त्रिपाठी बताते हैं कि उनके परिचितों में राजनेताओं के अलावा सभी भारतीय भाषाओं के रचनाकर्मियों की लंबी सूची थी। वे लोगों में एक मिथक पुरुष की तरह थे। जब वे कम्यून में रहते थे तो हर सुबह वे पार्टी के सभी कार्यकर्ताओं के सिरहाने उन कामों की सूची की एक छोटी सी चिट छोड़ दिया करते जो उस व्यक्ति को उस दिन करने होते। इतने लोगों को जानने के बावजूद वे हरेक के रोजमर्रा के सुख और दुख में शामिल होते।
लेखक अभिनेता भीष्म साहनी
    भीष्म साहनी ने अपने संस्मरण ‘आज के अतीत’ में पीसी जोशी से पहली मुलाकात का जिक्र किया है। साहनी लिखते हैं, ‘वे लापरवाह तरह से कपड़े पहने हुए थे, पैरों में पुरानी चप्पल थी और वे तंबाकू खा रहे थे। मैंने खुद से कहा, बेशक ये वे पीसी जोशी नहीं हो सकते जिनका नाम हरेक की जुबान पर है। लेकिन जब उन्होंने अपना हाथ मेरे कंधे पर रखा तो उनकी आँखों की स्नेहपूर्ण चमक और एक चमकीली मुस्कान ने मेरे सारे शक को दूर कर दिया।’ भीष्म साहनी की बेटी कल्पना साहनी के शब्दों में, ‘पीसी जी अनोखी शख्सियत थे, विनम्र, स्नेहपूर्ण, सरल लेकिन अपने विजन और विचारों में एकदम स्पष्ट।’ बलराज साहनी ने अपने संस्मरण में जिक्र किया है कि पीसी जोशी को जीवन के हर पहलू से गहरा लगाव था। वे हर पल अपनी जानकारी की हदों को बढ़ाने में मशगूल रहते। वे इस पर कत्तई विश्वास नहीं करते थे कि कला को राजनेताओं के हाथ की कठपुतली होना चाहिए। बलराज साहनी ने माना कि ये पीसी जोशी का प्रभावशाली और आकर्षक व्यक्तित्व ही था कि देश भर के कई कलाकार इप्टा से जुड़े और उसके सदस्य बने। इप्टा में कौन थे?
फैज अहमद फैज
    एम. के रैना. लिखते हैं ‘उस दौर में नाटक संगीत, चित्रकला, लेखन, फिल्म से जुड़ा शायद ही कोई वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी होगा जो इप्टा से नहीं जुड़ा था’। यह एक ऐसी संस्था थी जो अपनी राजनैतिक प्रतिबद्धताओं के परे जाकर भी लोगों से जुड़ी।
संगीतकार सलिल चौधरी
    पृथ्वीराज कपूर, बलराज और दमयंती साहनी, चेतन और उमा आनंद, हबीब तनवीर, शंभु मित्र, जोहरा सहगल, दीना पाठक इत्यादि जैसे अभिनेता, कृष्ण चंदर, सज्जाद जहीर, अली सरदार जाफरी, राशिद जहां, इस्मत चुगताई, ख्वाजा अहमद अब्बास जैसे लेखक, शांति वर्द्धन, गुल वर्द्धन, नरेन्द्र शर्मा, रेखा जैन, सचिन शंकर, नागेश जैसे नर्तक, रविशंकर, सलिल चौधरी जैसे संगीतकार, फैज अहमद फैज, मखदूम मोहीउद्दीन, साहिर लुधियानवी, शैलेंद्र, प्रेम धवन जैसे गीतकार, विनय रॉय, अण्णा भाऊ साठे, अमर शेख, दशरथ लाल जैसे लोक गायक, चित्तो प्रसाद, रामकिंकर बैज जैसे चित्रकार। ये आंदोलन नाटक, गीत और संगीत को थिएटर हॉल की बंद दीवारों के बाहर लोगों के बीच ले आया।
जोहरा सहगल
