Thursday, 25 February 2010

नयी परिस्थितियां और हमारे कर्तव्य- अंतिम भाग

बेरोजगारी के आंकड़े बढ़ते गये हैं और आज वे योजना के प्रारंभिक दिनों की तुलना में और अधिक बढ़ गये हैं।
आम लोगों पर टैक्सों का बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है। 1950 और 1960 के बीच में प्रत्यक्ष करों में मात्र 20 करोड़ रु. की वृद्धि हुई, लेकिन उसी अवधि में अप्रत्यक्ष करों में 380 करोड़ रु. की वृद्धि हुई।
इस दौर में दो बाते देखने को मिलीं। समाजवादी देशों के साथ हमारे संबंधों का विकास हुआ और भारत ने सोवियत संघ तथा अन्य समाजवादी देशों से अमूल्य सहयोग प्राप्त किये। इससे भारत को अपना औद्योगिक आधार विस्तृत करने और अपनी स्वतंत्रता को सुदृढ़ करने में मदद मिली। इसके साथ ही पश्चिमी देशों से बड़े पैमाने पर, सार्वजनिक और निजी क्षेत्र दोनों में ही, विदेश्ी पूंजी का आयात किया गया। जैसा कि राजनीतिक प्रस्ताव में इंगित किया गया है, हमारा राजकीय विदेशी ऋण 1955 के 200 करोड़ रु. से बढ़कर 1959 में 925 करोड़ रु. हो गया - जिसमें अमेरिका की सरकार और अमेरिका एजेन्सियों का हिस्सा लगभग 600 करोड़ रु. है। अब पुनः तृतीय योजना में 2000 करोड़ रु. से भी अधिक कर्ज लेने की बात तय की गयी है, जिसका एक बड़ा हिस्सा अमेरिका से प्राप्त करने की उम्मीद की गयी है। सूद के भुगतान और कर्ज की वापसी में पूर्व निर्धारित शर्त के अनुसार औसतन 100 करोड़ रु. प्रतिवर्ष अदा करने होंगे।
पी.एल. 480 के अंतर्गत जो कर्ज लिये गये हैं, उन पर विशेष ध्यान देना बहुत जरुरी है। तृतीय योजना-काल में 608 करोड़ रु. मूल्य का लगभग 170 लाख टन अनाज बाहर से मंगाया जायगा।
विदेश विनियम की कठिनाइयों से लाभ उठाते हुए विश्व बैंक और अन्य अमेरिकी एजेन्सियां निजी विदेशीेे पूंजी, खासकर अमेरिकी पूंजी को भारी सुविधाएं प्रदान करने के लिए लगातार दबाव डाल रहे हैं। वे चाहते हैं कि सार्वजनिक क्षेत्र को संकुचित किया जाय, भारत और अमेरिका के संयुक्त प्रयासों को बढ़ावा दिया जाय, संयुक्त उद्योग धंधों को नियंत्रित करने वाली परिस्थिति को बदलने का अधिकार भारतवासियों के हाथों में नहीं रहे। साम्राज्यवादियों के दबावों से छुटकारा पाने का प्रयास करते हुए भारत सरकार ने कई मामलों में उन्हें बहुत-सी रिआयते दे दी हैं।
विदेशी पूंजी-निवेश के मामले में भी, अनेक अवसरों पर विदेशी पंूजीपतियों के दबावों से तंग आकर, भारत सरकार ने कई प्रकार की छूटंे दी हैं। यह सभी जानते हैं कि भारत सरकार ने 1960 के प्रारंभिक नौ महीनों में भारत के बड़े पूंजीपतियों और विदेशी इजारेदारों के आपसी सहयोग से 228 परियोजनाओं को चालू करने की स्वीकृत प्रदान की है। यदि इस प्रवृत्ति को रोका नहीं गया, तो यह बहुत बड़ा खतरा उत्पन्न कर सकती है। इसका मतलब होगा कि विदेशी लोग हमारे साधनों का बराबर शोषण करते रहें। इससे उन साम्राज्यवादी इजारेदारों और भारतीय इजारेदारों का आपसी संपर्क भी मजबूत होगा, जो हमारी विदेशी-नीति, सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका और कृषि-सुधारों जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर खुलेआम प्रतिक्रियावादी रुख अपनाते हैं।
इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि अधिक रिआयतों की मांग करने वाले साम्राज्यवादियों की कार्रवाइयों को नाकाम किय जाय, अधिकाधिक विदेशी इजारेदारी पूंजी के प्रवेश की वकालत करने वाले प्रतिक्रियावादियों के विरुद्ध संघर्ष किया जाय अैर इस तरह की पूंजी के प्रवेश का रास्ता खोलने वाली सरकार की नीति का दृढ़तापूर्वक विरोध किया जाय।
हमने ऐसा रुख कभी नहीं अपनाया है और न आज भी ऐसा रुख अपनाना चाहते हैं कि समाजवादी शिविर के बाहर के देशों से भारत को कर्ज नहीं लेना चाहिए। लेकिन जनता को इस बात पर बल देने का अधिकार है कि समाजवादी देशों से हम जिन अनुकूल शर्तों पर कर्ज लेते हैं, उन्हीं शर्तों पर किसी भी दूसरे देश से कर्ज लिये जायं; कर्ज केवल सार्वजनिक क्षेत्र के निमित्त लिये जायं; कोई विदेशी एजेन्सी नहीं, बल्कि हमारी सरकार ही तय करे कि किन उद्योगों में इन कर्जों को लगाया जाय; विश्व बाजार मे प्रचलित कीमतों से अधिक ऊंची कीमतें अदा नहीं की जायं। इसके अतिरिक्त विदेशी कर्ज की राशि को प्रभावोत्पादक तरीके से बहुत ही छोटी सीमा के भीतर रोक रखना चाहिए और बर्बादी को दूर करने, अनावश्यक आयातों पर प्रतिबंध लगाने तथा इसी तरह की अन्य बातों के लिए कदम उठाने चाहिए। लेकिन इस समय इन सभी बातों का अभाव है।
हम अपनी कृषि की दयनीय स्थिति का पहले ही जिक्र कर चुके हैं। इसका प्रमुख कारण तकनीकी नहीं, सामाजिक-आर्थिक है। किसानों के हितों में यथार्थ और मूलगामी कृषि-सुधारों के कार्यान्वयन के सिलसिले में सरकार की अस्वीकृति ही इस समस्या की जड़ है। सरकार के कृषि-सुधारों से मुट्ठी भर धनवान और समृद्ध किसानों को ही कुछ लाभ मिला है; क्योंकि सरकार का उद्देश्य, जिसका हम कई बार जिक्र कर चुके हैं, कृषि के क्षेत्र में पूंजीवादी को बढ़ावा देना है - हालांकि किसानों का विशाल समूह दयनीय अवस्था में पड़ा हुआ है। हमारे किसान खेत में इतनी पूंजी लगाने में भी असमर्थ हैं कि पैदावार में कोई संतोशजनक वृद्धि हो सके।
जहां तक 7 करोड़ से भी अधिक ख्ेात मजदूरों का सवाल है, उनकी हालत में बहुत ही गिरावट आयी है।
नये और पुराने दोनों ही प्रकार के भूस्वामी ग्रामीण जीवन पर अपना सिक्का जमाये हुए हैं, जिसके फलस्वरुप कई क्षेत्रों में जनतंत्र का कोई प्रभाव नहीं दिखलाई पड़ता हैं। गांव के निहित स्वार्थवादी लोग स्थानीय हाकिमों को खरीद लेते हैं, अनेक जिला बोर्डो, पंचायतों और सहकारी संस्थाओं को नियंत्रण प्राप्त कर लेते हैं तथा अनेक राज्यों में सरकार को अपने इशारों पर नचाते हैं। इस प्रकार सही कृषि-सुधारों को लागू करने में सरकार की असफलता के कारण न केवल हमारी अर्थव्यस्था के तेज विकास की गति रुक गयी है, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक जीवन पर भी उसका उलटा प्रभाव पड़ा है।
कुल मिला जुलाकर इन सभी बातों का अर्थ यह निकलता है कि द्वितीय योजना के दौर में हमने जो भी सीमित प्रगति की थी, वह हमारी संपूर्ण अर्थव्यवस्था को एक खास सीमा, एक विशेष दिशा और पक्ष की ओर लिये जा रही है, जिसके फलस्वरुप मुट्ठीभर लोगों के हाथों में धन जमा होता जा रहा है और जनता गहन विपत्ति और संकट के जाल में फंसती जा रही है।
इसलिए साम्राज्यवाद और राष्ट्र के बीच का अन्तर्विरोध तेज होने के साथ ही सरकार और सर्वसामान्य जनता के बीच का अन्तर्विरोध भी बहुत तेज होता जा रहा है।
इसका प्रत्यक्ष परिणाम यह है कि सरकार के दमनकारी यंत्र और अधिक तेज तथा मजबूत हुए हैं, जनता के स्थानीय निर्वाचित संगठनों को सही अधिकारों से लैस करने से सरकार मुकर गयी है, जनवाद को जानबूझका नियंत्रित किया गया है और जनता ने जब भी संघर्ष शुरु किया है, तब भयानक रुप से उसका दमन किया गया है।
हमने पालघाट में द्वितीय पंचवर्षीय योजना की संभावनाअें की समीक्षा करते हुए कहा थाः
‘‘इसलिए, साम्राज्यवाद का विरोध करते हुए और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर उसकी पकड़ को कमजोर करने का प्रयास करते हुए पंजीपति वर्ग ब्रिटिश पूंजीपतियों से भी अपना संपर्क बनाये रखता है और अतिरिक्त विदेशी पूंजी के प्रवेश का मार्ग भी प्रशस्त करता है। वह सामंतवाद को नियंत्रित और कमजोर करने का प्रयास करने के साथ-साथ जनवादी शक्तियों के विरोध में सामंतों के साथ अपना मोर्चा बनाये रखता है और भूस्वामियों को सुविधाएं प्रदान करता है। वह देश के औद्योगीकरण का प्रयास करते हुए आम जनता पर ही आर्थिक विकास का अधिक बोझ लादना चाहता है; वह सार्वजनिक क्षेत्र को विस्तृत करने के साथ-साथ इजारेदारों द्वारा मेहनतकश लोगों पर किये जाने वाले हमलों के समय उन्हीं का समर्थन करता है और इजारेदारों को और मजबूत करने के लिए कई प्रकार के कदम उठाता है तथा इस प्रकार हमारे जीवन के महत्वपूर्ण क्षेत्रों में उनकी स्थिति को और सुदृढ़ करता है। वह राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के कार्यों में सहयोग प्रदान करने के लिए जनता का आह्नान करने के साथ-साथ नौकरशाही व्यवस्था को मजबूत करता है, उसी पर पूरा भरोसा करता है तथा जनवाद का विस्तार करने और जनता की स्थिति में सुधार लाने वाले कदम उठाने से इनकार करता है। ये नीतियां शांति और राष्ट्रीय स्वाधीनता की दृढ़ता के साथ रक्षा करने वाले उन वर्गों को कमजोर और बंधनग्रस्त कर देती हैं, जिनकी प्रेरणा तथा सृजनात्मक गतिविधियों के बिना राष्ट्र का पुनर्निर्माण नहीं किया जा सकता है।
‘‘इन बातों और औद्योगीकरण के लक्ष्यों के तथा इन लक्ष्यों की सिद्धि के लिए सरकार द्वारा उठाये गये कदमों से भिन्नता के कारण देश के विकास की प्रक्रिया मंद और अवरुद्ध-सी है, उसके स्वरुप में हेरफेर होता रहता है, और उसके माध्यम से तीखे टकराव तथा गहरे अन्तर्विरोध उभरते रहते हैं। इनके कारण भारत के विकास के मार्ग में उपस्थित बाधाओं को दूर करने में विलंब होता है। इनके कारण लोगों पर भारी बोझ लदता जा रहा है, लोग दरिद्र होते जा रहे हैं और इस तरह अर्थव्यवस्था के स्थायित्व और सुसंगत प्रसार में रुकावटें पैदा हो रही हैं।’’
यथार्थ घटनाओं ने पूरी तरह सिद्ध कर दिया है कि यह मूल्यांकन सही है। तब तृतीया योजना किन संभावनाओं को उजागर करती है?
