Friday, 19 February 2010

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की अमृतसर पार्टी कांग्रेस

कामेरड अजय घोष द्वारा पार्टी संविधान में परिवर्तन के लिए अमृतसर में विशेष पार्टी महाधिवेशन बुलाया था जिसमें पार्टी ने घोषित किया था-

‘‘कम्युनिस्ट पार्टी शान्तिपूर्ण तरीकों से समाजवाद हासिल करने की कोशिश करेगी और समाजवादी भारत में सरकार का विरोध करने वालों को भी राजनीतिक संगठनों के अधिकार का उपयोग करने की स्वतंत्रता होगी यदि वे देश के संविधान के प्रति निष्ठा रखेंगे।’’ कामरेड घोष के जन्म शताब्दी वर्ष पर हमरे द्वारा प्रकाशित विभिन्न लेखकों द्वारा कामरेड घोष पर लिखे लेखों में इस तथ्य का उल्लेख है।
पार्टी के केन्द्रीय मुखपत्र ‘‘न्यू एज’’ के 1 8 मई 1958 के अंक में तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों के साथ-साथ पार्टी की लाईन पर विस्तार से कामरेड अजय घोष ने चर्चा की थी। अपने नये साथियों को किसी भी भ्रम का शिकार होने से बचाने तथा उन्हें मित्रतापूर्ण शास्त्रार्थ करने लायक बनाने के लिए हम उक्त लेख को उद्घृत करते हुए साथियों से अनुरोध करते हैं कि इसका बहुत ध्यानपूर्वक अध्ययन करें।
- कार्यकारी सम्पादक
अमृतसर में संपन्न हमारी पार्टी की विशेष  कांग्रेस ने लोगों का ध्यान बड़े पैमाने पर आकर्षित किया है। समाचार पत्रों ने उसकी कार्यवाहियों को प्रमुखता प्रदान की और उनके निर्णयों पर व्यापक पैमाने पर टीका-टिप्पणी हुई।
यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। चाहे कोई कम्युनिस्ट पार्टी से खुश हो या नाखुश, अब उसके प्रति उदासीन रहना किसी के लिए संभव नहीं है। कम्युनिस्ट पार्टी केरल में सरकार चला रही है, कम्युनिस्ट पार्टी संसद में और पश्चिम बंगाल तथा आन्ध्र प्रदेश के राज्यों में प्रमुख विरोधी दल के रुप में मौजूद है। वह मजदूर वर्ग की अकेली सबसे बड़ी शक्ति है। सर्वाेपरि, यही वह पार्टी है, जिसका प्रभाव बढ़ता जा रहा है और जिसे देश के सभी भागों के करोड़ो लोग भविष्य की पार्टी मानने लगे हैं।
अमृतसर कांग्रेस पर टीका-टिप्पणी
अमृतसर कांग्रेस के अवसर पर टाइम्स आॅफ इण्डिया ने, जिसने हमारे प्रति कभी भी अपने मैत्रीपूर्ण भावोद्गार व्यक्त नहीं किये होंगे, स्पष्टतः निराश होकर लिखाः
‘‘अपने अस्तित्व के पन्द्रह वर्षों के बाद कम्युनिस्ट पार्टी देश की एक बड़ी राजनीतिक शक्ति के रुप में प्रकट हुई है। ...चहे उसकी प्रामाणिक सदस्यता हो अथवा उसके आम समर्थन की बात हो, दोनों ही दिशाओं  में उसकी शक्ति में वृद्धि हुई है।’’
कांग्रेस पर विभिन्न रुपों में टिप्पणियां हुई हैं- कुछ मैत्रीपूर्ण, कुछ उतनी मैत्रीपूर्ण नहीं और कुछ स्पष्टतः शत्रुतापूर्ण। जिस चीज पर सबसे अधिक टिप्पणियां हुई हैं और जिन टिप्पणियों में जिज्ञासाएं तथा शंकाएं घुली-मिली हैं, वह है संविधान की प्रस्तावना की घोषणा, जिसमें कहा गया है कि कम्युनिस्ट पार्टी शांतिपूर्ण तरीकों से समाजवाद हासिल करने की कोशिश करेगी और समाजवादी भारत में सरकार का विरोध करने वालों को भी राजनीतिक संगठनों के अधिकारों का उपयोग करने की स्वतंत्रता होगी, यदि वे देश के संविधान के प्रति निष्ठा रखेंगे।
हमारे मित्रों ने इन घोषणाओं का स्वागत किया है। फिर भी हमारे विरोधियों-श्री ढेबर, श्री श्रीमन्न नारायण और निहित स्वार्थों के समाचार पत्रों तक- ने एक स्वर से यह राग अलापा है कि इन घोषणाओं पर विश्वास नहीं करना चाहिए, कम्युनिस्टों में ‘‘कोई परिवर्तन नहीं हुआ है’’ और इस लिए उन पर यकीन नहीं करना चाहिए।
यह सर्वविदित है कि इस तरह की चेतावनियां वे लोग दे रहे हैं, जो पिछले दस वर्षों से जनता से किये गये अपने सभी वायदे को तोड़ते आ रहे हैं। इससे सिद्ध होता है कि वे हमारी पार्टी की बढ़ती हुई लोकप्रियता से घबरा गये हैं। वे देखते हैं कि अब पहले की तरह कम्युनिज्म-विरोध के नाम पर जनता को बरगलाया नहीं जा सकता है। वे जनता को हम पर विश्वास करने से मना करते हैं; क्योंकि वे महसूस करते हैं कि अधिकाधिक लोग हम पर विश्वास करते हैं। इसलिए उनका उत्तेजानक उपदेश और कुछ नहीं बल्कि उनकी निराशा का ही अभिसूचक है।
न नैतिक विश्वास, न दावंपेंच बिल्क एक गंभीर नीति
अनेक लोगों द्वारा यह सवाल बार-बार पूछा जाता हैः क्या अब कम्युनिस्टों ने शांतिपूर्ण तरीकों को एक नैतिक विश्वास के रुप में अपनाया है अथवा एक दांवपेंच यानी कपट व्यापार के रुप में?
इस सवाल का हमारा साफ जवाब है: दोनों में से किसी भी रुप में नहीं। अहिंसा को एक नैतिक विश्वास के रुप में स्वीकार करने का मतलब तो यह हुआ कि हम यह मान लें कि समाजवाद के लिए संघर्ष के विकास की किसी भी स्थिति में और किसी भी स्तर पर सत्ताधारी वर्ग जनता के विशाल हिस्से की भावनाओं को रोकने के लिए हथियारों का उपयोग नहीं करेंगे और उनके द्वारा सभी परिस्थितियों में जनवादी परंपराओं का पालन तथा जनवादी निर्णयों का सम्मान किया जायगा। इस तरह  का दावा केवल वे लोग ही कर सकते हैं, जो पूंजीपतियों और भूस्वामियों की नेकननीयती में असीम विश्वास करते हैं।
जहां तक शांतिपूण्ज्र्ञ तरीकों को मात्र एक ‘‘दांवपेंच’’ के रुप में स्वीकार करने की बात है, तो इस संबंध में सबको मालूम है कि हमारी पार्टी ऐसी नहीं है, जो कहती कुछ है और उसका मतलब कुछ और ही होता है। कम्युनिस्टों ने अपने विचारों को साफ-साफ शब्दों में व्यक्त करने में कभी भी हिचकिचाहट नहीं दिखलायी है।
फिर स्थिति क्या है?
क्या हमारी राय है कि चूंकि शासक वर्गों ने कभी भी शांतिपूर्ण ढंग से आत्मसमर्पण नहीं किया है इसलिए हिंसा और गृहयुद्ध अनिवार्य है।
बात यह नहीं है। हम समझते हैं कि मौजूदा ऐतिहासिक परिस्थितियों में अनेक देशों में शांतिपूर्ण ढंग से समाजवाद हासिल करने और जनता पर गृह युद्ध लादने की शासक वर्गों की कोशिशों को नाकाम करने की संभावना मौजूद है। इस बात की संभावना मौजूद है कि जो पार्टियां और जो तत्व समाजवाद के समर्थक हैं, वे संसद में बहुमत हासिल कर सकें और जनता की कार्रवाइयों के जरिये प्रतिक्रिया के प्रतिरोध को दबा सकें। ऐसी हालत में हम अपने देश में इस संभावना को यथार्थ में बदलने की पूरी कोशिश करेेंगे।
दूसरे शब्दों में हमारे लिए शांतिपूर्ण तरीके न नैतिक विश्वास हैं और न दांवपेंच हैं, बल्कि हमारे लिए ये एक नीति है-गंभीर अर्थ व्यक्त करने वाली नीति।
जनवाद पर कौन अमल करता है?