    इप्टा के सदस्य हर जगह सामाजिक जागरूकता की अलख जगाने के लिए नाटक कर रहे थे- गलियों में, सड़कों पर, ट्रेन में, ट्रकों के ऊपर। इस तरह शुरू हुआ एक ऐसा सांस्कृतिक पुनर्जागरण, जिसने ना सिर्फ कला और संस्कृति में नए आयाम जोड़े बल्कि जो आज भी देश भर में समाज के जागरण के लिए काम कर रहा है। कम्युनिस्ट नेता फिदेल कास्त्रो ने करीब 50 साल तक क्यूबा में एकछत्र राज किया। इस दौरान क्यूबा में कोई दूसरी पार्टी नहीं थी, जो उनकी दावेदारी को चुनौती दे पाती। यह वह दौर भी था, जब दुनिया भर में कम्युनिस्ट शासन ढहते जा रहे थे। लेकिन फिदेल कास्त्रो अपने सबसे बड़े दुश्मन संयुक्त राज्य अमरीका की खुलकर आलोचना करते रहे और लाल झंडे को कभी झुकने नहीं दिया। कास्त्रो ने इंदिरा गांधी को गले लगाया। कास्त्रो के समर्थक उन्हें समाजवाद का सूरमा बताते हैं और एक ऐसा सैन्य राजनीतिज्ञ मानते हैं, जिसने अपने लोगों के लिए क्यूबा को आजाद कराया। क्यूबा के पूर्व राष्ट्रपति फिदेल कास्त्रो पर यह आरोप भी लगते रहे कि उन्होंने क्रूर तरीकों से अपने विपक्षियों को दबाया। साथ ही खराब आर्थिक नीतियों की वजह से क्यूबा की अर्थव्यवस्था को अपंग बना दिया। क्यूबा के तानाशाह फुलखेंशियो बतीस्ता के संयुक्त राज्य अमरीका से घनिष्ठ संबंध थे। फिदेल अलजांद्रो कास्त्रो रुज का जन्म 13 अगस्त 1926 को एक धनी किसान के घर हुआ था. उनकी मां का नाम लीना रुज था, जो उनके पिता की सेविका थीं। लेकिन कास्त्रो के जन्म के बाद उनके पिता ने लीना से शादी कर ली।
फिदेल कास्त्रो के जीवन की नौ बातें
    सैंटियागो के कैथोलिक स्कूलों में कास्त्रो ने अपनी स्कूली पढ़ाई की. इसके बाद की पढ़ाई करने के लिए वे हवाना चले गए। 1940 के दशक के मध्य में हवाना विश्वविद्यालय से लॉ की पढ़ाई करते वक्त ही कास्त्रो राजनैतिक कार्यकर्ता बने। उन्होंने जल्द ही सार्वजनिक वक्ता के रूप में अपनी पहचान बना ली थी और लोग उन्हें सुनना पसंद करने लगे थे।
मार्क्सवाद और अमरीका से टकराव
    सक्रिय राजनीति में आने के बाद कास्त्रो ने क्यूबा सरकार को अपने निशाने पर लिया। इस दौर में राष्ट्रपति रेमन की सरकार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप थे और कास्त्रो अपने भाषणों में सरकार को घेरने लगे थे। यह क्यूबा में हिंसक विरोध प्रदर्शनों का दौर था, जिसके चलते पुलिस ने कास्त्रो को निशाना बनाना शुरू कर दिया। कास्त्रो डोमिनिकन गणराज्य के दक्षिणपंथी नेताओं के खिलाफ थे। उन्होंने दक्षिणपंथी नेता राफेल ट्रूजिलो की सत्ता को उखाड़ फेंकने का प्रयास किया। लेकिन अमरीकी हस्तक्षेप के बाद यह प्रयास नाकाम रहा। सैंटियागो से सटी मोंकाडा की सैन्य बैरकों पर सशस्त्र हमला करने के जुर्म में कास्त्रो को गिरफ्तार कर लिया गया था। 