अभी तक तृतीय पंचवर्षीय योजना के प्रस्तावों को अंतिम रुप नहीं दिया गया है, फिर भी योजना के प्रस्तावों के अनुसार उपर्युक्त जटिल और दोहरी प्रक्रियाओं को और भी आगे बढ़ाया जायगा। भारी उद्योगों और उन उद्योगों को मुख्यतः सार्वजनिक क्षेत्र में सोवियत संघ और अन्य समाजवादी देशों के घनिष्ठ सहयोग से स्थापित करने की नीति पर भी बल दिया गया है। इन बातों का अर्थ होगा कि हम विश्व बैंक, साम्राज्यवादी एजेन्सियों और भारत स्थित उनके मित्रों की ‘सिफारिशों’ को अस्वीकार करते हैं। हम इसका स्वागत करते हैं। लेकिन यह भी उल्लेखनीय है कि विदेशी कर्जों और सहायता के लिए अमेरिका की ओर ध्यान केन्द्रित किया जा रहा है। इसके अतिरिक्त विदेशी निजी पूंजी को अधिकाधिक छूट देने की तत्परता भी दिखलाई जा रही है।
भमि-सुधार का बुनियादी महत्व है, लेकिन तृतीय योजना के प्रारुप में भूमि-सुधार के बारे में ऐसी एक भी बात नहीं कही गयी है, जिससे यह समझा जाय कि किसी परिवर्तन की ओर ध्यान दिया गया है। हमें बतलाया गया है कि ‘‘तृतीय योजना-काल का प्रमुख काम यह होगा कि उन नीतियों को यथाशीघ्र कार्यन्वित कर लिया जाय,जो द्वितीय योजना-काल में उद्भूत हुई थीं और उस कानून के अंतर्गत सम्मिलित कर ली गयी थीं, जिसे राज्यों ने हाल में ही अपनी स्वीकृत नीतियों के अनुसार अपना लिया है’’ (पृ. 94)। प्रारुप में साफ-साफ यह स्वीकार किया गया है कि ‘‘हाल के वर्षों में भूमि-हस्तांतरण के मामलों ने भूमि-सुधारों से संबंधित कानून के उद्देश्यों को ही निष्फल कर दिया’’ (पृ. 96)। लेकिन साहस के साथ समस्या को सुलझाने के बदले प्रारुप में प्रामाणिक बंटवारे और जाली हस्तांतरणों के अंतर की पंडिताऊ बहस छेड़ दी गयी है तथा उसमें कुछ ऐसी छोटी-मोटी सिफारिशों का जिक्र कर दिया गया है, जो बिल्कुल प्रभावहीन हैं।
तृतीय योजना के स्त्रोतों के बारे में प्रारुप में कहा गया है कि ‘‘आय और कारपोरेशन के टैक्सों पर विचार करते हुए, मुख्य रुप से प्रशासन को खूब चुस्त कर, कंपनियों के व्यय-खाते पर नजर रखकर और टैक्स की चोरी रोकने के लिए अन्यान्य कदम उठाकर आमदनी में अतिरिक्त वृद्धि के लिए प्रयत्नशील हो जाना पड़ेगा’’ - इस तरह यह बिलकुल स्पष्ट कर दिया गया है कि पहले की ही भांति धनवानों और महाधनवानों पर कोई नया बोझ नहीं लादा जायगा। लेकिन 1650 करोड़ रुपये की विशाल राशि अतिरिक्त कराधान के रुप में मुख्यतः ‘‘कर ढांचे को बढ़ाकर’’ प्राप्त करने का प्रस्ताव पेश किया गया है ‘‘कर के ढांचे को बढ़ाकर’’ एक मंगलवाची शब्दावली है, जिसका प्रयोग आम लोगों पर बोझ लादने के अर्थ में किया जाता है। यदि इस मुहावरे के सही अर्थ के बारे में कोई संदेह रह जाय, तो उसका भी केन्द्रीय सरकार के नये बजट ने निवारण कर दिया है- इस बजट के बारे में हमारे संसदीय प्रवक्ता ने ठीक ही कहा है कि यह एक जन-विरोधी बजट है।
वित्त मंत्री ने रोजमर्रे के उपभोग की वस्तुओं पर टैक्स लगाकर जिस ‘‘साहस’’ का परिचय दिया है,उसके लिए पूंजीवादी समाचारपत्रों ने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। समाचापत्रों की रिपोर्ट के अनुसार शेयर-बाजर में ‘‘स्पष्ट रुप से अनुकूल’’ प्रतिक्रयाएं व्यक्त की गयीं। जो हो, वित्त मंत्री का यह ‘‘साहस’’ केवल गरीबों और आम लोगों के मार्ग में ही रुकावटें पैदा करता है और वे उस साहस के माध्यम से शेयर-बाजार के बड़े-बड़े पूंजीपतियों और उद्योगपतियों का ही विश्वास प्राप्त करना चाहते हैं।
लोग यह सवाल पूछ रहे हैंः जब तीसरे चुनाव के महज एक साल पहले कांग्रेस सरकार जनता पर इस तरह का अन्यायपूर्ण बोझ लाद रही है, तो चुनाव के बाद, पांच साल के लिए सत्ता पर बैठने का नया अधिकार-पत्र प्राप्त कर, वह क्या करेगी?
यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि विश्व बैंक के सुर में सुर मिलाते हुए घोर दक्षिण पक्षी तत्व योजना के विचार को ही, भारी तथा बुनियादी उद्योगों के विकास के विचार को ही बदनाम करने पर तुल गये हैं। वे जनता पर बोझ नहीं लादने की दलील पेश कर अपने पतनशील नारों का औचित्य सिद्ध करने की कोशिश करते हैं। सरकार की कराधान-नीति के कारण बहुत-से लोग योजना के विरोधी हो गये हैं।
इस स्थिति में हमें क्या करना चाहिए? हमारे मुख्य नारे क्या होने चाहिये और हम यह कैसे सुनिश्चित करें कि इन नारों के कार्यान्वयन के लिए एक जबर्दस्त आन्दोलन खड़ा करना जरुरी है?
इन सवालों का जवाब देने के लिए हाल की कुछ बहुत ही महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाओं की समीक्षा करना, वर्तमान राजनीतिक स्थिति के व्यापक स्वरुपों की जांच-पड़ताल करना और जन-आन्दोलन की स्थिति का मूल्यांकन करना जरुरी है।
हाल की राजनीतिक घटनाएं
इस स्थल पर पिछले तीन वर्षों की राजनीतिक घटनाओं का सविस्तार वर्णन संभव नहीं है। फिर भी, हम उनमें से कुछ बहुत प्रमुख घटनाओं का उल्लेख करेंगे।
पिछले तीन साल पहले जब हम अमृतसर में मिले थे, तब विगत लंबे समय के मुकाबले मे राजनतिक स्थिति, कई मामलों में, हमारे बहुत अनुकूल थी। प्रायः सभी राज्यों में पार्टी की आंतरिक स्थिति भी इसी तरह की थी। हमारी पार्टी को पहले चुनाव के मुकाबले में दूसरे आम चुनाव में न केवल दुगुने वोट मिले, बल्कि मजदूर वर्ग में अकेली सबसे बड़ी शक्ति के रुप में हमने अपना स्थान ग्रहण किया। जिन अनेक राज्यों में हम बहुत ही कमजोर थे, वहां हमारी स्थिति में ठोस परिवर्तन हुए। सबसे बड़ी बात थी कि हमने एक राज्य केरल में अपनी सरकार सथापित करने में सफलता प्राप्त की। वह एक ऐसी सरकार थी, जो मजदूर-वर्ग और उसकी पार्टी के नेतृत्व में मजदूरों, किसानों और आम लोगों का प्रतिनिधित्व करती थी, लेकिन वह सरकार पूंजीवादी संविधान के ढांचे के अंतर्गत और राजसत्ता के अंगों पर प्रभावोत्पादक नियंत्रण के अभाव में ही काम करने लिए मजबूर थी। उस सरकार का नेतृत्व कम्युनिस्ट पार्टी तो करती थी, लेकिन उसके अधिकार बहुत सीमित थे- यही केरल सरकार की विशेषता थी। इसके अतिरिक्त भारतीय गणतंत्र का संपूर्ण वित्तीय ढांचा ऐसा है कि राज्य सरकारों की आय के स्त्रोत बिल्कुल सीमित हो जाते हैं। लेकिन इन सीमाओं के बावजूद, अमृतसर में हमने जो राजनीतिक प्रस्ताव स्वीकृत किया, उसमें ‘‘हाल के वर्षों की सबसे प्रमुख घटना’’ के रुप में कम्युनिस्टों के नेतृत्व मे केरल सरकार की स्थापना का सही चित्रण किया गया था। प्रस्ताव में कहा गया थाः ‘‘केरल सरकार द्वारा प्रतिपादित नीतियों और अपने एक साल के कार्यकाल में उसके द्वारा उठाये गये कदमों ने संपूर्ण देश की जनता पर गहरा प्रभाव डाला, हर राज्य के असंख्य लोगों की सहानुभूति अर्जित की ओर कांग्रेस कर्मियों के एक हिस्से को इतना प्रोत्साहित किया कि वे सरकार की प्रतिक्रियावादी नीतियों के आलोचक हो गये।’’
हमने आगे कहा: ‘‘स्पष्टतः इन कारणों से केरल सरकार को सत्ताच्युत करने का पूरा प्रयास किया जा रहा है। छोड-छाड़, घूसखोरी, मिथ्या प्रचार, टकराव, हत्या आदि सभी प्रकार के हथकंडे अपनाये जा रहे हैं। वे धमनिरपेक्षता का समर्थन करने के बाद भी विदेशी बगान-मालिकों और घोर प्रतिक्रियावदी कैथेलिक धर्मालंबियों से भी सांठ-गांठ करने से बाज नहीं आते हैं। अपने अंध कम्युनिस्ट-विरोध का परिचय देते हुए और अपने पूर्व घोषित आदर्शो को तिलांजलि देते हुए केरल प्रजा-सोशलिस्ट पार्टी ने अखिल भारतीय प्रजा-सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं के आशीर्वाद प्राप्त कर इस अपवित्र गठबंधन में शामिल हो गयी है।’’
इन बातों की ओर और भारत सरकार के भेदभावमूलक दृष्टिकोण की ओर भी
ध्यान आकृष्ट करते हुए हमने जोर देते हुए कहाः ‘केरल के अनुभवों ने यह भी बतला दिया है कि निहित स्वार्थवादी तत्व जनवादी शक्तियों के पक्ष में हुए चुनाव के फैसलों का अनिवार्य रुप से आदर नहीं करते हैं। इन फैसलों की रक्षा जन-आंदोलनों के माध्यम से ही की जा सकती है।’’
बाद में जो कुछ भी हुआ, उससे यह सिद्ध हो गया कि हमारी उपर्युक्त मान्यताएं सही थीं। लेकिन हमें यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि हमने अपने प्रस्ताव में जो कुछ भी लिखा, उसके बावजूद केरल में पार्टी के भीतर और केंद्रीय नेतृत्व के बीच में यह प्रवत्ति काम कर रही थी कि केरल सरकार पर निहित स्वार्थवादी तत्वों और कांग्रेस के शीर्षस्थ नेताओं तथा केंद्रीय सरकार के पूरे सहयोग और क्रियात्मक समर्थन के साथ राज्य कांग्रेस के नेतृत्व में विरोधी पार्टियों के हमले का रुप बहुत भयानक नहीं होगा। हमने खासकर अमृतसर कांग्रेस के कुछ हफ्तों के बाद, संपन्न हुए देवीकुलम उपचुनाव में अपनी सफलता के उपरांत सोचा था कि हमारे विरोधियों का मनोबल टूट जायगा और अभी कम-से-कम कुछ समय तक वे हमारे मंत्रिमंडल को समाप्त करने के प्रयास नहीं करेंगे।
यही कारण है कि जब ‘‘नाव-भाड़ा’’ के नाम पर आंदोलन छेड़कर हमारे मंत्रिमंडल पर चारों ओर से बड़े पैमाने पर हमले बोल दिये गये, तो हम स्तब्ध रह गये। आन्दोलनकारियों का एक नारा था कि कंेद्रीय सरकार को केरल के मामले में अवश्य हस्तक्षेप करना चाहिए। स्वयं श्री नेहरु ने सभी सांविधानिक मर्यादाओं को ताक पर रखते हुए केरल सरकार पर खुलेआम हमले बोल दिये।
अगस्त, 1958 में त्रिवेन्द्रम की बैठक में हमारी पार्टी की केंद्रीय कार्यसमिति ने इन घटनाओं की समीक्षा की। उसने इंगित किया कि आज आम जनता के सम्मुख सबसे बड़ा सवाल यह है कि ‘‘क्या एक गैर-कांग्रेसी लोकप्रिय सरकार को, जो प्रमुख रुप से मजदूरों किसानों, मध्यम वर्ग के लोगों और मेहनतकश लोगों के दूसरे हिस्सों का प्रतिनिधित्व करती हो, संविधान के अंतर्गत काम करने की इजाजत दी जायगी या नहीं?’’