जहां तक इस आरोप का सवाल है कि कम्युनिस्ट ‘‘सर्वसत्तावादी’’ होते हैं और सत्ता मिल जाने पर वे जनवाद को छिन्न-भिन्न कर देंगे, इसका खंडन करने के लिए हमें बहुत दूर जाने की जरुरत नहीं है। हमारे देश में हाल के तर्जुबों ने सिद्ध कर दिया है कि कौन जनवाद का केवल जप करता है और कौन उस पर अमल करता है। अभी कुछ ही सप्ताह पहले की बात है केरल में कम्युनिस्टों द्वारा संचालित मंत्रिमंडल को विधान सभा में केवल एक वोट के बहुमत पर भरोसा करना पड़ा था। फिर भी उसने विरोधी पार्टियों को पूर्ण जनवादी अधिकार प्रदान करने में कभी आगा-पीछा नहीं किया। दूसरी तरफ  उड़ीसा में कांग्रेसी सरकार को जब यह पता चल गया कि उसका संदिग्ध बहुमत क्षीण होता जा रहा है, तो राज्य विधान सभा के कुछ विरोधी सदस्यों को जेल में बंद करने में उसे तनिक भी हिचकिचाहट नहीं हुई, जिसमें उसका शासन कायम रह सके।
जिन राज्यों में कांग्रेसी मंत्रिमंडलों की हुकूमतें हैं, वहां उपचुनावों में सत्ताधारी दल की विजय सुनिश्चित करने के लिए प्रशासनिक यंत्रों का खुलकर इस्तेमाल किया जाता है। दूसरी तरफ, केरल में जहां देवीकुलम का बहुत ही निर्णायक उपचुनाव होने जा रहा है, राज्य कम्युनिस्ट पार्टी ने यह निर्णय किया है कि चुनाव-अभियान में एक भी मंत्री भाग नहीं लेगा।
जन-सत्ता के बिना समाजवाद संभव नहीं
श्री श्रीमन्न नारायण जैसे कुछ नेक आदमियों के लिए ये सभी बातें निरर्थक हैं। उनकी मांग यह है कि यदि हम शांतिपूर्ण तरीकों और जनवाद को गंभीरतापूर्वक स्वीकार करते हैं, तो इस बात को ‘‘सिद्ध’’ करने के लिए हमें माक्र्सवाद-लेनिनवाद को अवश्य ही तिलांजलि दे देनी चाहिए।
इस मांग का मतलब क्या है? इसका मतलब यह है कि हम उस दर्शन का परित्याग कर दें, जिसने हमारी पार्टी को वर्तमान स्थिति अर्जित करने के योग्य बनाया है। इसका मतलब है कि हम कम्युनिस्ट न रह जायें और सर्वोदय के प्रति अपने विश्वास की घोषणा कर दें।
 माक्र्सवाद-लेनिनवाद की बुनियादी शिक्षाओं में से एक शिक्षा यह है कि केवल क्रांति द्वारा ही समाजवाद की स्थापना की जा सकती है अर्थात मजदूर वर्ग के नेतृत्व में मेहनतकश लोगों द्वारा सत्ता पर विजय प्राप्त की जा सकती है। पिछले दस वर्षों के दौर में हमारे देश की जनता ने इस शिक्षा को आत्मसात कर लिया है कि पूंजीपति और भूस्वामी समाजवाद की स्थापना नहीं कर सकते हैं और जब तक मेहनतकश जनता राज्यसत्ता पर अधिकार न कर ले तब तक समाजवाद की स्थापना संभव नहीं है। माक्र्सवाद-लेनिनवाद से दूर रहने का अर्थ है, समाजवाद से ही दूर रहना।
सर्वहारा वर्ग की अन्तर्राष्ट्रीयता
हमारे कुछ आलोचकों ने हाय-तौबा मचायी है कि हमने सर्वहारा वर्ग की अन्तर्राष्ट्रीयता पर फिर जोर क्यों दिया है। वे हमसे कहते हैंः ‘‘यह तुम्हारी विदेश-भक्ति को उजागर करती है।’’
लेकिन वास्तविकता क्या है? कोई भी कम्युनिस्ट पार्टी किसी दूसरे देश की पार्टी के मामलों में दखल देना नहीं चाहती है। हर कम्युनिस्ट पार्टी इस अर्थ में सार्वभौम और स्वतंत्र है कि वह अपने देश की परिस्थिति की अपनी समझदारी के आधार पर अपनी संघर्ष-नीति निर्धारित करती है। इसके साथ ही कोई सच्चा कम्युनिस्ट तथाकथित ‘‘राष्ट्रीय कम्युनिज्म’’ की नीति को स्वीकार नहीं कर सकता है।
सभी देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों को जो सूत्र आबद्ध किये हुए है, उसमें रहस्य की कोई बात नहीं हैं। हम कम्युनिस्टों की एक समान विचारधारा हैः माक्र्सवाद-लेनिनवाद। हमारा एक समान लक्ष्य हैः समाजवाद और कम्युनिज्म की स्थापना। हमारे अनेक समान कर्तव्य हैः शांति की रक्षा, सभी लोगों की आजादी और समाजवादी उपलब्धियों की हिफाजत। समान विचारधारा, सामन लक्ष्य, अनेक समान कर्तव्य-इन सारी चीजों से ही अन्तर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन की एकता की आधार-शिला तैयार होती है। इसलिए यह कोई अचरज की बात नहीं है कि सभी देशों के कम्युनिस्ट बिरादराना सहयोग के संबंध स्थापित करते हैं और वे एक-दूसरे के अनुभवों में शिक्षा ग्रहण करते हैं।
हम सर्वहारा वर्ग की अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना और विचार को एक बहुमूल्य निधि समझते हैं, जिसे कम्युनिस्ट आन्दोलन ने मानवजाति को प्रदान किया।
यह कोई साधारण बात नहीं है। उदाहरण स्वरुप जब फ्रांस की सभी पार्टियां अल्जीरियाई देशभक्तों के दमन की मांग कर रही हैं, तब फ्रंास की कम्युनिस्ट पार्टी ही एकमात्र ऐसी पार्टी है, जो अल्जीरिया के स्वीधीनता संग्राम का साहस और निर्भीकता के साथ समर्थन कर रही है। अपने इस आचरण के द्वारा फ्रांस के कम्युनिस्ट अपनी ‘‘विदेश भक्ति’’ व्यक्त नहीं करते हैं वे अपने को फ्रांस की जनता के सबसे अच्छे पुत्रों, पुत्रियों, सच्चे देशभक्तों और ईमानदार अन्तर्राष्ट्रीयवादियों के रुप में उपस्थित करते हैं। यह बात हर कम्युनिस्ट पार्टी के लिए सच है।
इसलिए हमारे निन्दक चाहे कुछ भी कहें, हम सर्वहारा वर्ग की अन्तर्राष्ट्रीयता का परित्याग करने नहीं जा रहे हैं। इसके विपरीत हम इसे लगातार मजबूत करने की कोशिश करेंगे।
प्रस्तावना के अतिरिक्त, हमारा पार्टी-विधान पार्टी के सभी स्तरों पर हुए व्यापक विचार-विमर्शो से उद्भूत हुआ है और उसे कांग्रेस ने स्वीकार किया है। उसने पार्टी के ढांचे और नियमों में महत्वपूर्ण परिवर्तन किये हैं। ये परिवर्तन सभी स्तरों पर पार्टी के नेतृत्व को व्यापक बनाने, पार्टी के अंदरुनी जनवाद और केन्द्रीयता को सुदृढ़ करने तथा पार्टी को जन-पार्टी के रुप में आसानी से विकसित करने की दृष्टि से किये गये हैं।
संविधान के एक-एक शब्द और उसकी चेतना के प्रति निष्ठा व्यक्त करने से पार्टी की एकता को सुदृढ़ करने तथा उसके प्रभाव को विकसित करने में अवश्य की भरपूर मदद मिलेगी। वह हमारे संगठन की कमियों और कमजोरियों को दूर करने वाला एक शक्तिशाली हथियार है।
हमारे राष्ट्रीय कर्तव्य
लेकिन एक जन-पार्टी के विकास के लिए एक अच्दा-सा संविधान ही काफी नहीं है। जरुरत इस बात की भी है कि हम अपने राजनीतिक कर्तव्यों के स्वरुप की सही समझदारी प्राप्त करें।
संविधान की प्रस्तावना में पार्टी के लक्ष्य के रुप में समाजवाद और कम्युनिज्म की सिद्धि का निरुपण किया गया है। उसमें यह भी निरुपित किया गया है किः
