Thursday, 2 August 2012

वो सुबह कभी तो आएगी



इन काली सदियों के सर से जब रात का आंचल ढलकेगा

जब दुख के बादल पिघलेंगे जब सुख का सागर झलकेगा

जब अम्बर झूम के नाचेगा जब धरती नगमे गाएगी


वो सुबह कभी तो आएगी

जिस सुबह की ख़ातिर जुग जुग से हम सब मर मर के जीते हैं

जिस सुबह के अमृत की धुन में हम ज़हर के प्याले पीते हैं

इन भूखी प्यासी रूहों पर इक दिन तो करम फ़रमाएगी


वो सुबह कभी तो आएगी


माना कि अभी तेरे मेरे अरमानों की क़ीमत कुछ भी नहीं

मिट्टी का भी है कुछ मोल मगर इन्सानों की क़ीमत कुछ भी नहीं

इन्सानों की इज्जत जब झूठे सिक्कों में न तोली जाएगी


वो सुबह कभी तो आएगी


दौलत के लिए जब औरत की इस्मत को ना बेचा जाएगा

चाहत को ना कुचला जाएगा, इज्जत को न बेचा जाएगा

अपनी काली करतूतों पर जब ये दुनिया शर्माएगी


वो सुबह कभी तो आएगी


बीतेंगे कभी तो दिन आख़िर ये भूख के और बेकारी के

टूटेंगे कभी तो बुत आख़िर दौलत की इजारादारी के

जब एक अनोखी दुनिया की बुनियाद उठाई जाएगी


वो सुबह कभी तो आएगी


मजबूर बुढ़ापा जब सूनी राहों की धूल न फांकेगा

मासूम लड़कपन जब गंदी गलियों में भीख न मांगेगा

हक़ मांगने वालों को जिस दिन सूली न दिखाई जाएगी


वो सुबह कभी तो आएगी


फ़आक़ों की चिताओ पर जिस दिन इन्सां न जलाए जाएंगे

सीने के दहकते दोज़ख में अरमां न जलाए जाएंगे

ये नरक से भी गंदी दुनिया, जब स्वर्ग बनाई जाएगी


वो सुबह कभी तो आएगी


जिस सुबह की ख़ातिर जुग जुग से हम सब मर मर के जीते

जिस सुबह के अमृत की धुन में हम ज़हर के प्याले पीते हैं

वो सुबह न आए आज मगर, वो सुबह कभी तो आएगी

वो सुबह न आए आज मगर, वो सुबह कभी तो आएगी


वो सुबह कभी तो आएगी

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