केरल सरकार की उपलब्धियों को उजागर करने के लिए और कांग्रेस तथा प्रजा-सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं द्वारा फैलायी गयी झूठी बातों का सही उत्तर देने के लिए पूरे देश में एक विशाल आन्दोलन शुरु हो गया। इस तरह हमारे मंत्रिमंडल के खिलाफ जो हमला हो रहा था, उसे कुछ समय के लिए विफल कर दिया गया।
फिर भी, हमें यह पता था कि कुछ समय के लिए हमें जो यह राहत मिली है, वह अस्थायी है। इसलिए हमने यह आवश्यक समझा कि हम अपने केरल-मंत्रिमंडल के कार्यों की सही समीक्षा करें, अपनी गलतियों और कमजोरियों को दूर करने का प्रयास करें और पूरी पार्टी को चैकस करें। यह काम एक खास सीमा तक केंद्रीय कार्यसमिति और केरल राज्य समिति के सदस्यों के संयुक्त प्रयास से पूरा किया गया। इसके फलस्वरुप केरल-संबंधी वह रिपोर्ट सामने आयी, जिसे अक्टूबर, 1958 में मद्रास में राष्ट्रीय परिषद की बैठक में प्रस्तुत किया गया और जो सर्वसम्मति से स्वीकृत की गयी।
रिपोर्ट में कहा गया था कि कई कमजोरियों और गलतियों के बावजूद ‘‘कुल मिलाकर पार्टी और केरल सरकार की मिसाल बहुत कठिन परिस्थितियों और अपार कठिनाइयों के बीच में हासिल की गयी ठोस उपलब्धियों की मिसाल है। यह एक ऐसी मिसाल है, जिस पर हमारी पार्टी सही गर्व का अनुभव कर सकती है। केरल के इतिहास में पहली बार एक निष्कलंक और ईमानदार सरकार स्थापित हुई है। पहली बार मारने-पीटने, यंत्रणा देने, लूट-खसोट आदि करने वाली पुलिस के असीम अधिकारों को खत्म किया गया है और जनता पुलिस के उत्पीड़न से मुक्त होकर अपने को सुरक्षित अनुभव कर रही है। सरकार ने व्यवाहारिक रुप से मजदूरों की मदद की है, जिसमें सभी उद्योगों में उनके वेतन में वृद्धि हो। बेदखली रोक दी गयी है और कार्यसूची में जिन भूमि-सुधारों को दर्ज किया गया है, उनसे आम किसानों को पर्याप्त लाभ होगा। खेत-मजदूरों को आश्वस्त किया गया है कि उन्हें न्यूनतम मजदूरी मिलेगी। शिक्षक, छात्र, सरकारी कर्मचारी और आम जनता सभी लाभान्वित हुए हैं।’’
इन सभी कारणों से और एक तरफ केरल तथा दूसरी तरफ कांग्रेस द्वारा शासित अन्य राज्यों की सुस्पष्ट भिन्नताआंे के कारण केरल ने हमारी राष्ट्रीय राजनीति में एक प्रमुख स्थान ग्रहण कर लिया था और वह सभी राज्यों के जनगण को बड़े पैमाने पर प्रभावित कर रहा था।
स्पष्टतः इसलिए आगे की कठिनाईयों के बारे में सभी गलत धारणाओं से परहेज करना आवश्यक था। रिपोर्ट में इंगित किया गया:
‘‘हमारी पार्टी में एक ऐसी धारणा पनप गयी, जिसे धीरे-धीरे चलने की सुविधावादी धारणा और न्यूनाधिक निरापद विकास के मार्ग पर चलने की धारणा कह सकते हैं। हममें यह धारणा घर कर गयी कि जनता की अधिकाधिक भलाई करते हुए हम प्रगतिशील दृष्टिकोण से बहत ही दृढ़ एकता स्थापित कर सकते हैं और अपने विरोधियोंको अधिकाधिक विलग की सकते हैं। हमने यसह भी समझ लिया कि इस तरह विरोधियों का ज्यादा-से-ज्यादा विलगाव होने से उनकी प्रतिरोध-शक्ति का हृास होगा। यह भी सोच लिया गया कि केरल सरकार का विरोध करने वाली पार्टियों में इतने गहरे आपसी मतभेद हैं और उनके अन्तर्विरोध इतने तीव्र हैं कि वे एक नहीं हो सकते हैं। इसके फलस्वरुप उन्हें विभाजित करने के सिलसिले में हम आत्मतुष्टि की भावना के शिकार हो गये और हमारे जोरदार प्रयासों में कमी आ गयी।’’
आत्मतुष्टि की इस तरह की सभी भावनाओं को दूर करने की आवश्यकता पर बल देते हुए रिपोर्ट में सावधान किया गया: ‘‘हमारी सरकार को परास्त करने के लिए हर तरह के दृढ़ प्रयास अवश्य किये जायेंगे और इसके लिए अथक रुप से संविधान की दुहाई देने वाले सत्ताधारी वर्गों द्वारा अपनाये जाने वाले असांविधानिक और हिंसात्मक तरीकों के साथ-साथ अन्य सभी प्रकार के हथकंडे भी अपनाये जायेंगे।’’
रिपोर्ट में पार्टी और केरल मंत्रिमंडल के तात्कालिक कत्र्तव्यों की रुपरेखा भी प्रस्तुत की गयी।
इसमें संदेह की तनिक भी गुंजाइश नहीं हो सकती कि इस नयी समझदारी ने केरल में अपने कार्य को सुधारने में हमारी बहुत मदद की और उसने जून, 1959 में हमले का मुकाबला करने के लिए भी हमें तैयार किया।
यह मार्के की बात है कि कृषि सुधार संबधी विधेयक पेश करने के अवसर पर यह हमला बोलने का निश्चय किया गया।
पहले की ही भांति इस हमले का भी उद्देश्य था कि हमारे मंत्रिमंडल को खत्म कर दिया जाय। लेकिन इस बार बड़े पैमाने पर हमले की तैयारियां की गयी थीं। हमारे मंत्रिमंडल का विरोध करने वाली सभी ताकतें एक हो गयी थीं। सबसे बड़ी बात यह थी कि इस बार कांगे्रस के अखिल भारतीय नेताओं और सरकार का उन्हें खुला और मुखर समर्थन प्राप्त था। प्रधान मंत्री नेहरु ने, जो निरपवाद रुप से उचित और जायज मांगों के आधार पर भी छेड़े जानेवाले सभी जन-संघर्षों की निन्दा करते हैं, कानूनी तौर पर संघटित मंत्रिमंडल को खत्म करने के इस प्रयास को एक ‘‘जन-उभार’’ कहा।’’
‘‘सुक्ति-संघर्ष’’ शुरु होने के दो सप्ताह पूर्व प्रकाशित अपने एक पैम्फलेट में हमने उस षड्यंत्र का पर्दाफाश किया था, जो हमारे विरुद्ध रचा गया थाः
‘‘केरल मंे कांग्रेस पार्टी कांग्रेस के शीर्षस्थ नेताओं के आशीर्वाद प्राप्त कर और अंग्रेज बगान-मालिकों, भूस्वामियों तथा अन्य निहित स्वार्थवार्दी तत्वों से धन लेकर और प्रजा-सोशलिस्ट पार्टी, क्रांतिकारी सोशलिस्ट पार्टी तथा प्रतिक्रिया की काली ताकतों से मिलकर, उपद्रव करने और जानबूझकर अशांति तथा अराजकता की स्थिति उत्पन्न करने के लिए तत्पर हो गयी है। उसी कांग्रेस पार्टी द्वारा संचालित केंद्रीय सरकार केरल मंत्रिमंडल को, अराजकता की स्थिति को दबाने में उसकी तथाकथित विफलता के नाम पर, बर्खास्त करने के लिए कदम उठायेगी।’’
उन्होंने साम्प्रदायिक उत्तेजना और धर्मोन्माद फैलाते हुए तथा जनता के एक हिस्से को गुमराह करते हुए, प्रशासल को ठप करने और सरकार को उखाड़ फेंकने के कट्टर मनसूबे के साथ, संघर्ष छेड़ दिया। उन्होंने आतंक, शिक्षकों और छात्रों पर प्रहार, पत्थरबाजी तथा आगजनी जैसी कार्रवाइयों के द्वारा अनेक स्कूलों को बंद करवा दिया। बड़ी संख्या में बसोें और नावों को क्षतिग्रस्त किया गया। यात्रियों को पीटा गया। शांतिपूर्ण धरने के नाम पर वे सरकारी दफ्तरों पर धावे बोलने लगे, फर्नीचर तोड़ने लगे और गुण्डों की तरह बिलकुल बेशर्म होकर नाच दिखलाने लगे।
भूस्वामियों ने फसल की बोआई बंद करने की धमकी दी। बैंकों ने घोषणा कर दी कि वे विकास के लिए कर्ज नहीं देंगे। अफसरों को सरकार के खिलाफ भड़काया गया; धमकियां दी गयी कि सरकारी आदेश का पालन करने वालों के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई की जायगी।
इस प्रकार सामान्य जीवन में गतिरोध पैदा करने के प्रयास किये गये और असुरक्षा, अशांति तथा अराजकता की स्थिति उत्पन्न की गयी।
यदि संघर्ष के प्रारंभिक दौर में अथवा यों कहें कि संघर्ष शुरु होने के बहुत पहले से ही प्रायः प्रकट रुप में केंद्रीय हस्तक्षेप की धमकी नहीं दी जाती तो यह सब कुछ असंभव था। केंद्रीय हस्तक्षेप का भरोसा ही संघर्ष का आधार बन गया। केंद्रीय सरकार के नेताओं, कंेद्रीय संसदीय दल के नेताओं और प्रधानमंत्री नेहरु द्वारा लगातार दिये गये वक्तव्यों से यह विश्वास और पक्का हो गया, सरकारी विभागों में निराशा व्याप्त हो गयी और यह धारणा जग गयी कि यदि कानून और व्यवस्था की स्थिति में और गिरावट आयी, तो कंेद्रीय हस्तक्षेप में अब देर नहीं होगी।
फिर भी, आन्दोलन के आयोजकों ने जितनी जल्दी की उम्मीद की थी, केंद्रीय सराकर उतनी जल्दी हस्तक्षेप नहीं कर सकी। इसका प्रमुख कारण यह था कि देश के भीतर केरल सरकार को अपार समर्थन प्राप्त था, जिसकी अभिव्यक्ति देश के सभी भागों में केरल सरकार के पक्ष में आयोजित अनेक सभाओं, जनवाद प्रेमी तत्वों के प्रबल विचारों और विभिन्न समाचारपत्रों तथा कई कांग्रेसी नेताओं के साथ ही लब्धप्रतिष्ठ सार्वजनिक व्यक्तियों द्वारा किये गये कांग्रेस के दांवपेंचों की तीखी आलोचनाओं में हुई।
कांग्रेस पार्टी के स्थिर स्वार्थों की रक्षा की दृष्टि से भारतीय संविधान की आत्मा की अवहेलना कर 31 जुलाई 1959 को केरल मंत्रिमंडल को बर्खास्त कर दिया गया, जिसके फलस्वरुप क्रोध और क्षोभ की ऐसी लहर दौड़ गयी, जैसा कि पिछले अनेक वर्षों में नहीं देखी गयी थी। 3 अगस्त, 1959 को पूरे देश में विरेाध-स्वरुप सभाएं और प्रदर्शन आयोजित किये गये। कलकत्ते का प्रदर्शन महानगर के अब तक के सभी प्रदर्शनों से विशाल था और संभवतः स्वाधीनता प्राप्ति के बाद का, भारत का, सबसे बड़ा प्रदर्शन था। दिल्ली के संसद-अभियान में तीस हजार लोग शामिल हुए।
सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी के भी बहुत से सदस्य क्षुब्ध थे। जब केरल मंत्रिमंडल की बर्खास्तगी के दो रोज बाद 2 अगस्त को दिल्ली में कांग्रेस संसदीय दल की बैठक हुई, तो कई सदस्यों ने खुलेआम इस घटना का विरोध किया। नयी दिल्ली-स्थित हिन्दू के संवाददाता ने बैठक की रिपोर्टिंग करते हुए लिखाः ‘‘आज अपहरण काल में कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में संदस्यों ने प्रधानमंत्री के भाषण पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की। कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में इससे पहले शायद ही ऐसा दृश्य देखने को मिला हो।’’
इस प्रकार केरल की घटनाओं ने दो तथ्यों को उजागर किया:पहला, सत्ताधारी वर्ग- जो गांधीवादी परंपराओं का पोषक और अहिंसा तथा सहिष्णुता का प्रवक्ता माना जाता है- किसी भी सीमा तक जा सकता है। दूसरा, हमारे देश के विविध वर्गों और विभिन्न राजनीतिक पार्टियों का अनुसरण करने वाले लोगों के बीच में जो जबर्दस्त जनवादी चेतना मौजूद है, उसी का उपयोग करते हुए सत्ताधारी वर्गों के दांवपेंचों का मुकाबला किया जा सकता है। हमें दोनों बातों का महत्व समझना पड़ेगा।
साथियों हमारे देश के संपूर्ण राजनीतिक जीवन के 28 महीनों में केरल ने जिस कठिन भूमिका का निर्वाह किया है, उसी को देखते हुए मैंने कुछ विस्तार के साथ केरल की, अपने मंत्रिमंडल की बर्खास्तगी तक की घटनाओं का वर्णन किया है। केरल की उस भूमिका ने सभी राज्यों के जनवादी आन्दोलन को अपार प्रेरणा प्रदान की है और हमारी पार्टी की प्रतिष्ठा को नयी ऊंचाईयों पर पहुंचाया है।
इसी अवधि में हमारी पार्टी ने और भी कई बड़े-बड़े संघर्ष और आन्दोलन किये। उनमें से कुछ का इस स्थल पर उल्लेख किया जा सकता है।
जखीरेबाजों और मुनाफाखोरों की काली करतूतों के कारण 1958 के ग्रीष्मकाल में उत्तर प्रदेश में अनाज की कीमतें आसमान छूने लगीं, जिसके विरोध में हमारी पार्टी के नेतृत्व में एक विशाल सत्याग्रह-आन्दोलन हुआ। यह हिन्दी-भाषी क्षेत्र में हमारी पहल पर पहला राज्य-व्यापी संघर्ष था। इस संघर्ष में लाखों लोगों ने भाग लिया, हमारे कई हजार पार्टी-सदस्य, जुझारु कार्यकत्र्ता, समर्थक और अन्य लोग गिरफ्तार किये गये। प्रारंभ में प्रजा-सोशलिस्ट पार्टी इस आन्दोलन से अलग रही। बाद में वह स्वतंत्र रुप में शामिल हुई, लेकिन उसकी साझीदारी प्रतीकात्मक अधिक थी। खाद्य-आन्दोलन का राज्य के राजनीतिक जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा। सरकार ने बेमन से ही सही, लेकिन खाद्य-समस्या की ओर ध्यान दिया और कुछ कदम उठाने के लिए भी तत्पर हुई। इस संघर्ष ने यह सिद्ध कर दिया कि यदि राज्य के अधिकतर लोगों को प्रभावित करने वाली जटिल समस्याओं को लेकर पार्टी के नेतृत्व में सत्याग्रह जैसा भी प्रत्यक्ष संघर्ष किया जाय,तो उस संघर्ष का दबाव सरकार पर पड़ेगा और उसके फलस्वरुप पार्टी की प्रतिष्ठा में वृद्धि होगी।