1948 में कास्त्रो ने क्यूबा के एक धनी नेता की बेटी मिर्ता डियाज बालार्ट से शादी की। उस वक्त क्यूबा में यह चर्चा चली थी कि इस शादी के बाद कास्त्रो देश के कुलीन वर्ग में शामिल हो जाएँगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ बल्कि शादी के बाद कास्त्रो तेजी से मार्क्सवाद की ओर बढ़े। कास्त्रो का मानना था कि क्यूबा की आर्थिक समस्याओं का महज एक ही कारण है, और वह है बेलगाम पूँजीवाद। कास्त्रो कहते थे कि पूंजीवाद का इलाज सिर्फ जन-क्रांति द्वारा ही किया जा सकता है। स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद कास्त्रो ने बतौर वकील काम करने का प्रयास किया। लेकिन इसमें वे सफल नहीं हो पाए और उनके सिर पर लोगों का कर्ज बढ़ने लगा। इस दौरान भी उन्होंने अपनी राजनैतिक सक्रियता बनाए रखी। वे सभी हिंसक प्रदर्शनों में शामिल हुआ करते थे। साल 1952 में क्यूबा के तानाशाह फुलखेंशियो बतीस्ता ने देश में सैन्य विद्रोह करवाया और क्यूबा के राष्ट्रपति कार्लोस प्रियो को सत्ता छोड़नी पड़ी।
आक्रमण की तैयारी
    फुलखेंशियो बतीस्ता के संयुक्त राज्य अमरीका से घनिष्ठ संबंध थे। उन्होंने समाजवादी संगठनों का दमन करना शुरू कर दिया था। यह स्थिति कास्त्रो की मौलिक राजनैतिक मान्यताओं के ठीक विपरीत थीं। इसे चुनौती देने के लिए कास्त्रो ने एक संस्था बनाई, जिसका नाम था ‘द मूवमेंट’। इस संस्था ने भूमिगत रहकर काम शुरू किया, ताकि बतीस्ता की सत्ता को पलटा जा सके। इसी सिलसिले में जुलाई, 1953 में कास्त्रो ने सैंटियागो से सटी मोंकाडा की सैन्य बैरकों पर सशस्त्र हमला किया। इस विद्रोह का मकसद हथियारों को जब्त करना था। लेकिन यह योजना विफल हो गई और कई क्रांतिकारी इसमें मारे गए।
गुरिल्ला युद्ध की रणनीति
    कास्त्रो को 15 साल की सजा सुनाई गई। लेकिन 19 महीने की सजा के बाद कास्त्रो को रिहा कर दिया गया। जेल में अपनी सजा के दौरान कास्त्रो ने अपनी पत्नी को तलाक दे दिया था और वे दिन-रात मार्क्सवादी साहित्य में डूबे रहते थे। यह वह दौर था जब फुलखेंशियो बतीस्ता अपने विद्रोहियों को निपटा रहा था। ऐसे में गिरफ्तारी से बचने के लिए कास्त्रो क्यूबा छोड़ मेक्सिको चले गए। यहीं उनकी मुलाकात नामी क्रांतिकारी चे ग्वेरा से हुई। नवंबर 1956 में कास्त्रो 81 सशस्त्र साथियों के साथ क्यूबा लौटे और साल 1959 में क्यूबा के तानाशाह फुलखेंशियो बतीस्ता को सत्ता से हटाकर फिदेल कास्त्रो ने क्यूबा में कम्युनिस्ट सत्ता कायम की।
विचारधारा
