उर्दू
की आधुनिक शायरी में अहमद फ़राज़ ने अपनी सादा जबावी से अपनी इस बात को
पुख़्ता किया कि 'अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं, फ़राज़ अब ज़रा
लहज़ा बदल के देखते हैं'। उनकी ग़ज़ल बेहद मक़बूल हुई, जिसे ग़ुलाम अली और
हरिहरन जैसे कई नामचीन गायकों ने अपनी आवाज़ भी दी है।
रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ।
कौन आता है मगर आस लगाए रखना
उम्र भर दर्द की शमाओं को जलाए रखना। (शमा : लौ)
काफ़िर के दिल से आया हूं मैं ये देखकर
ख़ुदा मौजूद है वहां, पर उसे पता नहीं।
यूं ही मौसम की अदा देख के याद आया है
किस क़दर जल्द बदल जाते हैं इंसान जानां।
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें।
आंख से दूर न हो, दिल से उतर जाएगा
वक़्त का क्या है, गुज़रता है गुज़र जाएगा।
दोस्त बनकर भी नहीं साथ निभानेवाला
वही अंदाज़ है ज़ालिम का ज़मानेवाला।
शोला था जल बुझा हूं हवाएं मुझे न दो
मैं कब का जा चुका हूं सदाएं मुझे न दो। (सदा : आवाज़)
कितना आसां था तेरे हिज्र में मरना जाना
फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते-जाते। (हिज्र : जुदाई)
करूं न याद उसे मगर किस तरह भुलाऊं उसे
ग़ज़ल बहाना करूं और गुनगुनाऊं उसे।
ज़िन्दगी से यही गिला है मुझे
तू बहुत देर से मिला है मुझे।
ऐसे चुप हैं कि ये मंज़िल भी कड़ी हो जाए
तेरा मिलना भी जुदाई की घड़ी हो जाए।
बदन में आग-सी चेहरा गुलाब जैसा है
कि ज़हर-ए-ग़म का नशा भी शराब जैसा है।
'फ़राज़' अब कोई सौदा कोई जुनूं भी नहीं
मगर क़रार से दिन कट रहे हों, यूं भी नहीं।
हर तमाशाई फक़त साहिल से मंज़र देखता
कौन दरिया को उलटता कौन गौहर देखता। (फक़त : सिर्फ, गौहर : मोती)
इससे पहले कि बेवफ़ा हो जाएं
क्यों नहीं दोस्त हम जुदा हो जाएं।
ये क्या कि सब से बयां दिल की हालतें करनी
'फ़राज़' तुझको न आईं मुहब्बतें करनी।
तू पास भी हो तो दिल बेक़रार अपना है
कि हमको तेरा नहीं, इंतज़ार अपना है।
सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
यह बात है तो चलो बात करके देखते हैं।
साभार :नव भारत टाइम्स
जन्म : 12 जनवरी 1931
निधन : 25 अगस्त 2008रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ।
कौन आता है मगर आस लगाए रखना
उम्र भर दर्द की शमाओं को जलाए रखना। (शमा : लौ)
काफ़िर के दिल से आया हूं मैं ये देखकर
ख़ुदा मौजूद है वहां, पर उसे पता नहीं।
यूं ही मौसम की अदा देख के याद आया है
किस क़दर जल्द बदल जाते हैं इंसान जानां।
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें।
आंख से दूर न हो, दिल से उतर जाएगा
वक़्त का क्या है, गुज़रता है गुज़र जाएगा।
दोस्त बनकर भी नहीं साथ निभानेवाला
वही अंदाज़ है ज़ालिम का ज़मानेवाला।
शोला था जल बुझा हूं हवाएं मुझे न दो
मैं कब का जा चुका हूं सदाएं मुझे न दो। (सदा : आवाज़)
कितना आसां था तेरे हिज्र में मरना जाना
फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते-जाते। (हिज्र : जुदाई)
करूं न याद उसे मगर किस तरह भुलाऊं उसे
ग़ज़ल बहाना करूं और गुनगुनाऊं उसे।
ज़िन्दगी से यही गिला है मुझे
तू बहुत देर से मिला है मुझे।
ऐसे चुप हैं कि ये मंज़िल भी कड़ी हो जाए
तेरा मिलना भी जुदाई की घड़ी हो जाए।
बदन में आग-सी चेहरा गुलाब जैसा है
कि ज़हर-ए-ग़म का नशा भी शराब जैसा है।
'फ़राज़' अब कोई सौदा कोई जुनूं भी नहीं
मगर क़रार से दिन कट रहे हों, यूं भी नहीं।
हर तमाशाई फक़त साहिल से मंज़र देखता
कौन दरिया को उलटता कौन गौहर देखता। (फक़त : सिर्फ, गौहर : मोती)
इससे पहले कि बेवफ़ा हो जाएं
क्यों नहीं दोस्त हम जुदा हो जाएं।
ये क्या कि सब से बयां दिल की हालतें करनी
'फ़राज़' तुझको न आईं मुहब्बतें करनी।
तू पास भी हो तो दिल बेक़रार अपना है
कि हमको तेरा नहीं, इंतज़ार अपना है।
सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
यह बात है तो चलो बात करके देखते हैं।
साभार :नव भारत टाइम्स
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