अनाज का अभाव केवल उत्तर प्रदेश तक ही सीमित नहीं था। 1958 के ग्रीष्मकाल में कई अन्य राज्यों पर भी उसका असर था, लेकिन हम सर्वत्र जन असंतोष को रुप और दिशा देने तथा एक सुदृढ़ जन-आन्दोलन विकसित करने में सफल नहीं हो सके। बंगााल का आन्दोलन अवश्य ही बहुत मजबूत आन्दोलन था, इस तथ्य के बावजूद कि वह बहुत बाद में शुरु किया गया। कलकत्ता और अन्य जिलों में भी खाद्य प्रदर्शन हुए।
1959 में बंगाल में आकार-प्रकार और पैमाने की दृष्टि से विशाल खाद्य-आन्दोलन हुए। संपूर्ण राज्य में प्रत्यक्ष संघर्ष, कलकत्ते में लगभग दो लाख लोगों का प्रदर्शन, लोगों द्वारा पुलिस के हमलों का अडिग भाव से प्रतिरोध, अनेक जिलों में लाठी-चार्ज, अखिल बंग शहीद दिवस के प्रदर्शन में कलकत्ते में 80 व्यक्तियों की मृत्यु और 200 व्यक्तियों के गंभीर रुप से घायल होने की घटनाओं, हड़तालों, मजदूर-संघर्षों, लगभग बीस हजार लोगों की गिरफ्तारी- इन सभी घटनाओं ने यह सिद्ध कर दिया कि स्वातं×योत्तर काल का यह सबसे बड़ा जन-संघर्ष था। इस संघर्ष ने जनता के अपार कष्टों और उन कष्टों के लिए जिम्मेदार तत्वों के विरुद्ध संघर्ष करने के उसके दृढ़ संकल्प को पूरी तरह उजागर कर दिया। आन्दोलन को कुचलने के लिए सरकार द्वारा उठाये गये कदमों की इतने व्यापक रुप से भत्र्सना की गयी कि सामान्य रुप से सरकार का समर्थन करने वाले कई पूंजीवादी समारपत्रों ने भी सरकारी कदमों की तीखी आलोचना की। खाद्यमंत्री और पुलिस मंत्री के इस्तीफे की मांग बुलंद की गयी, जिसका लोगों ने बड़े पैमाने पर समर्थन किया। हमारी पार्टी ने इस संपूर्ण संघर्ष में प्रमुख भूमिका का निर्वाह किया और उसे कई वामपंथी पार्टियों का समर्थन प्राप्त हुआ। पश्चिम बंगाल की प्रजा-सोशलिस्ट पार्टी के नेता अपनी फूट और विश्वासघात के कारण लोगों के उपहास के पात्र बन गये।
1959 के प्रारंभिक दौर में पंजाब में खाद्य-आन्दोलन हुआ, जहा 1958 के अंतिम दिनों में ही खाद्य-स्थिति शोचनीय होने लगी थी। 1700 से भी अधिक लोग सत्याग्रह में शामिल हुए, लेकिन आन्दोलन सबसे तेज अमृतसर जिले में था, जहां 1100 सत्याग्रहियों ने आन्दोलन में भाग लिया। आन्दोलन के फलस्वरुप कई लाभ हुए और अनाजों के राजकीय व्यापार की मांग ने जोर पकड़ लिया।
तमिलनाडु पार्टी-सम्मेलन के फैसले के अनुसार सस्ती दर पर जनता को अनाज देने के लिए 1959 के ग्रीष्मकाल में व्यापक आन्दोलन हुआ। 12 जुलाई, 1959 को संपूर्ण राज्य में दाम घटाओ दिवस मनाया गया, इस अवसर पर 2000 पोस्टरों का प्रदर्शन किया; आन्दोलन को संखलित करने के लिये कई पार्टियों और संगठनों के प्रतिनिधित्व के आधार पर एक विशाल संयुक्त कमेटी स्थापित की गयी। सरकार एक खाद्य-समिति गठित करने के लिए सहमत हो गयी, जिसमें हमारे एक साथी सदस्य के रुप में नियुक्त किये गये। सस्ते गल्ले की कई दुकाने खोली गयीं।
1958 और 1959 में कई अन्य राज्यों में भी खाद्य-प्रदर्शन हुए। इन प्रदर्शनों के फलस्वरुप कीमतों की बेतुकी वृद्धि की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट हुआ, विधान-सभाओं और संसद में सरकार की खाद्य-नीतियों की तीखी आलोचनाएं की गयीं और जखीरेबाजों तथा मुनाफाखोरों के खिलाफ और खाद्यान्नों के राजकीय व्यापार के पक्ष में चारों ओर आवाज उठने लगी। इसमें कोई संदेह नहीं कि इन संघर्षों और प्रदर्शनों ने निर्विवाद रुप से सरकार को यह ऐलान करने के लिए मजबूर किया कि वह खाद्यान्नों का राजकीय व्यापार लागू करेगी। फिर भी, जैसा कि सर्वविदित है, सरकार ने अपने इस वचन का पालन नहीं किया और पी.एल. 480 के अंतर्गत अमेरिका से अनाज का आयात करने पर ही ज्यादा जोर दिया गया। 1960 में 50 लाख टन अनाज बाहर से मंगाया गया।
खाद्य-आन्दोलन की एक गंभीर कमजोरी जिससे खाद्य आन्दोलनों को क्षति उठानी पड़ी, यह थी कि अनेक केंद्रोें में बहुत ही कम संख्या में मजदूर उसमें शामिल हुए। कुछ स्थानों में व्यक्तिगत रुप से मजदूर सत्याग्रह में शामिल हुए, लेकिन 1959 में कलकत्ता को छोड़ कर और किसी भी दूसरे स्थान में मजदूरों ने हड़ताल के रुप में सामूहिक संघर्ष नहीं किया। इससे संघर्ष उस बुलंदी तक नहीं पहंुच सका, जिसकी अपेक्षा और संभावना थी।
दूसरी कमजोरी यह थी कि समन्वित कार्रवाई और पूरे देश के पैमाने पर प्रभावोत्पादक अभियान की कमी थी। ऐसे सवालों पर, जो कई राज्यों को प्रभावित करते हों, जब तक पार्टी ठोस योजना बनाकर उसे कार्यान्वित नहीं करती है तब तक आन्दोलन कुल मिला कर पूरे देश में और साथ ही हर राज्य में भी कमजोर ही रहेगा।
हाल के वर्षों में कई राज्यों में तुलनात्मक दृष्टि से अनाज की कीमतों में स्थिरता के बावजूद खाद्य-स्थिति बहुत ही असंतोषजनक ओर मौसम की स्थिति पर ही निर्भर रही है। यह सोचना बिलकुल गलत होगा कि समस्या का ‘‘समाधान’’ कर लिया गया है अथवा मूलगामी कृषि-सुधारों के बिना और सरकार की नीतियों तथा नीतियों के कार्यान्वयन में परिर्वतन किये बिना समस्या का समाधान किया जा सकता है। समस्या के समाधान के लिए बैंकों द्वाराा मिलने वाले कर्ज के मामले में भी परिवर्तन करने के लिए कदम उठाने की जरुरत है; क्योंकि बैंक सट्टेबाजों को ही सुविधाएं प्रदान करते हैं। सट्टेबाजी को खत्म करने के लिए बैंको का राष्ट्रीयकरण जरुरी है। तृतीय योजना में 1965-66 तक 1000-1050 लाख टन अनाज की पैदावार का आधारहीन वायदा किया गया। लेकिन पिछले दस वर्षों के वास्तविक कार्यों और आगे उठाये जाने वाले कदमों पर ठीक से विचार किये बिना इस काल्पनिक उड़ान पर कोई विश्वास ही नहीं कर सकता है।
इसलिए इस बात का पूरा खतरा है कि तृतीय योजना के कार्यान्वयन के दौर में भी खाद्य-समस्या बार-बार जटिल होगी। जनता को उस संकट का सामना करने के लिए तैयार करना होगा और खाद्य-समस्या के समाधान के लिए प्रभावोत्पादक कदम उठाने के लिए उन्हें एकजुट करना होगा। इस सिलसिले में हम पिछले आन्दोलनों के अनुभवों से बहुत लाभ उठा सकते हैं। अनाज के संबंध में अपने महत्वपूर्ण वादों के समर्थन में हमें ऐसा आन्दोलन शुरु करना चाहिए, जिसका क्रम कभी नहीं टूटे और जो पूरी शक्ति के साथ आगे बढ़ता रहे।
विविध आयामों वाला एक उल्लेखनीय संघर्ष वह था, जो 1959 की फरवरी में पंजाब में बेहतरी कर के नाम पर जनता पर अन्यायपूर्ण और भारी बोझ लादने के विरोध में शुरु हुआ था। वह तेलगांना के बाद हमारे देश का सबसे बड़ा किसान-संघर्ष था। उसने यह दिखला दिया कि सही मांगों के आधार पर किस प्रकार किसानों की एकता और संपूर्ण गांव की एकता व्यावहारिक दृष्टिकोण से स्थापित की जा सकती है तथा किस प्रकार जनता के अन्य हिस्सों का भी समर्थन प्राप्त किया जा सकता है। उस 48 दिवसीय संघर्ष के दौरान 17000 लोगों ने गिरफ्तारी के लिए सत्याग्रह में भाग लिया, जिनमें से 12000 व्यक्ति जेल में भेज दिये गये और 8 व्यक्ति पुलिस की गोलियों से मारे गये (जिनमें दो औरतें थीं)। वैसा किसान-संघर्ष पंजाब के इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ। संघर्ष में सभी विचारों और सभी राजनीतिक पार्टियों का अनुसरण करने वाले किसानों ने भाग लिया और किसानों की एकता इतनी व्यापक थी कि दो महीनों तक कांग्रेस उन गांवों में एक भी सभा नहीं कर सकी, जहां संघर्ष चल रहा था। संघर्ष की एक विशेषता यह थी कि उसमें भारी संख्या में किसान औरतें सक्रिय होकर शामिल थीं।
लेकिन, जिस समय संघर्ष पूरे उभार पर था, तभी पंजाब किसान-सभा की संघर्ष-समिति से विचार-विमर्श किये बिना और अखिल भारतीय किसान-सभा के तत्कालीन महासचिव कामरेड प्रसाद राव से, जो उस समय चंडीगंढ़ में थे, टेलीफोन पर बातचीत के बाद मेरी सलाह के मुताबिक उसे वापस ले लिया गया। इससे बहुत नुकसान हुआ। इसकेे लिए केंद्रीय कार्य समिति ने हम दोनों के काम के ढंग की सही आलोचना की है।
लेकिन इसके बाद भी आन्दोलन चलता रहा और यद्यपि सीधी कार्रवाई स्थगित कर दी गयी तथापि सभाओं, प्रदर्शनों, दौरों आदि के माध्यमों से आन्दोलन को जीवित रखा गया। इन सभी बातों के परिणामस्वरुप सरकार ने समस्या पर पुनर्विचार किया। कांग्रेस का अनुसरण करने वाले किसान भी लेवी का विरोध करने लगे, इससे स्वयं राज्य कांग्रेस को एक समिति गठित करनी पड़ी, जिसमें किसान-सभा के प्रतनिधि भी शामिल थे। जब्त की गयी संपत्ति वापस की गयी, जुर्माने रद्द कर दिये गये और बेहतरी कर की अग्रिम वसूली दोबारा स्थगित की गयी। सरकार द्वारा गठित समिति ने, जिसमें कांग्रेस कर्मी साथ ही किसान-सभा के प्रतिनिधि आदि शामिल थे, कई सिफारिशें प्रस्तुत कीं। इसलिए यह कहा जाएगा कि आन्दोलन ने कुछ कामयाबियां हासिल कीं, लेकिन हमें देखना है कि सरकार आगे क्या करने जा रही है।
प्रथम आम चुनाव के समय बिहार में हमारी पार्टी बहुत कमजोर थी, लेकिन दूसरे आम चुनाव में उसने अपनी स्थिति बहुत-कुछ सुधार ली। 1958 के आखिर में पार्टी का राज्य-सम्मेलन हुआ, जिसमें राज्य की स्थिति, पार्टी की गतिविधियों और मुख्यतः अनाज के सवाल पर पार्टी की भूमिका पर विचार-विमर्श किये गये। सम्मेलन इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि यदि किसी बड़े क्षेत्र की जनता के बीच में किसी सवाल पर घोर असंतोष हो, तो पार्टी के लिए इस तर्क के आधार पर सीधी कार्रवाई से विरत हो जाना ठीक नहीं है कि विरोधी जनवादी पार्टियां एकमत नहीं हैं। उल्टे, यदि पार्टी एकता की स्थापना के लिए लगातार अपील और प्रयास करते हुए साहस के साथ संघर्ष को संगठित करने के लिए नेतृत्व करे, तो एकता की शक्तियों को उत्पे्रेरित किया जा सकता है।
इस समझदारी के आधार पर अपनी नेतृत्वकारी भूमिका का निर्वाह करते हुए हमने भूमि, टैक्स,कीमत, नागरिक आजादी और ट्रेड यूनियन-अधिकार से संबधित सरकारी नीतियों के विरोध में 1959 के मार्च में विधान-सभा के सामने 25000 का एक शानदार प्रदर्शन आयोजित किया। पटना में बाजारों में पूरी हड़ताल रही। 15 अप्रैल को 110 शहरों और बाजारों में हड़तालें हुईं।
इन प्रदर्शनों और संघर्षों ने उन नये अन्यायपूर्ण टैक्सों के विरोध में सत्याग्रह का आधार तैयार कर दिया, जो लोगों पर, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों पर लाद दिये गये थे। पूरे राज्य में लगभग 11500 लोग सत्याग्रह में शामिल हुए। प्रत्येक जिला-मुख्यालय में सत्याग्रह का आयोजन किया गया। कई बड़ी-बड़ी रैलियां हुईं। बिहार पार्टी के पूरे इतिहास में पार्टी द्वारा संगठित यह सबसे विशाल आन्दोलन था। दुर्भाग्यवश, संघर्ष शुरु होने के पहले ही भारत-चीन सीमा-विवाद ने जटिल रुप धारण कर लिया ओर उससे कांगे्रसी नेताओं को जनता का ध्यान दूसरी ओर मोड़ने का मौका मिल गया। इस विकट स्थिति ने संघर्ष को कुछ कमजोर कर दिया। फिर भी संघर्ष के फलस्वरुप कुछ सफलताएं अर्जित की गयीं।
इस अवधि में लेवियों और टैक्सों के विरोध में जो संघर्ष हुए, वे किसी भी दृष्टिकोण से व्यापक और बहुल संख्यक नहीं थे। फिर भी, उनसे हमें जो शिक्षा मिली, वह भविष्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।