‘‘इन उद्देश्यों को आगे बढ़ाने के लिए और हमारी जनता के सम्मुख उपस्थित तात्कालिक कत्र्तव्यों पर विचार करते हुए भारत की कम्युनिस्ट पार्टी राष्ट्रीय स्वाधीनता की रक्षा और उसे सुदृढ़ीकरण के संघर्ष में देश की सभी राष्ट्रप्रेमी और जनवादी शक्तियों को एकताबद्ध करने तथा उनका नेतृत्व करने का प्रयास करती है और इस सिलसिले में वह इजारेदारी पूंजी की शक्ति को खत्म करना, विदेशी पूंजी के शिकंजे को हटाना, राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करना, जनवाद का सर्वतोमुखी विकास करना, सामंती अवशेषों और आर्थिक, सांस्कृतिक और सामाजिक क्षेत्रों मे विदेशी शासन के बुरे प्रभावों का उन्मूलन करना चाहती है।’’
ये यथार्थ राष्ट्रीय कर्तव्य है। इसलिए इनके आधार पर ही व्यापकतम जन-एकता और सच्ची राष्ट्रीय एकता स्थापित की जा सकती है।
लोकप्रिय एकता का आधार
अंगे्रजी शासन के दिनों में हमारी जनता की आकांक्षा थी स्वाधीनता, और वह भारत पर अधिकार जमाने वाली अंग्रेजी फौज को भगाना चाहती थी। इसलिए हमने अंतिम नारा बुलंद कियाः भारत छोड़ो। इस नारे ने व्यापकतम लोकप्रिय एकता का रुप निर्मित किया।
स्वाधीनता-प्राप्ति के बाद जनता अपनी कठिन त्याग-तपस्या से अर्जित स्वाधीनता को सुदृढ़ करना चाहती है। जनता चाहती है कि राष्ट्रों के समूह में भारत गौरव और सम्मान का स्थान प्राप्त करें। जनता चाहती है कि राष्ट्रीय पुननिर्माण के कार्य तेजी से आगे बढ़ाये जायें और उसके मार्ग की सभी बाधाएं दूर कर दी जायें। समाजवाद के विचारों की बढ़ती हुई लोकप्रियता जनता की इस विकसित चेतना को प्रतिबिंबित करती है कि मूलगामी सुधारों के आधार पर ही बहुमुखी राष्ट्रीय प्रगति संभव है।
सच्ची राष्ट्रीय एकता केवल उन नीतियों के आधार पर ही निर्मित हो सकती है, जो इन राष्ट्रीय आकांक्षाओं को प्रकट करती हों।
भारत की वर्तमान विदेश नीति को जनता के विशाल बहुमत का समर्थन प्राप्त है, और वह जनता को सूत्रबद्ध में इसलिए समर्थ हैै कि वह हमारे राष्ट्रीय हितों के अनुकूल है। हमारी शांति-नीति, उपनिवेशवाद की हमारी भत्र्सना, उन युद्ध-समझौतांेे का हमारा विराध जो हमारे देश की संप्रभुता और स्वतंत्रता के लिए खतरा पैदा करते हैं, एशिया और अफ्रीका के जनगणों के साथ हमारी एकजुटता- इन सारी बातों का अभिनंदन हमारी जनता करती है। समाजवादी विश्व के देशों के साथ अपनी मैत्री को सुदृढ़ करने और उनके साथ आर्थिक सहयोग के संबंध स्थापित करने के हमारे  प्रयासों को सभी देशानुरागी तत्वों का इतना व्यापक समर्थन इसलिए मिल रहा है, क्योंकि उनसे हमें अपनी आजादी को सुदृढ़ करने और अपनी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को विकसित करने में मदद मिलती है।
इसमें संदेह की तनिक भी गंुजाइश नहीं है कि जब तक हमारी विदेश नीति राष्ट्रीय आकांक्षाओं को व्यक्त करती रहेगी और हमारे हितों की पूर्ति करती रहेगी तब तक उस नीति के पीछे राष्ट्रीय एकता बनी रहेगी।
वैमनस्य और फूट के लिए जिम्मेदार कौन?
इस बात पर ध्यान देना जरुरी है कि कुछ अंदरुनी मसलों पर भी एक व्यापक जन-एकता प्रायः अपने आप खड़ी होती जाती है। जब जीवन-बीमा का राष्ट्रीयकरण किया गया, जब संविधान में इस आशय का संशोधन किया गया कि मुआवजे के संबंध में विधान-सभाएं ही अंतिम फैसला करेंगी और जब दूसरी पंचवर्षीय येाजना के लक्ष्य और उद्देश्य निर्धारित किये गये, तब उन मसलों पर लगभग राष्ट्रीय पैमाने पर मतैक्य था।
इन सभी बातों से सिद्ध होता है कि केवल राष्ट्रीय नीतियों से ही राष्ट्रीय एकता स्थापित की जा सकती है। उन नीतियों के आधार पर राष्ट्रीय एकता संभव नहीं है, जो राष्ट्रीय कत्र्तव्यों को पूरा करने में रुकावट डालती हैं। आज यदि श्री नहेरु के जोशीले उद्गारों के बाद भी देश में एकता का अभाव है, तो इसका कारण स्वयं सरकार की उन नीतियों में ढूंढ़ा जा सकता है, जो मूलत  जन-विरोधी और अजनतांत्रिक है तथा जो राष्ट्रीय आकांक्षाओं और राष्ट्रीय मंागों को व्यक्त करने मे सक्षम नहीं हंै।
इसलिए इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि सरकार की उन नीतियों के विरोध में डट कर संघर्ष किये बिना जन-एकता स्थापित नहीं की जा सकती है, जो राष्ट्रीय एकता को पूरा करने में बाधक हैं। जो लोग हम पर आरोप लगाते हैं कि हम देश में वैमनस्य और फूट फैलाने के लिए जिम्मेदार हैं, वे इस सच्चाई को छिपाना चाहते है और जनता को इस तरह के संघर्ष से दूर रखना चाहते हैं।
सही नीतियों के लिए संघर्ष
विधान की प्रस्तावना में हमारी क्रांति के वर्तमान चरण में पार्टी के आम कत्र्तव्यों के बारे में जो समझदारी दी गयी है, उसे विशेष कांग्रेस में स्वीकृत राजनीतिक प्रस्ताव में ठोस रुप प्रदान करने का प्रयास किया गया है।
बिल्कुल प्रारंभ में ही यह बता देना आवश्यक है कि इस प्रस्ताव में ऐसी कोई कार्यनीति नहीं निर्धारित की गयी है, जो दो साल पहले की पालघाट कांग्रेस में पार्टी द्वारा स्वीकृत नीति से भिन्न हो। जीवन ने उस नीति को सही सिद्ध कर दिया है। वस्तुस्थिति यह है कि परिस्थिति के मूल रुप, सरकार की बुनियादी नीतियां और पार्टी के बुनियादी कर्तव्य तथा भूमिका अब भी वही हैं जो पालघाट के समय थे,इसलिए हम किसी भी महत्वपूर्ण स्थिति में उस नीति से अलग हटना नहीं चाहते हैं।
उदाहरणस्वरुप पालघाट और उसके बाद की अवधि में हमने सही नीतियों और जनता के तात्कालिक हितों की रक्षा के लिए संघर्ष के महत्व पर सबसे ज्यादा जोर दिया। वह कर्तव्य आज भी केवल मौजूद नहीं है, बल्कि उसका महत्व और भी बढ़ गया है। सरकार जिन अनेक नीतियों का अनुसरण कर रही है, जिन नीतियों के परिाणामों के विरुद्ध पालघाट ने चेतावनी दी थी, उन नीतियों ने योजना के लक्ष्यों को ही केवल खतरे में नहीं डाल दिया है बल्कि जनता पर मुसीबतों का पहाड़ ढा दिया है। इसलिए यह कोई अचरज की बात नहीं है कि जनता की उग्रवादी भावना, बढ़ते हुए गहरे असंतोषों, संघर्षों और सत्ता पर कांग्रेस के एकाधिकार को और कमजोर करने की इच्छा के रुप में व्यक्त होने लगी है।