    कास्त्रो के संचालन में बनी क्यूबा की नई सरकार ने गरीबों से वादा किया कि लोगों को उनकी जमीनें लौटा दी जाएँगी और गरीबों के अधिकारों की रक्षा की जाएगी, लेकिन सरकार ने जल्द ही देश में एक पार्टी सिस्टम लागू कर दिया। सैंकड़ों राजनैतिक लोगों को कैद कर लिया गया। कुछ को जेल भेजा गया, तो कुछ को श्रम शिविरों में नजरबंद कर दिया गया। वहीं हजारों की संख्या में मध्यम वर्गीय क्यूबाई नागरिकों को निर्वासन के लिए मजबूर किया गया। साल 1959 में हवाना में दाखिल हुई थी कास्त्रो की क्रांतिकारी सेना। उन्होंने कई बार अपने भाषणों में कहा कि देश में साम्यवाद या मार्क्सवाद नहीं है, बल्कि एक ऐसा लोकतंत्र है, जिसमें सभी को प्रतिनिधित्व की आजादी है। 1960 में फिदेल कास्त्रो ने अमरीकी स्वामित्व वाले सभी व्यवसायों का राष्ट्रीयकरण कर दिया। जवाब में, वाशिंगटन ने क्यूबा पर कई व्यापारिक प्रतिबंध लगा दिए। क्यूबा इस दौर में एक शीत युद्ध का मैदान बन गया था। कास्त्रो दावा करते थे कि सोवियत संघ और उसके नेता निकिता ख्श्चेव ने उनसे समझौते का प्रस्ताव रखा था। इसके बाद ही दोनों के बीच संधि हुई और उन्हें सोवियत संघ का समर्थन मिला। दूसरी ओर अमरीका कास्त्रो की सरकार का तख्ता पलट करवाने के लिए क्यूबा के राजनैतिक कैदियों के साथ मिलकर एक निजी सेना बना रहा था।
एक विचित्र घटना...
    कास्त्रो अमरीका के लिए सबसे बड़े दुश्मन बन चुके थे। सीआई के नेतृत्व में एक टीम भी बनाई गई, जिसका मकसद कास्त्रो की हत्या करना था। इसके लिए कास्त्रो के सिगार में विस्फोटक लगाकर उन्हें मारने का तरीका चुना गया। कई ऐसे विचित्र तरीकों की जानकारी सार्वजनिक हुई, जिनके जरिए कास्त्रो की हत्या प्लान की जा रही थी। इस बीच कास्त्रो को और क्यूबा को आर्थिक मदद पहुंचाने के लिए सोवियत संघ ने क्यूबा में पैसा लगाना शुरू किया।
क्यूबा का घाटा
    कमजोर आर्थिक स्थिति के बावजूद कास्त्रो ने अफ्रीका में अपने सैनिकों को भेजा और अंगोला समेत मोजाम्बिक के मार्क्सवादी छापामार लड़ाकों का समर्थन किया, लेकिन 1980 के मध्य तक वैश्विक राजनीति में भारी बदलाव हो गया। यह दौर कास्त्रो की क्रांति के लिए घातक साबित हुआ. इस दौर में मास्को के लिए भी कास्त्रो को प्रभावी ढंग से मदद दे पाना मुश्किल हो गया था और इसके साथ ही क्यूबा की एक बड़ी उम्मीद भी टूट गई। मरते दम तक फिदेल कास्त्रो की लोकप्रियता कायम रही।
कैरेबियन साम्यवाद
    इसके बावजूद 1990 के मध्य तक क्यूबा ने कई प्रभावशाली घरेलू उपलब्धियों को हासिल किया। देश में अच्छी चिकित्सा व्यवस्था को लोगों को मुफ्त मुहैया कराया गया। इसने क्यूबा की शिशु मृत्यु दर को पृथ्वी पर कुछ बड़े विकसित देशों के बराबर ला दिया। बाद के वर्षों में कास्त्रो का रुख विनम्र हो गया।

-प्रगति सक्सेना
बीबीसी संवाददाता
लोकसंघर्ष पत्रिका अप्रैल 2018 विशेषांक में प्रकाशित

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