हम कई बार इस तथ्य की ओर इंगित कर चुके हैं कि राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के साधनों की प्राप्ति के लिए सरकार जो तरीके अपनाती है, उनमें उसकी जन विरोधी और जनवाद-विरोधी नीतियां स्पष्ट रुप से प्रतिबिंबित होती हैं। यही बात द्वितीय योजना के समय भी देखी गयी। तृतीय योजना में भी वही बातें प्रतिबिंबित हो रही हैं।
द्वितीय योजना-काल में जनता पर जो अतिरिक्त टैक्स लादे गये, वे पहले की अपेक्षा बहुत अधिक (450 करोड़ के मुकाबले में 1040 करोड़ रुपये के) थे। तृतीय योजना ने पांच वर्षों में 1650 करोड़ रुपये की सीमा तक और भी अतिरिक्त टैक्स लादने का प्रस्ताव किया है। इस बात की पूरी संभावना है कि टैक्सों का वास्तविक बोझ इससे भी अधिक होगा और पहले की ही तरह इसका अधिकांश भाग आम जनता पर लादा जायगा। राष्ट्रीय पुननिर्माण के नाम पर और ‘‘त्याग’’ तथा ‘‘उपयोग में बचत’’ का तर्क पेश कर विशाल जन-समूह को और दबाया जायगा- जबकि साथ-ही-साथ पूंजीपतियों को, खास कर बडे़ पंूजीपतियों को ‘‘बढ़ावा’’ दिया जायगा। यह ध्यातव्य है कि बड़े पूंजीपतियों ने अब तक जो कुछ भी हासिल किया है, उससे वे संतुष्ट नहीं हैं, इसलिए वे हमलावर रुख अख्तियार कर रहे हैं। भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग मंडल महासंघ ने अपने वार्षिक अधिवेशन में एक प्रस्ताव पास कर यह मांग की है कि ‘‘सरकार को अपनी कर-नीति के संदर्भ में बुनियादी आर्थिक साधन के रुप में व्यवस्था और जोखिम उठाने की क्षमता को मद्देनजर रखना चाहिए। व्यवस्था और जोखिम उठाने की क्षमता को प्रोत्साहन के द्वारा निर्मुक्त और संपोषित करने की जरुरत है, जिसमें उत्पादन से संबंधित कार्यकलापों में बड़े पैमाने पर पूंजी-निवेश की सफलता की संभावना पैदा की जा सके’’ (25 मार्च)। बडे पूंजीपति जनता पर अधिक बोझ लादने और धनवानों को अधिक छूट देने की मांग बुलंद कर रहे हैं। यदि सरकार मनमाने ढंग से काम करती रही, तो यही नीति चलती रहेगी।
ऐसी स्थिति में अन्यायपूर्ण टैक्सों के विरोध में संघर्ष और जनता के जीवन स्तर पर हमला बोलने वाली एवं अमीरों को और अमीर तथा गरीबों को और गरीब बनाने वाली नीतियों के विरोध का मसला पहले कभी से अधिक महत्व ग्रहण कर लेगा। आने वाले दिनों में हमारी पार्टी का, जन-संगठनों का और सभी जनवादी शक्तियों का यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण काम होगा।
इस संबंध में मतभेद की गंुजाइश नहीं है कि हमारी अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण के लिए अपार साधनों की जरुरत है और इन साधनों को मुख्यतः देश के भीतर ही प्राप्त किया जा सकता है। जाहिर है कि इस मामले में हम जागरुक हैं और हमारी पार्टी ने कई बार ऐसे साधनों को बढ़ाने के लिए ठोस सुझाव दिये हैं। हमने निर्धारित बैंकों के राष्ट्रीयकरण, खाद्यान्नों के राजकीय व्यापार, विदेशी संस्थाओं पर राष्ट्रीय नियंत्रण, कुछ उद्योगों के राष्ट्रीयकरण, आय की हदबंदी, बड़े भूस्वाममियों के मुआवजों तथा राजाओं के प्रिवी पर्स की समाप्ति आदि जैसे कदम उठाने के सुझाव दिये हैं। सरकार ने इनमें से अनेक सुझावों तथा अन्य प्रस्तावों पर गंभीरता पूर्वक विचार तक नहीं किया। खाद्यान्नों के राजकीय व्यापार को केवल कागज पर ही स्वीकार किया गया, लेकिन उसे व्यवहार में नहीं लाया गया। ये सब इसलिए नहीं हुआ कि हमारे सुझाव अव्यवहारिक थे, बल्कि इसलिए कि उनमें उन वर्गों के हितों पर आघात पहुंता था, जिनकी सरकार रक्षा करना चाहती थी और जिनके हितों कीे हिफाजत करना वह अपना कर्तव्य समझती है।
अन्यायपूर्ण टैक्सों के बोझ के विरोध में संगठन और अपने ठोस वैकल्पिक सुझावों के पक्ष में जनानुमोदित संगठन - ये उसी संघर्ष के दो अन्योन्याश्रित अंग हैं। दोनों कत्र्तव्यों का निर्वाह किये बिना हम न तो जनता की हिफाजत कर सकते हैं और न पूंजीपति वर्ग के सैद्धांतिक आक्रमणों को विफल कर सकते हैं। इसके बिना अन्यायपूर्ण बोझों के विरोध में संघर्ष व्यापक जन-आनदोलन के धरातल तक नहीं पहुंच सकता है। हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि हम लोगों ने इस संबंध में अब तक बहुत कम काम किया है। दूसरे आम चुनाव के दौरान सफाई देने के लिहाज से कुछ काम किया गया था, लेकिन उसके बाद संसद में कुछ भाषणों तथा अपने अखबारों में कुछ लेखों के अतिरिक्त इस काम की ओर बहुत ही कम ध्यान दिया गया।
इस भाषण में अमृतसर के बाद की अवधि में और केरल मंत्रिमंडल की बर्खास्तगी तक पार्टी द्वारा छेड़े गये सभी संघर्षों का वर्णन रखना संभव नहीं है। लेकिन मोटे तौर पर यह जोर देकर कहा जा सकता है कि कुल मिला कर अपनी अनेक कमजोरियों और दोषों के बावजूद जनता के बीच हमारी पार्टी के प्रभाव में तीव्र और लगातार वृद्धि हुई है। इस अवधि में सभी राज्यों में पार्टी की आंतरिक स्थिति के साथ-साथ पार्टी-केंद्र के कार्यों में भी यथेष्ट सुधार हुए हैं।
कांगे्रस पार्टी के नेताओं और कंेद्रीय सरकार की सहायता से प्रतिक्रांतिकारी संघर्ष के फलस्वरुप केरल के कम्युनिस्ट-संचालित मंत्रिमंडल की बर्खास्तगी के बाद भी यह प्रक्रिया समाप्त नहीं हुई बल्कि स्थिति यह हुई कि कांग्रेस के नेताओं को अपने बचाव की तैयारी में लग जाना पड़ा। केरल की रक्षा में और उसके बाद केरल सरकार की बर्खास्तगी के विरोध में संगठित आन्दोलन हमारी पार्टी द्वारा संचालित अब तक के सभी आन्दोलनों से कहीं विशाल थे। शायद स्वधीनता-प्राप्ति के बाद की कभी भी कांगे्रस और स्वयं नेहरु के विरोध में भी जनता में असंतोष का ऐसा तीव्र उभार नहीं देखा गया था। हमारे मंत्रिमंडल को बर्खास्त करने के बाद भी सत्ताधारी पार्टी की जीत का बड़ा सेहरा प्राप्त नहीं हो सका। राजनीतिक और नैतिक दृष्टिकोण से प्राप्त लाभ के बदले उसे बहुत नुकसान उठान पड़ा। हमारी पार्टी की प्रतिष्ठा पहले से भी कहीं अधिक बढ़ गयी।
लेकिन कुछ ही हफ्तों के भीतर स्थिति इस तरह बदल गयी कि हममें से किसी ने उसकी कल्पना भी नहीं की थी। इसका कारण भारत-चीन-विवाद था।
इस विवाद का भारत की राजनीतिक घटनाओं पर दूरगामी प्रभाव पड़ा। भारतीय जनतंत्र के पोषकों पर और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी पर इस विवाद ने जबर्दस्त आघात किये। इससे घोर प्रतिक्रियावादी तत्वों को हमारी विदेश-नीति पर खुलेआम हमला बोलने का साहस प्राप्त हुआ। प्रतिक्रियावादी तत्व पाकिस्तान के साथ ‘‘सुरक्षा-समझौता’’ करने के नारे भी बुलंद करने लगे। जनसंघ, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और साथ-ही-साथ दक्षिणपक्षी कांगे्रसी नेताओं ने इस विवाद से लाभ उठाकर संपूर्ण समाजवादी शिविर के विरुद्ध वैमनस्य का भाव जगाने का प्रयत्न किया- हालांकि सोवियत संघ के सही दृष्टिकोण और भारत की जनता की स्वस्थ्य भावनाओं के कारण अपने इस कार्य में वे सफल नहीं हुए।
केरल की घटनाएं और भारत-चीन के आपसी संबंधों में हृास - ये अमृतसर कांग्रेस के बाद की ऐसी दो सबसे बड़ी घटनाएं हैं, जिन्होंने भारत के राजनीतिक जीवन को पूरी तरह मथ दिया। पहली घटना ने पार्टी और जनवादी आन्दोलन के विकास में योगदान किया, लेकिन दूसरी घटना ने उनके विकास में रोड़े अटकाये। यह भी उल्लेखनीय है कि पहले सवाल पर पार्टी में पूरी एकता थी, जबकि दूसरे सवाल पर सभी स्तरों पर और प्रायः सभी राज्यों में गहरे मतभेद उत्पन्न हो गये। उन मतभेदों को हम अभी तक दूर नहीं कर सके हैं।
हमें ऐसे समय में केरल में चुनाव-अभियान और केरल-चुनाव के लिए अखिल भारतीय स्तर पर चंदा-संग्रह का अभियान शुरु करना पड़ा, जबकि चीन-विरोधी और कम्युनिस्ट-विरोधी आन्दोलन अपनी सर्वोच्च ऊंचाई पर था। लेकिन इसके बावजूद हमारे अभियानों ने जन-जीवन को बहुत प्रभावित किया। कामरेड ई.एम.एस. नंबूदिरिपाद जिस राज्य में भी गये, वहां उनके स्वागत में लोगों कीे अपार भीड़ उमड़ पड़ी। व्यावहारिक रुप से यह देखा गया कि हर राज्य में साथियों की आशा से भी अधिक चंदे की मोटी रकमें एकत्र की गयीं। हर राज्य के मेहनतकश लोगों ने अपने व्यापक समर्थन द्वारा एक बार पुनः यह सिद्ध कर दिया कि उनके लिए केरल की कम्युनिस्ट-संचालित सरकार का क्या महत्व था और वे कितने उत्कृष्ट भाव से चाह रहे थे कि सत्तारुढ़ रहे। केरल में, वहां की आम जनता और खासकर वहां के मजदूरों और मेहनतकश किसानों में उत्तेजना की प्रबल लहर दौड़ गयी थी। केरल के उस प्रबल जन-उभार ने पार्टी के नेताओं के हृदय में यह विश्वास पैदा कर दिया कि सभी बाधाओं के बावजूद हम चुनाव में विजयी होंगे।
इन चुनावों में पार्टी के उम्मीदवारों और पार्टी-समर्थित उम्मीदवारांे ने 35 लाख 40 हजार वोट प्राप्त किये, जबकि 1957 के चुनावों में पार्टी को 23 लाख 70 हजार वोट प्राप्त हुए थे। इसका अर्थ है कि इस बार 1957 की तुलना में 11 लाख 70 हजार अधिक वोट मिले। 1957 में हमें 40.75 प्रतिशत वोट मिले थे, जबकि 1960 में 43.81 प्रतिशत मिले। वोटो में वृद्धि होने से यह बात साफ-साफ सिद्ध हो जाती है कि कांग्रेस का यह प्रचार कितना झूठा था कि हमारे मंत्रिमंडल को जनता का समर्थन प्राप्त नहीं है, अतः उसे बर्खास्त कर देना चाहिए। जो भी हो, 1957 में प्राप्त 65 स्थानों के मुकाबले में इस बार हमें केवल 29 स्थान मिले (कुल स्थान 126)।
1957 के चुनावों की तुलना में 72 निर्वाचन-क्षेत्रों में हमारे वोटों की संख्या में वृद्धि हुई और 53 निर्वाचन-क्षेत्रों में वोटों की संख्या में हृास हुआ।
हमारी हार के कई कारण थे। एक सबसे बड़ा राजनीतिक कारण यह था कि कांग्रेस, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और मुस्लिम लीग के बीच गठबंधन कायम हो गया और इस गठबंधन के इर्द-गिर्द राज्य के सभी प्रतिक्रियावादी शक्तियों का जमघट लग गया। हर गांव और शहर में भूस्वामियों, धनाढ्य लोगों और उनके पिट्ठुओं ने खुलकर ऊधम मचाना शुरु कर दिया। सबसे गरीब लोगों पर सभी प्रकार के सामाजिक और आर्थिक दबाव डाले गये और उनके खिलाफ दमनात्मक तथा हिंसात्मक कार्रवाइयां भी की गयीं। हमें पराजित करने के लिए कंेद्रीय सरकार और कांग्रेस नेताओं ने भरसक हर तरह के हथकंडे अपनाये।
लेकिन इन सारी बाधाओं के बाद भी हमने ठोस संख्या और प्रतिशत दोनों ही दृष्टियों से अधिक वोट प्राप्त किये और यह हमारी एक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी, फिर भी, हम अपना मंत्रिमंडल पुनः गठित नहीं कर सके और चुनाव-परिणाम हमारे लिए तथा भारतीय जनतंत्र के लिए घोर निराशाजनक सिद्ध हुए।
कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा संचालित केरल की सरकार के प्रति निहित स्वार्थियों की घृणा का एक सबसे बड़ा कारण यह था कि उसने कृषि-सुधार के लिए सुझाव पेश किये थे। इन सुझावों के अनुसार, जो ‘‘मुक्ति संघर्ष’’ शुरू होने के ठीक पहले विधान-मंडल द्वारा पारित कर दिये गये थे, परिवार को आधार मानकर उचित स्तर पर हदबंदी तय की गयी, जीमन के हस्तांतरण पर पाबंदी लगा दी गयी, बगीचों, बागानों, ‘‘सुव्यवस्थित फार्मो’’, पशुपालन-केंद्रों आदि के नाम पर किसी भी तरह की छूट स्वीकार नहीं की गयी। जब यह विधेयक कानून बन जाता, तो उसके किसानों को बहुत लाभ होता। लेकिन कांग्रेसी नेता यह बिलकुल ही नहीं चाहते थे। मध्यावधि चुनावों में अपनी जीत के बाद निर्लज्ज होकर उन्होंने विधेयक में प्रस्तावित कृषि-सुधारों को दफनाने की साजिश शुरु कर दी।