यह तथ्य है कि केरल राज्य में कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि सरकारी की जन-विरोधी नीतियों और कदमों तथा उनके दृढ़ प्रतिरोध का महत्व अब समाप्त हो गया है। इसके विपरीत, इस संघर्ष को चलाने के लिए, हमारी पार्टी द्वारा प्रस्तुत सही वैकल्पिक नीतियों को प्रदर्शित करने के लिए, राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के हितों की दृष्टि से उनके आधार पर जनता को सूत्रबद्ध करने के लिए, संपूर्ण देश में परिवर्तन की प्रक्रियाओं को आगे बढ़ाने के लिए और राष्ट्रीय स्तर पर प्रगतिशील नीतियों के संघर्ष को सुदृढ़ करने के लिए स्वयं केरल सरकार हमारे लिए एक हथियार का काम करती है।
हम सभी जनवादी शक्तियों के साथ मिलकर केरल की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए और जहां भी संभव हो लोकप्रिय जनवादी सरकारों की स्थापना कर कांग्रेस की एकाधिकारी सत्ता में और अधिक दरारें पैदा करने के लिए प्रयत्नशील हंै और आगे भी प्रयत्न करते रहेंगे। इसमें तनिक भी संदेह की गुंजाइश नहीं है कि इस संघर्ष में मिलने वाली हर कामयाबी से कांग्रेस के भीतर और बाहर,, दोनों ही जगह हमारे राष्ट्रीय-राजनीतिक जीवन में जनवाद और समाजवाद की शक्तियां मजबूत होंगी तथा उन नीतियों की विजय का मार्ग सरल हो जाएगा, जिनके आधार पर सही जन-एकता स्थापित की जा सकती है और सम्पूर्ण देश को आगे ले जाया जा सकता है।
जबकि पालघाट में निर्धारित की गयी पार्टी की बुनियादी नीति आज भी तर्क की कसौटी पर खरी उतर रही है, इसलिए यह सोचना गलत होगा कि पिछले दो वर्षों में कोई भी परिवर्तन नहीं हुआ है। परिवर्तन हुए है और अमृतसर में स्वीकृत नये राजनीतिक प्रस्ताव में इन परिवर्तनों पर गौर किया गया है और उसमें पालघाट की समझदारी को आगे बढ़ाया गया है तथा कुछ पुराने कर्तव्यों को रेखांकित करते हुए कई नये कर्तव्यों को सूत्रबद्ध किया गया है।
शांति-आंदोलन को तेज करो
शांति की शक्तियों द्वारा अर्जित महान विजयों और अफ्रो-एशियाई एक-जुटता के विकास पर जोर देते हुए तथा इन्हें एक ऐसा शक्तिशाली कारक मानते हुए, जो साम्राज्यवादी व्यवस्था के संकट को गहरा करते हैं, प्रस्ताव में पार्टी का ध्यान स्पष्ट रुप से इस तरफ  आकर्षित किया गया है कि हमने शांति के संघर्ष की उपेक्षा की है।
हमें स्पष्ट रुप से यह स्वीकार करना चाहिए कि हमारी पार्टी में युद्ध के खतरे को कम करके आंका जाता है और हममें यह प्रवृत्ति जग गयी है कि साम्रज्यवाद को एकदम भुला दिया जाय। हम अंदरुनी मसलों में इतने तल्लीन हैं कि हम अपने आन्दोलनों और प्रचारों में साम्राज्यवादी खतरे का शायद ही उल्लेख करते हैं। खुद केन्द्रीय समिति के सदस्यों ने इस संबंध में गलत मिसालें पेश की है; क्योंकि वे राज्यों में चलने वाले आंदोलनों में, ऐसे मसलों पर जिन पर व्यापक एकता मौजूद है, जैसे कैरो सम्मेलन, नाभिकीय युद्ध का खतरा, अल्जीरिया का युद्ध, इण्डोनेशियाई संकट आदि को महत्व नहीं देते हैं।
हममें यह रुझान पैदा हो गया है कि हम अपनी नीति को अटल मान बैठे हैं। उसमें जो कमियां दिखलायाी देती हैं, उनकी हम उपेक्षा करते हैं और जो लोग उसमें सुधार तथा परिवर्तन चाहते हैं, उनके कार्यों को हम बहुत ही कम महत्व देते हैं। हम उन निम्न पूंजीवादी वामपंथी पार्टियों से अपने को अलग करने में असफल रहे हैं, जो शांति के संघर्ष का मजाक उड़ाती हैं। हममें इस बात की बहुत ही कम समझदारी है कि विदेश-नीति का सुदृढ़ करने और आगे बढ़ने के लिए जन-कार्रवाइयां बहुत आवश्यक हैं।
सभी पार्टी इकाइयों को इस ओर आवश्य ही ध्यान देना चाहिए कि इन रुझानों के खिलाफ लड़ा जाय और पार्टी आज के बहुत ही निर्णायक संघर्ष में अपनी उचित भूमिका निर्वाह करे; क्योंकि इसी संघर्ष की सफलता पर हमारी नियति के साथ ही आम जनता की नियति भी निर्भर है।
नयी परिस्थिति की विशेषताएं
पहली विशेषता यह है कि हमारे देश के अन्दर पालघाट के बाद बहुत सी बातें हुई हैं, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण यह है जनता की चेतना में उग्रता और जुझारुपन का उभार हुआ है। हमारी पार्टी की गति में प्रखरता इसकी स्पष्ट अभिव्यक्ति है। हमारे देश के इतिहास में ऐसी बात पहले कभी नहीं हुई थी। लोग अधिकाधिक संख्या में हमारी पार्टी की ओर आकृष्ट हो रहे हैं और यह बात केरल, आंध्र और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में ही नहीं, जहां पार्टी पहले ही मजबूत है, बल्कि उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में भी हो रही है। मजदूर वर्ग पहले से भी अधिक एकताबद्ध, पहले से भी अच्छी तरह संगठित हो रहा है और उसने अपनी अनेक मांगे हासिल की हैं।
दूसरी विशेषता यह है कि कांग्रेस का प्रभाव क्षीण हो रहा है और वह गहरे संकट में फंसी हुई है। इसे कांग्रेस के प्रागज्योतिषपुर अधिवेशन में जनता की बहुत कम दिलचस्पी में, उत्तर प्रदेश में श्री सी.बी गुप्त की जबर्दस्त हार में और सर्वोपरि हर प्रदेश कांगेस कमेटी के अंदरुनी झगड़ों में देखा जा सकता है। संकट इतना गहरा हो गया है कि वह कांग्रेसजनों और अन्य लोगों के बीच में आम चर्चा का विषय बन गयी है।
हाल में ही पंडित नेहरु ने कहा कि कोई बात ‘‘बेसुरी’’ हो गयी है। लेकिन वे जो बात कहने में असमर्थ हैं, वह यह है कि कांग्रेस का सुर जनता से नहीं मिलता है। कांग्रेस आम जनता की भावनाओं और आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करने में अधिकाधिक विफल हो रही हैं। इसलिए स्वाभाविक है कि जब कोई पार्टी जनता से साथ कदम-से-कदम मिलाकर नहीं चल पाती, तब पद-लोलुपता की भावना और बढ़ जाती है और उसका विघटन शुरु हो जाता है।
कांग्रेस का मौजूदा संकट कोई मामूली संकट नहीं है। यह संकट निहित स्वार्थो की ताबेदारी करने से पैदा हुआ है और इसे लंबी-चैड़ी हांकने अथवा अनुशासन की महत्ता का उपदेश देने से दूर नहीं किया जा सकता है। पंडित  नेहरु ने हाल में ही अपना त्यागपत्र- हालांकि वह अस्थायी था- देने की जो घोषणा की थी और बाद में उन्होंने जिसे वापस ले लिया, वह गहरे संकट का सूचक है।
तीसरी विशेषता के संबंध में यह लक्षित करना भी जरुरी है कि केवल वामपंथी और जनवादी पार्टियां ही आगे नहीं बढ़ रही है। एक चिंताजनक पहलू यह है कि जहां अभी  तक हमारी पार्टी और वामपंथी शक्तियां सुदृढ़ जनशक्ति का रुप धारण नहीं कर पायी हैं, वहां साम्प्रदायिक और पृथकतावादी शक्तियां मजबूत होती जा रही है। कांग्रेस की हृासोन्मुख स्थिति के कारण जो राजनीतिक और सैद्धांतिक रिक्तता दिखलायी पड़ रही है, उसका अनेक क्षेत्रों में गणतंत्र परिषद, द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम, अकाली दल और जनसंघ जैसी पार्टियां अपनी स्थिति मजबूत करने और जन-असन्तोष को विघटनकारी तथा प्रतिक्रियावादी दिशा की ओर मोड़ने के लिए इस्तेमाल कर रही है।