केरल में हमारी पार्टी ने प्रतिक्रियावादियों द्वारा कृषि-सुधारों को चैपट करने के षड़यंत्रों का मुकाबला करने के लिए जबर्दस्त आन्दोलनप शुरु करने का निश्चय किया। यह आन्दोलन केरल के एक छोर से दूसरे छोर तक की पदयात्रा के रुप में परिणत हुआ। 1960 के 28 जून से 24 जुलाई तक कसरगोड़ से त्रिवेन्द्रम तक की लगभग 450 मील की दूरी किसानों के एक जत्थे द्वारा तय की गयी। अनेक सभाओं और छोटी-मोटी बैठकों के माध्यम से लाखों किसानों तथा खेत मजदूरों से संपर्क स्थापित किया गया। सभी धर्मों का अनुसरण करने वाले और सभी संस्थाओं से संबंध रखने वाले किसान इस अभियान से बहुत प्रभावित हुए; क्योंकि उन्होंने यह प्रत्यक्ष देख लिया कि किसी खास पार्टी अथवा सरकार के नहीं बल्कि उनके हित ही दांव पर हैं। मुस्लिम लीग और कैथेलिक चर्च के प्रभाव क्षेत्रों में भी जत्थे का हार्दिक स्वागत किया गया।
यह पदयात्रा चुनाव के बाद के दौर में केरल के राजनीतिक जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना थी। एक खास सीमा तक इसने विधेयक को निष्प्राण करने वालों को नियंत्रित किया। भारतीय गणतंत्र के राष्ट्रपति द्वारा भेजे गये संदेश के अनुसार इस विधेयक में कुछ सुधार किये गये। ये सभी सुधार पतनोन्मुख प्रवृत्ति के द्योतक थे, लेकिन सत्ताधारी मोर्चा जितनी दूर तक जाने की सोचता था, उतनी दूर तक जाने की हिम्मत नहीं कर सका।
मद्रास राज्य में किसान-सभा ने सरकार के प्रस्तावित कृषि-सुधारों पर विचार-विमर्श करने के बाद 17 सूत्री संशोधन पेश किये। इन संशोधनों को प्रचारित करने के उद्देश्य से सितम्बर, 1960 में पद यात्राएं आयोजित की गयीं। किसान-सभा के लब्धप्रतिष्ठ नेताओं के नेतृत्व में दो दल-एक मदुरै से और दूसरा कोयंबतूर से-सैकड़ों गांवों और शहरों से गुजरते हुए मद्रास पहुंचे। सर्वत्र लोगों ने पदयात्रियों का हार्दिक स्वागत किया। पदयात्रा से किसानों में नयी जागृति पैदा हो गयी और किसान-सभा को भी अपने कार्यों को पुनर्गठित करने की प्रेरणा मिली।
हाल में ही हमने बिहार में भी पदयात्रा की थी। इसका आयोजन इस दृष्टि से किया गया था कि प्रस्तावित भूस्वामी समर्थक हदबंदी विधेयक में किसानों और खेत मजदूरों के पक्ष में संशोधन किये जायें। हजारों गांवों से गुजरते हुए किसान पदयात्री पटना पहुंचे, जहां एक विशाल रैली हुई! मुख्यमंत्री पदयात्रियों से मिले और उन्होंने विधेयक में कुछ संशोधन करने का वायदा किया।
केरल, तमिलनाडु और बिहार के अनुभवों ने यह स्पष्ट कर दिया कि किसानों को क्रियाशील बनाने में, ठोस मांगों के लिए अपनी एकता स्थापित करने में, किसानों के घरों और झोपड़ियों तक किसान सभा के नारों को ले जाने में तथा किसान-सभा को सक्रिय बनाने में पद यात्राएं महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर सकती हैं। अन्य राज्यों के साथी भीड़ इससे शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं।
पश्चिम बंगाल में हमारी पार्टी किसान-सभा के सहयोग से हदबंदी को सही तरीके से लागू करने के लिए पिछले 3 साल से संघर्ष चला रही है, जिसमें यथेष्ट मात्रा में अतिरिक्त जमीन हासिल की जा सके और जाली हस्तांतरणों को रद्द किया जा सके। हजारों की गिरफ्तारी, पुलिस-उत्पीड़न और किसानों की हत्या जैसी कठोर दमानात्मक कार्रवाइयों के बावजूद यह आन्दोलन कई जिलों में फैल चुका है और इसे कुछ सफलता भी मिली है। राज्य में लगभग ढाई लाख एकड़ अतिरिक्त जमीन है,जिसमें से अधिकांश पर सरकार ने अपना कब्जा जमा लिया है। अतिरिक्त जमीन सच्चे अर्थ में जमीन जोतने वालों के नाम पर निःशुल्क दी जा रही है। संघर्ष जारी है।
द्विभाषी बंबई राज्य का विभाजन और महाराष्ट्र तथा गुजरात राज्यों की स्थापना भारतीय जनवादी आन्दोलन की शानदार जीत है। बड़े पूंजीपतियों के दबाव में आकर कांग्रेस के जिन जिद्दी नेताओं ने भूतपूर्व बंबई राज्य के मामले में मालावार सिद्धांत को लागू करने से इंकार कर दिया था, उन्हें इस सवाल पर घुटने टेकने पड़े। उन्होंने यह समझ लिया कि इस समस्या का समाधान किये बिना मराठी-भाषी क्षेत्रों में अगले आम चुनाव में भाग लेना उनके लिए बहुत ही खतरनाक हो जाएगा। हमारी पार्टी संयुक्त महाराष्ट्र समिति की एक महत्वपूर्ण घटक थी, जिसके नेतृत्व में चल रहे संघर्ष के फलस्वरुप महाराष्ट्र राज्य की स्थापना हुई।
यद्यपि संयुक्त महाराष्ट्र समिति ने अपना मूल उद्देश्य हासिल कर लिया, तथापि यह निश्चय किया गया कि एक विस्तृत जनवादी मोर्चे के रुप में समिति को जारी रखा जाय। यह फैसला कितना सही था, इसका ठीक-ठाक पता बंबई निगम के चुनाव के समय लगा, जबकि प्रजा सोशलिस्ट पार्टी की फूट की नीति के बावजूद समिति ने पहले से भी अधिक स्थान जीतकर निगम के दूसरे शक्तिशाली ग्रुप का स्थान ग्रहण कर लिया। समस्या के समाधान के पहले प्रजा सोशलिस्ट पार्टी को छोड़कर समिति को 28 स्थान प्राप्त थे और अब उसे 34 स्थान प्राप्त हैं।
महाराष्ट्र और गुजरात की स्थापना से वस्तुतः भाषावार राज्यों की समस्या का समाधान हो गया। फिर भी पंजाग एक महत्वपूर्ण अपवाद है। यहां के दो क्षेत्र- एक पंजाबी-भाषी क्षेत्र और दूसरा (हरियाणा) हिन्दी-भाषी क्षेत्र एक ही राज्य के अंतर्गत है। समस्या जटिल है। हरियाणा के लोग पंजाब से अलग होने की मांग कर रहे हैं (लेकिन इसके लिए कोई जोरदार आंदोलन नहीं चलाया जा रहा है), जबकि इस सवाल पर पंजाबी-भाषी क्षेत्र के लोग (हिन्दू और सिख) सांप्रदायिक आधार पर बुरी तरह विभक्त है। कांग्रेस ने इस संबंध में बहुत ही अवसरवादी और सिद्धांतविहीन नीति अपना ली है, जिससे विभाजन का मसला बहुत गंभीर हो गया है। हमारी पार्टी का मत है कि हरियाणा को पंजाब से अलग किया जाय और कांगड़ा जिले के साथ ही पंजाब के संपूर्ण पंजाबी-भाषी क्षेत्रों को मिलाकर एक पंजाबी-भाषी राज्य का गठन किया जाय। इस प्रकार का पंजाबी-भाषी राज्य संपूर्ण पंजाबी जनता की सामान्य राष्ट्रीय चेतना पर आधारित होगा और इसे संयुक्त जन आंदोलन के फलस्वरुप जल्दी हासिल किया जा सकेगा। अकाली दल ने इस मसले पर जो आंदोलन छेड़ा है, उसमें इस बुनियादी तथ्य की उपेक्षा की गयी है। इसके अतिरिक्त अकाली दल आंदोलन के कंेंद्र के रुप में गुरुद्वारों का उपयोग कर सांप्रदायिक नारे बुलंद कर रहा है। इस तरह अकाली दल साम्प्रदायिक आधार पर विभाजन को बढ़ावा दे रहा है। लोगों ने पहले ही समझ लिया था कि इस तरह का साम्प्रदायिक संघर्ष कभी सफल नहीं हो सकता है। दूसरी तरफ, हिन्दू संप्रदायवादियों ने बिल्कुल साम्प्रदायिक आधार पर इस मांग का विरोध किया है और वे अब इस बात से भी इंकार करते हैं कि पंजाबी उनकी मातृभाषा है। पंजाब सरकार ने मौका पाकर जनता के जनवादी अधिकारों का पूरी तरह दमन किया।
आंदोलन समाप्त हो गया है, लेकिन पंजाब में सांप्रदायिक विरोध और तेज हो गया है। बुनियादी समस्या का अभी तक समाधान नहीं किया गया है। हमारी पार्टी ने जो सुझाव दिया है, केवल उसी आधार पर इस समस्या का समाधान किया जा सकता है, लेकिन इसके लिए हिन्दुओं और सिक्खों दोनों की ही सांप्रदायिक भावनाओं के विरुद्ध अनवरत संषर्घ करना पड़ेगा और तीव्र वैचारिक अभियान चलाना पड़ेगा, ताकि सांप्रदायिक प्रभाव को खत्म किया जा सके, जो कि हमारे द्वारा संचालित आर्थिक संघर्षों में भाग लेने वाले मेहनतकश लोगों को भी आज बुरी तरह ग्रस्त कर चुका है।
दूसरे आम चुनाव ने यह सिद्ध कर दिया कि मजदूर-वर्ग में अकेली सबसे बड़ी शक्ति के रुप में हमारा उद्भव हो चुका है। हमारा वह स्थान बरकरार है। जहां हम कार्यरत हैं, वहां की ट्रेड-यूनियनों की गतिविधियों में सुधार हुआ है। लेकिन मजदूरों का, यहां तक कि जो मजदूर हमारे प्रभाव में हैं, उनका भी राजनीतिक धरातल नीचा है, जिसके फलस्वरुप मजदूर आम जनवादी संघर्षों में सक्रिय रुप से भाग लेने से वंचित रह जाते हैं। इस कर्तव्य की ओर पार्टी की इकाइयों को पूरा ध्यान देना पड़ेगा। कई क्षेत्रों में पार्टी कमिटियों और ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं के बीच में बहुत कम संपर्क दिखालयी पड़ता है और वे आपस में बहुत कम विचार-विमर्श करते हैं। इसका समाधान जरुरी है।
जहां तक मजदूर-आन्दोलन की अवस्था का सवाल है, एटक के कोयंबतूर अधिवेशन में कामरेड एस.ए. डांगे ने उसके सभी पहलूओं पर प्रकाश डालते हुए एक विस्तृत रिपोर्ट पेश की है। उस रिपोर्ट के मूल्यांकन और उसमें निर्धारित विशेष कत्र्तव्यों से मैं आम तौर पर सहमत हूँ। इसलिए मैं इस स्थल पर उनका जिक्र नहीं करुंगा।
कामरेड डांगे ने अपनी रिपोर्ट में केंद्रीय सरकार के कर्मचारियों की जुलाई, 1960 की हड़ताल का भी जिक्र किया है, जो कि पिछले कई वर्षों के दौर में भारत के मजदूरों की सबसे बड़ी कार्रवाई थी। डाक-तार, सुरक्षा आदि विभिन्न सरकारी क्षेत्रों में हड़तालें हुईं। यह पहला मौका था, जबकि सभी सरकारी सेवाओं के कर्मचारियों ने हड़ताल करने का निश्चय किया था। दिल्ली के त्रिपक्षीय सम्मेलन, जिसमें सरकार भी एक पार्टी के रुप में शामिल थी, के निर्णयानुसार कीमतों की घटती-बढ़ती के आधार पर महंगाई भत्ता और न्यूनतम निर्वाह-वेतन की न्यायोचित और पूरी तरह जायज मांग को लेकर छेड़ा जाने वाला यह एक आर्थिक संघर्ष था। संघर्ष का आह्नान संयुक्त संघर्ष-समिति ने किया था, जिसमें सरकारी कर्मचारियों के सभी संगठनों के प्रतिनिधि शामिल थे। संघर्ष में पांच लाख से भी अधिक कर्मचारियों ने भाग लिया। डाक-तार कर्मचारी संघर्ष के मैदान में सबसे आगे थे और नागरिक उधयन, सुरक्षा-महासंघ आदि के कर्मचारी उनके साथ चल रहे थे। कलकत्ता और बंबई में रेलगाड़ियां रोक दी गयीं और अनेक रेलवे कारखाने बंद हो गये।
कठोर दमन के बावजूद, हड़ताल पर रोक लगाने और हड़ताल में भाग लेने वालों अथवा हड़ताल का समर्थन करने वालों को कठोर सजा देने के अध्यादेश के बावजूद और प्रधानमंत्री नेहरु के रेडियो-प्रसारण के बावजूद, जिसमें हड़तालियों पर यह आरोप लगाया गया था कि वे ‘‘हमारी सुरक्षा-व्यवस्था को कमजोर कर रहे हैं’’, 21000 कर्मचारियों की गिरफ्तारी, गोलियों से सात कर्मचारियों की मृत्यु, समाचारपत्रों द्वारा हड़तालियों के विरुद्ध चलाये जाने वाले तूफानी घृणा-अभियान,हड़तालियों की मांगों के मिथ्या-निरुपण आदि के बावजूद उपर्युक्त सभी कुछ हुआ।
हमारी पार्टी की अनेक राज्यकमिटियों और क्षेत्रीय इकाइयों ने कर्मचारियों की मदद करने में कुछ भी उठा नहीं रखा, लेकिन पार्टी-केंद्र अपने कत्र्तव्यों और दायित्वों का निर्वाह करने में बुरी तरह पिछड़ गया। हड़ताल की एक सबसे बड़ी कमजोरी यह थी कि कर्मचारियों के समर्थन में जनमत संगठित नहीं किया गया। संयुक्त संघर्ष-परिषद द्वारा हड़ताल की नोटिस दिये जाने के बाद भी हम लोगों में अनेक यह सोच रहे थे कि अंतिम क्षण में कोई-न-काई समझौता अवश्य हो जायगा। सांगठनिक और वैचारिक तैयारियों बहुत ही अपर्याप्त थीं।
हमें इससे सही शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए और यह प्रयास करना चाहिए कि इस तरह कह गलतियां दोहरायी नहीं जायें।
पिछले तीन वर्षों में मजदूरों ने कई संघर्ष किये। उनमें से अनेक संघर्षों मेें विभिन्न टेªेड यूनियनों के मजदूरों ने कंधे-से-कंघे मिलाकर संघर्ष किया। एक ही उद्योग के मजदूरों ने संयुक्त कार्रवाइयों में भी भाग लिया।
आने वाले दिनों में मजदूरों को अनेक गंभीर समस्याओं का, खासकर वेतन-संबंधी समस्या का सामना करना पड़ेगा। भारत सरकार के श्रम मंत्री श्री नंदा ने 11 अप्रैल 1960 को लोकसभाा में अपने भाषण के दौरान यह स्वीकार किया है कि हाल की अवधि में मजदूरों की अवस्था में हृास हुआ हैं। उन्होंने कहा: ‘‘1939 और 1947 के बीच मजदूरों के जीवन-स्तर में 25 प्रतिशत हृास हुआ है। 1951 तक वे किसी तरह पिछली क्षति की पूर्ति कर सके। 1955 तक वास्तविक वेतन में 13 प्रतिशत की वृद्धि हुई। लेकिन 1956 के बाद, जब कीमतें फिर बढ़ने लगीं, तब उन्होंने जो कुछ भी हासिल किया था, वह कुछ हद तक नष्ट हो गया।’’ (जोर मेरी ओर से)।
तृतीय पंचवर्षीय योजना-काल में समस्या के और जटिल हो जाने की संभावना है। कीमतों का बढ़ना जारी रहेगा और ‘‘उत्पादन के आधार पर वेतन’’ के नारे के अनुसार कीमतों में हुई वृद्धि को ढक देने के लिए वेतन-वृद्धि को नामंजूर कर दिया जायगा। ऐसी स्थिति में, अपनी वर्तमान अवस्था जारी रखने के लिए भी मजदूरों को संघर्ष करना पड़ेगा। अतः आने वाले दिनों में मजदूर-संगठनों के संघर्षों का बड़ा महत्व होगा।
अधिकांश राज्यों में मजदूर-वर्ग के आन्दोलन में पर्याप्त वृद्धि हुई है, लेकिन वही बात किसान-आन्दोलन के बारे में भी नहीं कही जायगी। राज्यों में किसानों की सही सदस्य-संख्या की जानकारी अखिल भारतीय किसान-सभा के त्रिचूर-सम्मेलन के बाद ही उपलब्ध हो सकी, लेकिन दिसंबर, 1960 में राष्ट्रीय परिषद की किसान उपसमिति द्वारा प्रस्तुत मसौदे के अनुसार स्थिति ही दुःखद है। हम साफ-साफ कह सकते हैं कि अमृतसर के फैसलों को कार्यान्वित नहीं किया गया। अधिकांश राज्यों में किसान-सभा और खेत मजदूर-संगठनों की सदस्यता या तो ज्यों-की-त्यों है अथवा गिरी है। चूंकि इस विषय पर और अर्थाभाव, कार्यकर्ताओं के अभाव, किसी योजनाबद्ध कार्यकलाप के अभाव और पार्टी के साथ किसान-सभा की सही पहचान आदि के बारे में किसान उपसमिति की रिपोर्ट में विचार किया गया है और उस रिपोर्ट पर हम पार्टी-कांग्रेस में विचार-विमर्श करेंगे; इसलिए इस स्थल पर उनकी व्याख्या करने की जरुरत नहीं है। ¹
फिर भी, इस बात पर जोर देना आवश्यक है कि किसानों के बीच पार्टी का प्रभाव घटने के कारण संगठित किसान- आन्दोलन की यह हालत नहीं हुई है। पहले और दूसरे आम चुनावों के बीच सभी राज्यों में हमारे प्रभाव में वृद्धि हुई है और ग्रामीण क्षेत्रों में तो और भी अधिक। चुनावों में हमें आशा से भी अधिक सफलता मिली है और एक दूसरा ही चित्र हमारे सामने उपस्थित हो गया है, इससे किसान-आन्दोलन को नयी प्रेरणा और किसान-सभा को नयी ताकत मिलनी चाहिए थी। लेकिन किसान-सभा में काम करने वाले अनेक पार्टी-नेताओं में जन-आन्दोलनों, अभियानों और संघर्षों का संचालन करने में गहरी किचकिचाहट देखी जाती है। इस तरह की जन कार्रवाइयों के बदले में यह प्रवृति उभर आयी है कि विधायकों का एक प्रतिनिधि-मंडल मंत्रियों और अधिकारियों से जाकर मिले थे। चुनावों में प्राप्त सफलताओं से, किसानों की समस्याओं के लिए संघर्ष करने और उनकी मांगे हासिल करने का हमें जो अवसर मिला है, उसका हमने आंशिक रुप से ही उपयोग किया है; क्योंकि किसानों की सार्वजनिक गतिविधियों और विशाल किसान-संगठनों के रुप में जन-समर्थन को और व्यापक नहीं बनाया जाता है।
जब तक किसान-मोर्चे की इन कमजोरियों को दूर नहीं किया जाता है, तब तक यह उम्मीद नहीं की जा सकती है कि जनवादी आन्दोलन बहुत मजबूत होगा।
इस स्थल पर मैं एक उत्साहवर्धक तथ्य का उल्लेख करना चाहता हूँ।
अखिल भारतीय किसान-सभा के त्रिचूर-सम्मेलन ने, जो हाल में ही संपनन हुआ, यह स्पष्ट कर दिया है कि सुधार की शुरुआत हो गयी है। कुछ राज्यों में सदस्यों की संख्या में वृद्धि हुई है और नये ढंग से कार्यों को संगठित किया गया है।
अवश्य की इस घटनाक्रम का स्वागत किया जायगा, लेकिन अभी तक इसने अखिल भारतीय रुप ग्रहण नहीं किया है। आवश्यकता इस बात की है गतिविधि और तेज की जाय।
अपनी राजनीतिक गतिविधियों के एक अंग के रुप में हमने इधर पंचायतों, नगरपालिकाओं, जिला परिषदों, विधान-सभाओं और संसद के कई चुनावों में भाग लिया है। हमारी निम्नलिखित जीतें विशेष रुप से उल्लेखनीय हैंः
हमने बिहार विधान-सभा के वारसलीगंज उपचुनाव में कांग्रेस और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी दोनों के ही उम्मीदवारों को पराजित कर कामयाबी हासिल की।
आसाम राज्य परिषद के सचिव कामरेड फणी बोरा नवगांव उपचुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार श्री देवकांत बरुआ को 5000 वोटों से हराकर दिसंबर 1959 में विजयी हुए, जबकि भारत-चीन सीमा-विवाद ने उग्र रुप धारण कर लिया था और हमारे विरुद्ध इस स्थिति का हर तरह से उपयोग करने का प्रयास किया गया था।
भोपाल नगर पालिका के चुनावों में, जहां कुछ ही समय पहले दिसंबर, 1949 में सांप्रदायिक उपद्रवों में कई लोग मारे गये थे, हमारी पार्टी के उम्मीदवार 30 स्थानों में से 13 स्थानों पर विजयी हुए। अन्य तीन सीटें हमारे द्वारा समर्थित स्वतंत्र उम्मीदवारों ने प्राप्त कीं। कांग्रेस को 12 स्थान मिले। इस प्रकार अपने मित्रों के साथ हमने मध्य प्रदेश की राजधानी की नगरपालिका में बहुमत स्थान प्राप्त किये।
कामरेड इन्द्रजीत गुप्त अपै्रल 1960 में कलकत्ते के संसदीय उपचुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार को भारी मतों से पराजित कर विजयी हुए। हाल के वर्षों की यह हमारी सबसे शानदार जीतों में से है।
कलकत्ता निगम के चुनाव में जो बहुत ही सीमित मताधिकार के आधार पर संपन्न हुआ (लगभग 40 लाख की कुल आबादी में से केवल तीन लाख लोगों को वोट का अधिकार प्राप्त था)। संयुक्त नागरिक समिति ने 44 प्रतिशत वोट प्राप्त कियें और 31 स्थान जीते; जबकि कांग्रेस को 38.7 प्रतिशत वोट और 39 स्थान मिले (5 कांग्रेसी और एक निर्दलीय निर्विरोध चुने गये)। संयुक्त नागरिक समिति में हमारी पार्टी और कई अन्य वामपंथी पार्टियां शामिल हैं।
बंबई निगम के चुनाव में संयुक्त महाराष्ट्र समिति को 34 स्थान मिले, जिनमें से 18 हमारे पार्टी-सदस्यों ने हासिल किये। कांगे्रस को 59 स्थान मिले, जबकि चुनावों के पहले उसे 62 स्थान मिले थे। जहां तक प्रजासोशलिस्ट पार्टी का सवाल है, उसके स्थान 27 से घटकर 14 हो गये- यह उसकी एकता-विरोधी और फूट की भूमिका के प्रति जनता के स्पष्ट असंतोष और क्षोभ की ही स्पष्ट अभिव्यक्ति थी।
.... गतांक से आगे
दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादियों का उभार
साथियों, केरल सफलताओं पर ही गौर करना हमारे लिए ठीक नहीं होगा। जनवादी आन्दोलन और कमजोरियों की जांच-पड़ताल करना भी हमारे लिए जरुरी है। इसके अतिरिक्त कुछ बहुत ही खतरनाक किस्म की घटनाओं का मूल्यांकन करना भी आवश्यक है।
इसमें संदेह नहीं है कि हमने संघर्षों और कार्यकलापों का संचालन किया है, उनके परिणामस्वरुप अधिकांश राज्यों और संपूर्ण देश में हमारा प्रभाव बढ़ा है; फिर हमारे संघर्ष और कार्यकलाप इतने व्यापक और जीवंत नहीं है कि वे जनता की स्थिति में बुहत बड़ा बदलाव ला सकें। केरल के सवाल को छोउ़कर पार्टी की ओर से अखिल भारतीय पैमाने पर कोई प्रभावोत्पादक आन्दोलन नहीं हुआ। आम तौर पर कहा जायेगा कि कृषि-सुधार, योजना के लिए साधन जुटाने के अन्य उपाय आदि जैसे नीतिगत विषयों पर हमारे आन्दोलन बुहत ही कमजोर हैं। हमने अधिकतर स्थानीय और आर्थिक सवालों को लेकर ही संघर्ष किये हैं। हालांकि इस तरह के संघर्षों का भी महत्व है, लेकिन वे राष्ट्रीय पैमाने पर रातनीति को पूरी तरह प्रभावित नहीं कर सकते हैं।
प्रजा सोशलिस्ट पार्टी ने पिछले आम चुनाव में 110 लाख वोट (कुल प्राप्त वोटों का 10 प्रतिशत) प्राप्त किये थे और बिहार, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और अन्य राज्यों में आज भी उसका यथेष्ठ प्रभाव है, लेकिन वह कुल मिलाकर संघर्ष-विरोधी और वामपक्षी एकता के प्रति फूटवादी दृष्टिकोण का परिचय देती हैं। बंगाल, उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र और सबसे बढ़कर केरल में उसने यही दृष्टिकोण अपनाया। उसने हमारी पार्टी को बदनाम करने के लिए भारत-चीन सीमा-विवाद से लाभ उठाने की खूब कोशिश की। हाल के दिनों में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी ने अपनी समग्र भूमिका से उस सीमित वामपक्षी एकता को भी छिन्न-भिन्न कर दिया, जिसका आधार पिछले दिनों तैयार किया गया था। प्रजा सोशलिस्ट पार्टी ने जन-आन्दोलनों के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण अपनाया है।
इन बातों के अतिरिक्त हमें इस अवधि के कुछ प्रमुख तथ्यों पर भी गौर करना चाहिए। वे हैं:
1. कांगे्रस और सरकार पर दक्षिणपक्ष का कसता हुआ शिकंजा और अनेक सवालों पर दक्षिणपक्ष की ओर सरकार का झुकाव।
2. फूट डालने वाली ताकतों - जातिवाद, संप्रदायवाद, प्रांतीयतावाद आदि का प्राबल्य।
3. उग्र दक्षिणपक्षी तत्चों के क्रियाकलापों में वृद्धि और स्वतंत्र पार्टी की स्थापना।
4. घोर जनवाद-विरोधी रुझानों और प्रवृत्तियों का स्पष्ट उभार।
ये तथ्य किसी भी हालत में एक-दूसरे से असंबद्ध नहीं है और हमारी पार्टी को इनकी ओर पूरा ध्यान देना चाहिए। ये जनवादी आन्दोलन और प्रगतिशील शक्तियों के सम्मुख गंभीर खतरा उपस्थित करते हैं।
रातनीतिक प्रस्ताव में और अपने भाषण के प्रारंभ में मैंने अनेक सवालों पर दक्षिणपक्ष की ओर सरकार के झुकाव का वर्णन किया है। हमने सरकार की आर्थिक नीतियों का जिक्र किया है, ऐसी नीतियों का, जिनके फलस्वरुप न केवल हमारी प्र्रगति धीमी पड़ गयी है और रुक गयी है, बल्कि सरकार और जनता का आपसी अंतर्विरोध भी तीव्र हो गया है। सरकार की इन नीतियों के विरोध में असंतोष बढ़ा है और वह असंतोष अनेक संघर्षों तथा चुनावों में फूटा है।
जो हो, हमें मसले के सिर्फ इसी पहलू पर अपना ध्यान केंद्रित नहीं कर देना चाहिए। इस अवधि के कुछ संघर्षों पर ही विचार करना, उनमें से सबसे बड़े संघर्ष को छांटकर अलग करना और कुछ खास चुनाव-परिणामों के साथ उनका तूमार खड़ा करना तथा उन्हें संपूर्ण साधारणीकरण का आधार बनाना- इस पद्धति से संपूर्ण परिस्थ्ािित का बहुत ही भद्दा चित्र उपस्थित होगा। यह अत्यंत ही निकृष्ट कोटि की व्यक्तिपरकता होगी। सबसे बढ़कर इस बात की आवश्यकता है कि इस तरह की व्यक्तिपरकता से सावधान रहा जाय; क्योंकि इसी तरह की चूक से विभिन्न अवसरों पर स्थिति का सही ढंग से मूल्यांकन करने में रुकावटें पैदा हुई हैं।
इसमें संदेह नहीं है कि कांग्रेस के विरुद्ध असंतोष बढ़ा है; लेकिन कुल मिला कर कांग्रेस की स्थिति आज भी मजबूत है। वस्तुतः संपूर्ण देश को देखते हुए सभी वामपक्षी पार्टियों के सम्मिलित प्रभाव से भी कांगे्रस का प्रभाव विशाल और व्यापक है।
पहले और दूसरे आम चुनावों के वोटों के तुलानात्मक अध्ययन से हम निम्नलिखित निष्कर्ष पर पहुंचते हैं।