चैथी विशेषता यह है कि राजनीतिक मंच पर योजना का संकट हावी हो गया है-यह संकट पूंजीवादी नीतियों के संकट का सार है।
पांचवी विशेषता यह है कि इस संकट ने हमारे देश में घोर प्रतिक्रियावदी तत्वों को, जिनमें से कुछ का साम्राज्यवादियों से सीधा संबंध है, योजना के प्रगतिशील पहलुओ पर हमला करने का मौका दे दिया है।
 यह इस अवधि की सबसे कुत्सित और खतरनाक बात है, जिसको किसी प्रकार कम करके आंकना जनवादी आन्दोलन के लिए घातक होगा। इसीलिए राजनीतिक प्रस्ताव में कुछ विस्तार के साथ इसकी समीक्षा की गयी है। उसमें कहा गया है:
‘‘ये लोग आज भी भारतीय और विदेशी दोनों ही प्रकार के इजारेदारों के लिए भारी रिआयतों की मांग करते  हुए सार्वजनिक क्षेत्र पर दूषित हमले कर रहे हैं। ये विदेशी पूंजी, खासकर अमेरिकी पूंजी, के प्रवेश के लिए बिल्कुल खुली नीति अपनाने की वकालत करते हैं और सोवियत संघ तथा समाजवादी देशों के साथ किये जाने वाले व्यापार को खत्म करने की कोशिश करते हैं। ये योजना के अन्तर्गत उठाये गये सामाजिक सेवा के कामों में कटौती की मांग करते हैं और साथ ही सरकार पर दबाव डालते हैं कि वह अपनी कर-सबंधी तथा आर्थिक नीतियों में परिवर्तन करे, जो उनके लिए लाभदायक हो और आम जनता के लिए नुकसानदेह। ये अपने हितों के अनुकूल मौजूदा श्रम-कानूनों में सुधार की मांग करते हैं। ये लोग मूलगामी भूमि-सुधारों का खुलेआम विरोध करते हैं।
‘‘दूसरी पंचवर्षीय योजना के वर्तमान संकट का, जो सरकार की नीतियों और तौर-तरीकों की देन है, लाभ उठाकर ये प्रतिक्रियावादी तत्तव न केवल योजना के अच्छे मुद्दों को ही  खत्म कर देना चाहते हैं, बल्कि अपनी स्थिति भी सुदृढ़ करना चाहते हैं और राष्ट्र-विरोधी तथा जनवाद-विरोधी दिशा में देश के राजनीतिक और आर्थिक जीवन को मोड़ देना चाहते हैं।...’’
प्रस्ताव में आगे कहा गया हैः
‘‘इन शक्तियों की राष्ट्र-विरोधी दिशा को भूतपूर्व वित्तमंत्री टी.टी. कृष्णमाचारी के बयानों और कार्यों तथा बिड़ला मिशन की रिपोर्ट, भारतीय उद्योग-व्यापार-मंडल के महासंघ के हाल के प्रस्ताव में देखा जा सकता हैं। उनके द्वारा प्रचारित नीति से राष्ट्र और उसके भविष्य के सम्मुख खतरा पैदा होता है। उससे हमारा देश विदेशी साम्राज्यवादियों और देशी इजारेदारों का मोहताज हो जायगा, जनता के दुःख और संकट बढ़ जायेंगे तथा जनवादी अधिकारों और सुविधाओं के दमन का मार्ग प्रशस्त्र हो जायगा। इस प्रकार वे भारतीय इतिहास के पहिये को पीछे ले जाने का प्रयास कर रहे हैं।
‘‘हमारे आर्थिक जीवन  में इन प्रतिक्रियावदी शक्तियों ने अपनी स्थिति बहुत ही मजबूत कर ली है। उनके शक्तिशाली समथ्रक और प्रतिनिधि न केवल कांग्रेस-नेतृत्व और कांग्रेस सरकार के अन्दर बल्कि बाहर भी हैं। सभी क्षेत्रों में अनेक बड़े-बड़े अधिकारियों के साथ उनके घनिष्ट संपर्क है। देश के अनेक सबसे बड़े समाचारपत्रों को वे नियंत्रित करते हैं। इसलिए उनके अनर्थ की क्षमता को कम करके नहीं आंकना चाहिए।’’
छठी विशेषता यह है कि इन सभी बातों के परिणामस्वरूप कांग्र्रेस के अंदरुनी झगड़े काफी बढ़े हैं और ये झगड़े केवल पदों की छीना-झपटी को लेकर ही नहीं, बल्कि नीतियों को लेकर भी हैं। कांग्रेस के भीतर के जनवादी तत्व और उनके अनुयायी पहले से अधिक मुखर और दुराग्रही हो गये हैं।
सातवीं विशेषता है कि इस पृष्ठभूमि में केरल और भी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर रहा है। सभी राज्यों के करोड़ों लोग केरल सरकार द्वारा उठाये गये कदमों को सहानुभूतिपूर्वक देख रहे हैं।
इस जटिल और तेजी से विकसित स्थिति में कम्युुनिस्ट पार्टी किस प्रकार काम करे, ताकि वह जनवादि शक्तियों के संयोजक और अग्रदूत की भूमिका का पूरी तरह निर्वाह कर सके?
योजना के प्रति हमारा दृष्टिकोण
हमारी पार्टी और सम्पूर्ण देश के सम्मुख आज यह तात्कालिक कर्तव्य है कि योजना के ध्येयों और लक्ष्यों को पूरा करने के लिए संघर्ष किया जाय।
कुछ ऐसे लोग हैं, जो कहते हैं कि हमारी पार्टी योजना को विफल कर देना चाहती है, ताकि सरकार बदनाम हो जाय। यह दुष्टतापूर्ण प्रचार उसी तरह की मूर्खतापूर्ण बात है कि कम्युनिस्ट क्रांन्ति के प्रवर्तन के लिए युद्ध चाहते हैं।
हम जानते हैं और हम कई बार कह चुके हैं कि योजना को पर्याप्त मान लेना ठीक नहीं है। हम बिल्कुल ही इस भ्रम में नहीं हैं कि योजना हमें सामजवाद की ओर ले जायगी। फिर भी हम यह भी जानते हैं कि योजना के उद्देश्यों और लक्ष्यों की पूर्ति से राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था और राष्ट्रीय स्वतंत्रता सुदृढ़ होगी तथा यदि योजना विफल हो जाती  है, तो उसका अर्थ होगा कि जनता की मुसीबतें घनीभूत हो जायंेगी।
इसलिए हम गम्भीरतापूर्वक यह बात कहते हैं कि हम योजना के उन सभी लक्ष्यों को पूरा करना चाहते हैं, जो जनता के हितों के अनुकूल है। हम इस मत का समर्थन नहीं करते हैं कि चूंकि यह योजना एक पूंजीवादी सरकार की देन है, इसलिए हमें तथा मजदूरों और किसानों को इस बात की चिंता नहीं है कि यह योजना सफल होती है या नहीं।
हमारे किसान खाद्यान्नों का उत्पादन बढ़ाने के लिए आज और अभी हर सम्भव उपाय करेंगे और कृषि-सुधारों के संघर्ष को तेज भी करते जायेंगे।
मजदूर वर्ग अपनी तात्कालीक मांगों के लिए लड़ते हुए अपने हितों में तथा राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के हितों में चाहता है कि फैक्टरी में उत्पादन बढ़े, राष्ट्रीयकरण का विस्तार हो और जिन उद्योगों का राष्ट्रीयकरण हो चुका है उनका संचालन कुशलता के साथ और अनुकरणीय ढंग से किया जाय।
देश केे सभी भागों के लोग और अधिक फैक्टरियां और अधिक कर्मशालाएं, सिंचाई की अच्छी-से-अच्छी सुविधाएं और अधिक अस्पताल, स्कूल पुस्तकालय आदि चाहते हैं।
जन-हस्तक्षेप की आवश्यकता
मगर ये सारी बातें अपने आप अथवा सरकार के वायदों पर भरोसा करने से पूरी नहीं हो जायेगी। जब तक राष्ट्रव्यापी पैमाने पर जन-हस्तक्षेप नहीं होगा, तब तक योजना के लक्ष्य और उद्देश्य पूरे नहीं होंगे।
जनता को कांग्रेस के अन्दर और बाहर के उन घोर प्रतिक्रियावादी तत्वों के विरुद्ध संघर्ष करना पड़ेगा, जो योजना के लक्ष्यों में कटौती चाहते हैं, जो विदेशी पूंजी को अपमानजनक रिआयतें देने की खुलेआम वकालत करते हैं, जो राजकीय क्षेत्र के विस्तार का विरोध करते हैं, जो कृषि-सुधारों को विफल करना चाहते हैं और जो प्रचार करते हैं कि हमारी विदेश नीति में ‘‘हेरफेर’’ कर विदेशी पूंजी के लिए ‘‘अनुकूल वातावरण’’ पैदा किया जाय।
हम इन शक्तियों,सरकार में और बाहर उनके मित्रों और प्रतिनिधियों का देश के दुश्मनों के रुप में पर्दाफाश करेंगे और इनसे संघर्ष करेंगे। इनकी सफलता हमारे देश की स्वतंत्रता को अवरुद्ध करेगी और जनतंत्र को क्षति पहुंचायगी इसलिए हम इन्हें कोई मौका नहीं देंगे। इन राष्ट्र-विरोधी ताकतों को हर कीमत पर नीचा दिखाना है और भारत की चिर इच्छित नियति की ओर मार्च करते हुए इसे पराजित करना है।
लेकिन ये संघर्ष सफलतापूर्वक नहीं चलाये जा सकते; यदि हम यह देखने में असमर्थ रहते हैं कि इन ताकतों का स्वतंत्र जन-आधार नहीं है। भूस्वामियों और बड़े पूंजीपतियों, जो खुलेआम राष्ट्र-विरोधी नीतियों की वकालत करते हैं, के हितों को बहुत ही पहले अलग-थलग और निर्मूल कर दिया जा सकता था, लेकिन कांग्रेस और सरकार के भीतर के अपने मित्रों और सहयोगियों के समर्थन के कारण और उन समझौतापरस्त प्रतिक्रियावादियों तथा जन-विरोधी नीतियों, जिसने उन्हें और सृदृढ़ किया, के कारण यह संभव नहीं हो सका।
सरकार और भूमि-सुधार
राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रागज्योतिषपुर अधिवेशन में, अपने भाषण में श्री ढेबर ने कहा था:
‘‘आइये कृषि की समस्या को लें। क्या हम काश्तकारों के दिमाग में बेदखली का भय दूर करने में सफल हो रहे हैं? परेशान और चिंतित किसान जमीन का स्वामित्व पाने की उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहा हैं। वह जमीन, जिसको उसने और कदाचित उसके बूढ़े पिता ने अपनी मेहनत, पसीने और आंसुओं से संजोया।’’
1958 में जैसी स्थिति थी, उसकी स्पष्ट तस्वीर प्रस्तुत करने के पश्चात उन्होंने दृढ़तापूर्वक यह घोषणा की कि, ‘‘जिस चीज की जरुरत है, वह है, जोतने वाले के साथ निकट का संबंध’’ यह कि ‘‘दूसरी पंचवर्षीय योजना की समाप्ति से पहले’’ भूमि-सुधारों को पूरा कर दिया जाना चाहिए, और अन्ततः यह कि ‘‘भूमि सुधार वह पहला कदम है, जहां से हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था के उत्थान की प्रक्रिया प्रारंभ होती है।’’
‘‘यह पहला कदम’’- कांग्रेस अध्यक्ष की स्वीकारोक्ति के अनुसार- कांग्रेस की 10 वर्षों की निर्विवाद सत्ता के बाद भी नहीं उठाया गया है।
अतः यही दिखाना काफी नहीं है कि भूस्वामी कैसे कृषि-सुधारों को तोड़-फोड़ करते हैं। यह तोड़-फोड़ मौजूद है और उसका मुकाबला किया जाना हैं। पर वे तोड़-फोड़ कर पा रहे हैं क्योंकि वे कांग्रेस के भीतर दृढ़ता से पैठे हुए हैं और सरकार में, खासकर राज्य सरकारों में वे इसलिए तोड़-फोड़ कर पा रहे हैं क्योंकि कृषि-सुधारों में विलंब किया जा रहा है और उनमें त्रुटियां छोड़ दी गयीं हैं जिससे तोड़-फोड़ करने में आसानी होती है।
बड़े व्यापार के सम्बन्ध में सरकार की नीतियों के बारे में भी यही सच है।
दोतरफा लड़ाई
इसलिए, जब हम योजना के कार्यान्वयन के लिए संघर्ष की बातंे करते हैं तो हमें अपरिहार्य रुप से दोतरफा लड़ाई चलानी होती हैः एक तो उनके खिलाफ जो खुलेआम योजना पर प्रहार कर रहे हैं और उसका तोड़-फोड़ करने की कोशिश कर रहे हैं और दूसरे उनके खिलाफ जो अपनी नीतियों के जरिये योजना को जोखिम में डाल रहे हैं और उसके तोड़-फोड़ को आसान बना रहे हैं।
ये संघर्ष अन्तर्संबद्ध है। दक्षिण प्रतिक्रिया के षड़यंत्रों को पराजित करने के लिए किये गये संघर्षों से देश के दुश्मनों और साथ ही सरकार में उनके सहयोगियों का पर्दाफाश होता है और वे अलग-थलग हो जाते हैं तथा इससे सही नीतियों के लिए संघर्ष की व्यापकता को प्रश्रय मिलता है। साथ ही सही नीतियों के लिए किये गये संघर्ष की हर सफलता से दक्षिण प्रतिक्रिया के उभार के आधार ही कमजोर होते हैं।
केवल इन दोनों संघर्षों को सतत और जोरदार ढंग ये चलाने से ही पार्टी देश में देशभक्त और जनवादी शक्तियों को संयुक्त करने में सफल होगी। राजनीतिक प्रस्ताव यही समझदारी प्रदान करता है, एक ऐसी समझदारी जिसे अवश्य ही हमारे राजनीतिक कार्यकलाप का आधार होना चाहिए।
राजनीतिक प्रस्ताव पार्टी-कार्य में कतिपय प्रमुख कमजोरियों की ओर भी ध्यान आकर्षित करता है।
जन-कार्य में कमजोरियां
हमारे राष्ट्रीय-राजनीतिक अभियान बहुत ही कमजोर है। यहां तक कि राज्यव्यापी अभियान भी बहुत कम होते हैं। यद्यपि हम प्रमुख राष्ट्रीय शक्ति बन गये हैं, फिर भी कारगर राजनीतिक हस्तक्षेप का अभी भी अभाव है। जो अभियान हम चलाते है, वे भी अधिकतर तालमेल रहित होते हैं और उनमें निरंतरता का अभाव रहता हैं राजनीतिक मुद्दों पर पहलकदमियां पूंजीपति वर्ग से छीन कर अपने हाथ में लेना अभी बाकी है।
इसके अलावा, हम अभी तक अनवरत और चैतरफा जन कार्य करने में सफल नहीं हुए है। यह, एक विचारणीय सीमा तक, उन नये आवेगों और आकांक्षाओं का जो कि हमारे लोगों के बीच में उभर रहे हैं और जो उन्हें चालित करते हैं, पर्याप्त रुप से बोध न हो पाने के कारण है।
शिक्षा, स्वतंत्रता, सांस्कृतिक उत्थान, खेलकूद, सामाजिक कल्याण के लिए सुविधाओं आदि की इच्छा अब केवल मध्यम तबकों तक ही सीमित नहीं है। ये मजदूरों और किसानों को भी आंदोलित करती है। इन आवेगों की उपेक्षा करना या उनके प्रति उपेक्षात्मक रवैया बरतना एक संकीर्णतावादी दृष्टिकोण को ही प्रकट करता है- एक ऐसा दृष्टिकोण जो जनता के साथ, पार्टी द्वारा अपना संपर्क मजबूत बनाये रखने में बाधक  होता है।
इस संदर्भ में म्युनिसिपैलटियों,  पंचायतों और सहकारों जैसे निकायों में हमारी भूमिका महत्वपूर्ण होती है। कई बार हम ऐसे कार्य के महत्व को कम करके आंकते हैं जो हम पर ऐसे लोगों के विश्वास को कम कर देता है, जिन्होंने हमें अपना मत दिया था। जनता कठोर अधिकारी के समान होती है। वह हमें भी उसी पैमाने से नापती है, जिससे कांग्रेस को नापती है। केरल में, यह ध्यातव्य है कि म्युनिसिपैलटियों, जिला बोर्डों और पंचायतों में हमारे कार्य की, जनता के बीच पार्टी को मजबूत करने में, अहम भूमिका रही।
गम्भीर गलती-किसान आंदोलन की कमजोरी
किंतु इनमें सबसे गंभीर कमजोरी है- किसानों और खेतिहार मजदूरों के बीच हमारा कार्य। जैसा कि प्रस्ताव लक्षित करता हैः  संगठित किसान आंदोलन की यह कमजोरी समग्रतः जनवादी आंदोलन की सर्वप्रमुख कमजोरी है।
किसानों के बीच पार्टी के बढ़ते असर के बावजूद कई कारणों से, उनमें काम करने की आवश्यकता की उपेक्षा से किसान सभा तथा खेत मजदूर एसोसिएशनें एक व्यापक आमूल परिवर्तनकारी अवधि में अपने प्रभाव को बढ़ाने में असफल रहे।
किंतु, निस्संदेह इनमें सबसे महत्वपूर्ण है, जनवादी मोर्चें की गलत और सुधारवादी अवधारणा, जो कि हमारी पार्टी में घुस गयी है। यह एक ऐसी अवधारणा है जो यह नहीं समझती कि संयुक्त मोर्चा, सर्वोपरि, मजदूर वर्ग और किसान समुदाय के गठजोड़ पर आधारित होगा और यह कि इसलिए कम्युनिस्ट पार्टी के सम्मुख व्यापक किसान आंदोलन खड़ा करने का कार्य अत्यंत महत्वपूर्ण कार्योंं में से एक है।
जब तक इस कार्य की उपेक्षा की जायेगी, नीतियों के लिए संघर्ष को कारगर सफलता नहीं मिलेगी, पार्टी के प्रभाव की कमी को पूरा  नहीं किया जा सकता है, यहां तक कि हमारा चुनावी परिदृश्य भी इसे वस्तुतः पूरा नहीं कर सकता। इसलिए पार्टी की हर राज्य-इकाई द्वारा किसानों की ओर पार्टी को अभिमुख करने के लिए गंभीर  प्रयास अवश्य ही किये जाने चाहिए और जन कार्यकलाप के एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग के रुप में किसानों के बीच कार्य को लेना होगा। जहां तक हमारी पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व का सवाल है,उसे किसान मोर्चे पर पार्टी की जन-नीति को तैयार करने की पहलकदमी करनी होगी और यह सुनिश्चित करना होगा कि इसका कार्यान्वयन हो।
संयुक्त आंदोलन निर्मित करो
भारत में आज हमारे सम्मुख क्या संदर्श है? स्थितियां शक्तिशाली संयुक्त जन आंदोलन  के विकास के लिए और जनता की अनेक मांगों को जीतने के लिए अधिकाधिक अनुकूल बन रही हैं। उदाहरण के लिए, वर्षों से सरकार ने दूसरे वेतन आयोग की मांग को रोके रखा था। फिर भी, दूसरे आम चुनाव के कुछ महीनों के भीतर, डाक और तार कर्मचारियों की आम हड़ताल तथा व्यापक जन समर्थन की धमकी के साथ जब मांग उठायी गयी तो सरकार को इस मांग पर सहमत होना पड़ा। हर राज्य में, हाल के महीनों में कई मसलों पर सफल संघर्ष दृष्टिगोचर हुए।
इन संघर्षों में, साथ ही नीतियों के लिए संघर्षों में, हमारी पार्टी को कांग्रेस के भीतर की जनवादी ताकतों समेत देश की समस्त जनवादी ताकतों को संयुक्त करने की कोशिश करनी होगी। ऐसी एकता की संभावनाएं विकसित हो रही हैं। जनता की सेवा में आम कार्यकलापों के कई क्षेत्र हैं, जिनमें देशभक्त तत्व एक साथ आ सकते हैं।
इसी समय, हमें यह भी स्मरण रखना है कि जनवादी जनता- जो वामपंथी पार्टियों के पीछे है और जिसने पहले ही एक आगे बढ़ी स्थिति अपना ली है- को कई संघर्षों और कार्रवाइयों की पहल करने और उन्हें उत्साह  और संकल्प के साथ चलने में एक विशेष भूमिका अदा करनी है। वामपंथी ताकतों- वामपंथी पार्टियों और प्रगतिशील व्यक्तियों- की एकता व्यापक जनवादी एकता का निर्माण करने में एक अहम अस्त्र बनी हुई है। इसलिए, हमारी पार्टी ऐसी एकता के निर्माण में अपने प्रयासों को सघन बनायेगी।
आगे की अवधि आंशिक संघर्षों की ही अवधि नहीं है, बल्कि नीतियों पर विरोधों के तीव्रीकरण की अवधि है। योजना का संकट और कांग्रेस के अंदर का संघर्ष दोनों एक गहरे संकट की अभिव्यक्ति हैं- पूंजीवादी नीतियों के संकट की, जिसका हमारे पालघाट प्रस्ताव में विश्लेषध किया गया है। जैसे-जैसे संकट परिपक्व होता है, परिस्थिति में तीखे और त्वरित परिवर्तन आ सकते हैं। जनता की कीमत पर और अपने तरीके से संकट को हल करने के अपने प्रयास में प्रतिक्रिया उद्यत कदम उठा सकती है- योजना के प्रगतिशील रुपों को काट-छांट कर, जनवाद को खत्म कर, साम्राज्यवादी मदद हासिल करने के लिए विदेश नीति को बदल कर।
इसलिए, यह मात्र भ्रम होगा कि शांतिपूर्ण रास्ते का अर्थ है, निर्विध्न प्रगति का रास्ता, संकटों, टकरावों, जनवाद की रक्षा के दृढ़-निश्चयी संघर्ष से मुक्त एक रास्ता।
जन पार्टी - एक निर्णायक कारक
ऐसे संदर्भ में, राष्ट्रीय प्रगति तभी संभव है, जबकि हमारी पार्टी तीन मुद्दों वाले कार्यों को आगे ले जाने में सफल होती है। ये मुद्दे इस प्रकार हैंः (1) व्यापक जनवादी एकता का निर्माण; (2) प्रखर जन कार्यकलाप और शक्तिशाली जन संगठनों के, खास कर मजदूरों  और किसानों के संगठनों के, निर्माण को हाथ में लेना; (3) और सर्वोपरि, एक जन कम्युनिस्ट पार्टी का निर्माण।
इन तीनों अंतर्संबद्ध कार्यों में से आज के समय में निस्संदेह प्रमुख और निर्णायक है- जन पार्टी का निर्माण। ऐसी पार्टी के निर्माण में हमारी सफलता समस्त जनवादी आंदोलन की एकता और प्रभावोत्पादकता पर निर्भर करेगी। संविधान को स्वीकार करने के अलावा अमृतसर कांग्रेस का मुख्य उद्देश्य था- पार्टी संगठन की कमियों और त्रुटियों पर ध्यान केंद्रित करना और इन पर तेजी  से विजय पाने के रास्ते और साधन जुटाना।
इस संबंध में आवश्यक निर्णय विशेष कांग्रेस द्वारा लिये गये हैं। निर्णय संगठन पर प्रस्ताव में प्रस्तुत किये गये थे, जो कि पिछले हफ्ते के न्यू एज में छपा था। यह पार्टी  की समस्त इकाइयों का कर्तव्य और उत्तरदायित्व है, किन्तु सर्वोपरि यह पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व, राष्ट्रीय परिषद, केंद्रीय कार्यकारिणी समिति और केंद्रीय सचिवमंडल का कर्तव्य है कि वे सुनिश्चित करें कि इन निर्णयों को पूरी निष्ठा के साथ कार्यान्वित किया जायगा।
इसके लिए पार्टी की एकता को मजबूत करना जरुरी है। इसके लिए माक्र्सवाद- लेनिनवाद के आधार पर विचारधारात्मक एकता और हमारे देश की विशिष्ट स्थितियों में इसका कार्यान्वयन, कांग्रेस में स्वीकृत प्रस्ताव के आधार पर राजतनीतिक एकता और आगे इसका विकास, पार्टी के नये संविधान के आधार पर सांगठनिक इकाइयों में साथीवत और बिरादराना वातावरण बनाना आवश्यक है।
प्रभावशाली पार्टी-केन्द्र की आवश्यकता
संगठनात्मक समस्या के कई पहलू हैं। कांग्रेस में सब पर विचार-विमर्श करना सम्भव नहीं था। लेकिन बहस के दौर में जो एक पहलू तेजी से उभर कर आया वह है-सभी स्तरों पर, प्रभावोत्पादक नेतृत्व और प्रभावोत्पादक कार्यकर्ताओं का अभाव।
हमारा आन्दोलन बढ़ गया है। हमारी जिम्मेदारी बढ़ गयी हैं। लेकिन हमारा नेतृत्व, मुख्यतः केन्द्रीय नेतृत्व और अधिकांश राज्यों का नेतृत्व, परिपक्वता, योग्यता और सामथ्र्य में तदनुरुप विकसित नहीं हुआ है। हमारे काम के तरीकों-किसी विषय के विशिष्ट अध्ययन की कमी, सामूहिक फैसलों के आधार पर व्यक्तिगत जिम्मेदारी और नियमित जांच-पड़ताल की कमी- से यह कमजोरी बहुत बढ़ गयी है और दूसरी ओर पार्टी-शिक्षा के महत्वपूर्ण कार्य की उपेक्षा से कार्यकर्ताओं का जबर्दस्त अभाव पैदा हो गया है।
इसके अतिरक्ति कई सवालों पर सैद्धान्तिक स्पष्टता का अभाव है, अनेक समस्याओं का समान  समझदारी का अभाव है और इच्छा तथा कार्य में उस एकता का अभाव है, जो कम्युनिस्ट पार्टी की पहचान स्थापित करती है और उसकी शक्ति का मुख्य आधार निर्मित करती है।
इसके अतिरिक्त अन्य गम्भीर कमजोरियां भी हैं। हमारी असरदार ताकत केरल, आन्ध्र और पश्चिम बंगाल को छोड़कर, आज भी कम है। पार्टी की कमजोरी मुख्यतः हिंदी भाषी क्षेत्रों में देखी जा सकती है, जहां हमारी जनता का लगभग 40 प्रतिशत भाग रहता है।
इसलिए आत्मसंतोष की कहीं भी गुंजाइश नहीं है। हम पहले से भी कहीं अधिक मजबूत हैं, लेकिन हमारी पार्टी को जो कर्तव्य पूरे करने हैं, उनकी तुलना में हमारी ताकत आज भी कम है।
इन कमजोरियों को दूर करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्य है एक प्रभावशाली अखिल भारतीय पार्टी केन्द्र के निर्माण का कर्तव्य, जो पार्टी के राष्ट्रीय राजनीतिक केंद्र के रुप में काम करेगा। राष्ट्रीय परिषद का चुनाव कर और केंद्रीय कार्यकारिणी तथा केंद्रीय सचिवमंडल का गठन कर एवं उनकी कार्य-पद्धति के लिए सुस्पष्ट नियम निर्धारित कर अमृतसर कांग्रेस ने ऐसे केंद्र के निर्माण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया है।
व्यक्तिवाद को परास्त करो, अनुशासन कायम करो
जन कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण का कार्य कोई आसान कार्य नहीं है। उसके लिए कठोर और अनवरत परिश्रम की आवश्यकता है। उसकी मांग है कि कथनी और करनी, निर्णयों और निर्णयों के कार्यान्वयन तथा कम्युनिस्ट सिद्धान्तों और रोजमर्रे के व्यवहारों की भिन्नताओं को खत्म किया जाय। सर्वोपरि उसका तकाजा है कि पार्टी को सैद्धान्तिक दृष्टिकोण से नये सांचे में ढाला जाय और उसे अपनी ऐतिहासिक भूमिका की चेतना से प्रेरित किया जाय।
यह सब अनिवार्यतः एक लम्बी और अविछिन्न प्रक्रिया होगी। लेकिन उसका आज और अभी श्री गणेश कर देना चाहिए। यह शुरूआत व्यक्तिवाद को परास्त करने और पार्टी में अनुशासन की स्थापना करने के रुप में होनी चाहिए। इसे ऊपर से शुरु करना है- पार्टी के केंद्रीय और राज्य-स्तर के नेतृत्व से, अन्य मामलों की तरह इस मामले में भी पहले उन्हीं लोगों को ही कदम उठाकर उदाहरण पेश करना चाहिए।
निस्संदेह हमारी पार्टी देश की सबसे अधिक अनुशासनबद्ध पार्टी है। इसे सभी- खासकर हमारे विरोधी-स्वीकार करते हैं। लेकिन हमे  इससे संतोष नहीं कर लेना चाहिए। जैसा कि हर पार्टी सदस्य जानता है, हम उस रुप में अनुशानबद्ध नहीं है, जिस रुप में एक कम्युनिस्ट पार्टी को होना चाहिए।
नयी चेतना पैदा करो
अपने कर्तव्यों को पूरा करने के लिए हमें अपनी चेतना में भी वहीं रुप धारण करना चाहिए जैसा कि जनता के विशाल हिस्से की चेतना में हमारा रुप निर्मित हो चुका है। हमारे काम में अनेक कमजोरियां इसी चेतना की कमी के कारण है।
हमारी पार्टी के कंधों पर जबर्दस्त जिम्मेदारियां हैं। जनता की संघर्ष चेतना में वृद्धि के साथ-साथ देश में विघटन और फूट की प्रवृत्तियां बढ़ रही हैं। ऐसी हालत में जनवादी आन्दोलन और देश की एकता की रक्षा तथा सुदृढ़ीकरण के लिए जनता हमारी पार्टी से अधिकाधिक आशा लगाये बैठी है।
योजना की कठिनाइयां बढ़ती जा रही है, जनता पर बोझा लादा जा रहा है, लोगों के जीवन-स्तर और जनवादी स्वतंत्रता पर हमले हो रहे हैं और  सभी क्षेत्रों में भ्रष्टाचार फैल गया है, ऐसी स्थिति में सही राष्ट्रीय नीतियों के लिए और हमारी अर्थव्यवस्था, हमारे राजनीतिक और सामाजिक जीवन को आक्रांत करने वाली बुराइयों के विरोध में संघर्ष करने के लिए हमसे ही नेतृत्व की आशा की जाती है।
कांग्रेस-शासन की साख खत्म होने के साथ केरल पर ही आम जनता की आशा-आकांक्षाएं अधिकाधिक केंद्रित होती जा रही हैं, ताकि यह देखा जा सके कि किसा प्रकार जनता की सरकार जनता की समस्याओं का समाधान जनवादी तरीके से कर सकती है।
सर्वोपरि, मौजूदा कांग्रेस-नेतृत्व के गहराते हुए संकट के साथ ही एक नये वैकल्पिक राष्ट्रीय नेतृत्व की मांग एक ऐतिहासिक आवश्यकता का रुप धारण करती जा रही है, जो हमारे देश के सबसे अच्छे तत्वों को एकताबद्ध करे और हमारी पार्टी जिसका एक महत्वपूर्ण अंग हो।
इसीलिए एक जन कम्युनिस्ट पार्टी के रुप में हमारी पार्टी के निर्माण का कार्य इतने निर्णायक महत्व का कार्य बन गया है। इसी बात पर अमृतसर-कांग्रेस के राजनीतिक प्रस्ताव के अन्तिम भाग में पूरा जोर डाला गया हैः
‘‘इन जनवादी कर्तव्यों और राष्ट्रीय प्रगति के ध्येय की सिद्धि एक व्यापक राजनीतिक शक्ति के रुप में कम्युनिस्ट पार्टी के अभ्युदय पर निर्भर है- ऐसी पार्टी, जो राष्ट्रीय जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में शुरुआती कदम उठाकर और जन-संघर्षों को सुदृढ़ नेतृत्व प्रदान कर आम जनता को एकताबद्ध तथा गोलबंद करे।’’
‘‘भारती कम्युनिस्ट पार्टी की विशेष कांग्रेस अपनी हर इकाई और हर पार्टी सदस्य का तथा पार्टी के सभी मित्रों का आवाहन करती है कि वे नये-नये क्षेत्रों में लगातार फैलती जाने वाली और जनता से नयी शक्ति प्राप्त करने वाली ऐसी ही एक जन-कम्युनिस्ट पार्टी का निर्माण करने के लिए अपनी ताकत का सदुपयोग करें। पार्टी के सदस्यों को जनता और देश के हितों के अटल रक्षकों के रुप में सामने आना चाहिए। उन्हें अपने निःस्वार्थ कार्यों, पहलकदमियों और त्याग से यह सिद्ध करना चाहिए कि कम्युनिस्ट पार्टी विश्व शांति की सबसे दृढ़प्रतिज्ञ योद्धा, हमारी राष्ट्रीय स्वाधीनता की रक्षक, संपूर्ण राष्ट्र की एकता की निर्माता और समाजवाद तथा खुशहाल एवं समृद्ध जीवन की ओर अग्रसर होने वाली जनता की संगठनकर्ता है।’’

-कामरेड अजय घोष

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