पहले आम चुनाव के दौरान कम्युनिस्ट पार्टी, सोशलिस्ट पार्टी, किसान मजदूर प्रज्ञा पार्टी, फारवर्ड ब्लाॅक, क्रांतिकारी सोशलिस्ट पार्टी और कृषक मजदूर पार्टी ने वामपंथी पार्टियों के रुप में कांग्रेस का विरोध किया था। यदि हम इनके साथ सोशलिस्ट पार्टी के सहयोगी परिगणित जाति महासंघ को भी शामिल कर लें, तो इन सभी पार्टियों को सम्मिलित रुप से 10 करोड़ 60 लाख 90 हजार वोटों में से 2 करोड़ 70 लाख 80 हजार वोट मिले यानी कुल पड़े हुए वोटों का 26.5 प्रतिशत। 1957 के चुनाव में किसान-मजदूर प्रजा पार्टी नहीं थी। उसका विलयन सोशलिस्ट पार्टी में हो गया था और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का जन्म हुआ था। प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में भी फूट पड़ गयी और उसका एक हिस्सा टूटकर अलग हो गया, जिसने सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की। यदि हम पहले की ही भांति कम्युनिस्ट पार्टी, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, सोशलिस्ट पार्टी, क्रांतिकारी सोशलिस्ट पार्टी, फारवर्ड ब्लाॅक, किसान-मजदूर पार्टी और परिगणित जाति-महासंघ के सम्मिलित वोटों को लें तो कुल 3 करोड़ 80 लाख वोट होते हैं। निस्संदेह इसका अर्थ है कि वोटों में 30 लाख की वृद्धि हुई, लेकिन हमें यह स्मरण रखना होगा कि हुए पड़े वोट भी 10 करोड़ 40 लाख तक चले गये थे। सभी वामपक्षी पार्टियों द्वारा प्राप्त ठोस वोटों और प्रतिशत दोनों ही दृष्किोण से बहुत आगे बढ़ गयीं, लेकिन 1957 में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी के सम्मिलित वोट सोशलिस्ट पार्टी और किसान-मजदूर प्रजा पार्टी के सम्मिमित वोटों की अपेक्षा कम थे।
जहां तक कांग्रेस का सवाल है, उसके वोटों के प्रतिशत में वृद्धि हुई यानी उसके वोट 43 प्रतिशत से 47 प्रतिशत तक चले गये। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि कांग्रेस के प्रभाव में वृद्धि हो गयी। 1951-52 में कांग्रेस के कई उम्मीदवार निर्विरोध चुन लिये गये, ऐसी हालतों में वोटों की गणना नहीं की गयी। दूसरी बात यह है कि निर्दलियों में से अनेक विक्षुब्ध कांग्रेसी थे, जिन्हें 1952 कीं अपेक्षा 1957 में कम वोट मिले। यदि हम इन दोनों बातों पर विचार करें, तो हम कह सकते हैं कि पिछले दो आम चुनावों के दौर में कुल मिला कर कांग्रेस की स्थिति में बहुत परिवर्तन नहीं हुआ।
इसमें सन्देह नहीं है कि वर्तमान निर्वाचन-पद्धति के अंतर्गत चुनावों में विभिन्न पार्टियों के तुलनात्मक प्रभाव का स्पष्ट संकेत नहीं मिलता है, फिर भी सामान्य रुप में उनमें मुख्य रुझानों और साथ-ही-साथ देश की ताकतों के पारस्परिक संबंधों का पता चल जाता है।
अभी यह अनुमान लगाना ठीक नहीं है कि तीसरे आम चुनावों में मतदान के रुप में कोई बड़ा परिवर्तन होगा या नहीं। इस संबंध में बहुत कुछ हमारी गतिविधियों पर निर्भर है। लेकिन इस संबंध में हम इस तथ्य पर विचार कर सकते हैं कि जनता की आशाओं के वितरीत केन्द्रीय सरकार ने तीसरे आम चुनावों के मात्र एक साल पहले ही जनता पर अप्रत्यक्ष करों का भारी बोझ लाद दिया है। इससे केवल यह पता नहीं चलता है कि कांग्रेस का झुकाव दक्षिणपक्ष की ओर हो गया है और वह बड़े पूंजीपतियों की ओर बहुत आकृष्ट हुई है, बल्कि इससे यह भी सिद्ध होता है कि जनता के बढ़ते हुए कष्टों के बावजूद और जन-असंतोष में वृद्धि के बावजूद कांग्रेसी नेताओं को चुनावों में नतीजों पर पूरा भरोसा है।
इसके अतिरिक्त, कांग्रेस के विरुद्ध असंतोष अपने में जनवादी आन्दोलन के विकास का पैमाना नहीं है। हमें यह देखना पड़ेगा कि किस प्रकार इस असंतोष का उपयोग किया जाता है; कौन इसका उपयोग करता है और किस उद्देश्य से करता है। इस सिलसिले में, उन क्षेत्रों में, खासकर जहां पार्टी और जनवादी आन्दोलन कमजोर हैं, जिस प्रकार की स्थिति उत्पन्न हो रही, उससे केवल हमारी चिन्ता ही बढ़ सकती है।
मिसाल के तौर पर, पंजाब में संपन्न गुरुद्वारा चुनावों में अकालियों की शानदार जीत हुई। उन्हें 140 स्थानों में से 136 स्थान मिले। कांग्रेस-समर्थित उम्मीदवारों को केवल 4 स्थान मिले। अकालियों को सिख भूस्वामियों, व्ययसायियों और अनेक सरकारी कर्मचारियों का समर्थन प्राप्त था। उन्होंने धार्मिक भावनाओं को उभार कर यह जीत हासिल की।
हाल में ही राजस्थान में संपन्न पंचायत के चुनावों में जनसंघ, रामराज्य परिषद और स्वंतत्र पार्टी के माध्यम से भूस्वामियों ने भगभग 30 प्रतिशत पंचायत समितियरों पर अधिकार जमा लिया और वे कांग्रेसी जागीरदारों के साथ मिलाकर, जिनके साथ चुनाव के दौरान उनका घनिष्ठ संपर्क था, राजस्थान के राजनीतिक जीवन में एक जबर्दस्त ताकत के रुप में प्रकट हो गये हैं। कुल मिलाकर चुनाव-परिणामों से दक्षिण पक्ष की ओर झुकाव का ही संकेत मिलता है।
सामंती प्रतिक्रियावदियों के साथ मेल-जोल की कांगे्रस की नीति अधा जमा रही है।
बस्तर के पदच्युत महाराजा ने अपने क्षेत्र के आदिवासियों के बीच जो विशाल समर्थन प्राप्त किया है, वह भी इसी बात का सूचक है।
मुस्लिम लीग के साथ कांग्रेस की सांठ-गंाठ से मुस्लिम सांप्रदायिक को नया बल मिला है। इस सांठ-गांठ से फूलकर और उर्दू के प्रति किये जाने वाले व्यवहार तथा मुलमानों के प्रति बरते जाने वाले भेदभाव के संबंध में मुसलमानों की जायज शिकायतों से लाभ उठाकर उनके बीच के सांप्रदायिक तत्वों ने कई स्थानों में मुस्लिम लीग को फिर जीवित कर दिया है।
जो भी हो, हिन्दू सांप्रदायिकता का खतरा इससे भी कहीं अधिक गंभीर है। जनसंघ ने, जो हिन्दू सांप्रदायिकता का झंडाबरदार है, 1951-52 में प्राप्त अपने वोटों की संख्या 31 लाख से 1957 में 67 लाख तक बढ़ा ली है। कई क्षेत्रों में, खासकर हिन्दी भाषी भागों में, ऐसा जान पड़ता है कि उसने अपनी ताकत और बढ़ा ली है और छात्रों तथा नौजवानों के बीच भी उसका प्रभाव बढ़ गया है। सीतामढ़ी और भोपाल में मुस्लिम अल्प-संख्यकों के विरुद्ध दंगे भड़काये गये, जिनमें कई व्यक्ति मारे गये। हाल में ही मध्य प्रदेश के अंतर्गत जबलपुर, सागर और अन्य स्थानों में जो भयानक दंगे हुए, उनके फलस्परुप चारों ओर गहरा आतंक फैलता जा रहा है। प्रायः हर जगह, जहां इस प्रकार के दंगे हुए, राज्य सरकारें बिल्कुल तटस्थ रहकर मुसलमानों को मौत के मुंह में जाते हुए देखती रहीं। कई कांग्रेसी नेता निजी तौर पर बातचीत के दौरान दंगाइयों के प्रति हमदर्दी जाहिर करते हुए देखे गये। अनेक पुलिस- अधिकारियों ने प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रुप से उपद्रवियों की सहायता की प्रधानमंत्री नेहरू ही एक ऐसे शीर्षस्थ कांग्रेसी नेता थे, जिन्होंने इस प्रकार की बर्बरताओं की खुलेआम और साफ-साफ भत्र्सना की। एक अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति इस तरह के अपराध से न केवल जनवादी आन्दोलन को ही धक्का लगता है, बल्कि भारत के निर्दोष नाम पर कलंक का टीका भी लगता है। इनसे जिन तत्वों को प्रोत्साहन मिल रहा है, वे हमारे राजनीतिक जीवन के सबसे निकृष्ट प्रतिक्रियावादी तत्व है।
जहां भी इस तरह की घटनाएं हुईं, वहां हमारी पार्टी के सदस्यों, हमदर्दाें और समर्थकों ने हिम्मत के साथ उनका मुकाबला किया और उन्होंने दंगाग्रस्त लोगों की सहायता और सेवा करने में अपनी समूची ताकत लगा दी। हाल में ही मध्य प्रदेश के अंतर्गत जबलपुर और सोगोर में इस तरह के साहसिक कार्यों के उदाहरण पेश किये गये। हमारे साथियों ने उन स्थानों में जो कुछ भी किया, उस पर हमें गर्व है। हम उन कांग्रेस कर्मियों और अन्य लोगों का अभिवादन करते हैं, जो सांप्रदायिक उन्माद की चपेट में नहीं आये और राष्ट्रीयता तथा धर्म-निरपेक्षता का झण्डा बुलंद करते रहे। बहुत से आम लोगों ने भी अपने क्षेत्र के मुसलमानों की रक्षा की और कई प्रकार से उनकी सहायता की।
पंजाब में सांप्रदायिक भेदभाव इतने उग्र हो गये हैं कि उनमें संपूर्ण जनवादी आन्दोलन को बहुत गहरा धक्का लगा है। जहां हमारा जनाधार है, वहां भी इस तरह के भेदभाव फैल गये हैं।
जातिवादी भावनाएं घटने के बदले और भयानक रुप में बढ़ी हैं। चुनावों में जाति के आधार पर मतदाताओं को प्रभावित करने की प्रवृत्ति देखी जाती हैं। स्वयं कांग्रेसी नेता इस तरह का उदाहरण करते हैं, जिसका अनुसरण दूसरे लोग भी करते हैं। पंचायतें और अन्य स्थानीय परिषदें जाति के आधार पर बंट गयी हैं।
कई राज्यों में प्रांतीयता का जहर भी भयानक रुप से फैल गया है, जिसके फलस्वरुप आयाम में अल्पसंख्यक बंगालियों के विरुद्ध दंगे की आग भड़क उठी। यह कोई आकस्मिक नहीं, बल्कि एक पूर्वनियोजित घटना थी। भारत में स्वाधीनता-प्राप्ति के बाद का यह सबसे व्यापक और खौफनाक दंगा था, जिसमें 50,000 पुरुष, महिलाएं और बच्चे बेघर हो गये, लाखों की संपत्ति बर्बाद हुई और कई दर्जन आदमी मारे गये। इस तरह की बात सत्ताधारी दल और प्रशासन के शीर्षस्थ लोगों के जबर्दस्त समर्थन के बिना नहीं हो सकती थी। इस बात के कई प्रमाण हैं कि इस तरह की घटनाओं के पीछे कांग्रेस की गुटबंदी ही काम करती रही है, जिसके फलस्वरुप लाखों निर्दोष लोगों की असीम यंत्रणाएं झेलनी पड़ी है। प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं के दंगों को भड़काने में पूरा हाथ बंटाया है। यह बहुत ही खेद की बात है कि केंद्रीय सरकार और कांग्रेसी नेताओं ने जांच की कार्रवाई करने और अपराधकर्मियों को सजा देने के बजाय, अपनी पार्टी के संकीर्ण स्वार्थों से प्रेरित होकर, पूरे मामले को दबा दिया।
संकट के उन दिनों में, जबकि दंगों की आग धधक रही थी, हमारे साथियों ने बंगाली अल्पसंख्यकों को बचाने का प्रयत्न किया, लेकिन पार्टी का राज्य नेतृत्व अपनी भूमिका का पूरी तरह निर्वाह नहीं कर सका।
ये दंगे बड़े ही अशुभ और अमंगलकारी हैं। इन दंगों से यह बात स्पष्ट होती है कि सरकार की अनेक नीतियों से जनता के बीच में कुण्ठा और निराशा की जो भावनाएं पैदा हो गयी हैं, उनका प्रतिक्रियावादी तत्व अपने पक्ष में किस तरह उपयोग कर रहे हैं।
प्रांतीय वैमनस्य से न केवल जन- आन्दोलन की एकता छिन्न-भिन्न होती है, बल्कि उससे हमारी पार्टी की एकता के कमजोर होने का भी खतरा पैदा होता है। हमारे साथी कई बार एक ही प्रांत के लोगों अथवा दो भाषाई समूहों की आपसी भिन्नताओं के सवाल पर सर्वसम्मत दृष्टिकोण अपनाने में चूक गये हैं।
जैसा कि राजनीतिक प्रस्ताव में इंगित किया गया है, एक अन्य घटना भी बहुत मार्के की है और वह घटना है - एक कट्टर प्रतिक्रियावादी कार्यक्रम के साथ स्वतंत्र पार्टी का उदय।
हमने अमृतसर में ही अपने राजनीतिक जीवन में एक स्पष्ट घटना के रुप में दक्षिणपंथी प्रतिक्रिया के उभार की ओर सबका ध्यान आकर्षित किया था और वह ऐसी घटना है, जिसका सांप्रदायिकता और मात्र रुढ़िवादिता से ही घनिष्ट संबंध नहीं है। दक्षिणपंथी प्रतिक्रिया ‘‘गैर-सांप्रदायिक’’ आधार पर सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रम जैसी कोई चीज प्रस्तुत करना चाहती है। हमने यह कहा थाः
‘‘पंचवर्षीय येाजना जिस संकट में फंसी हुई है, उससे तुर्रंत लाभ उठाकर और जनवादी आन्दोलन तथा कम्युनिस्ट पार्टी के विकास से भयभीत होकर उग्र प्रतिक्रियावादी तत्वों ने अपनी गतिविधियों को तेज कर दिया है। वे कहते हैं कि हमारी आर्थिक कठिनाइयां केवल अमेरिकी डाॅलरों की मदद से दूर हो सकती हंै और इसे लिए आवश्यकता इस बात की है कि उपयुक्त वातावरण तैयार किया जाय।
‘‘वे लोग भारतीय तथा विदेशी दोनों तरह के इजारेदारों को अधिकाधिक सुविधाएं देने की मांग करते हुए सार्वजनिक क्षेत्र पर जबर्दस्त हमले बोल रहे हैं। वे लोग विदेशी पूंजी, खासकर अमेरिकी पूंजी के प्रवेश के लिए बिलकुल खुली नीति अपनाने की साफ-साफ बात करते हैं और इसके साथ ही सोवियत संघ और अन्य समाजवादी देशों के साथ होने वाले व्यापार को चैपट कर देना चाहते हैं। वे योजना के अंतर्गत प्रस्तावित सामाजिक सेवाओं में कटौती की मांग करते हैं और सरकार पर दबाव डालते हैं कि वह अपनी वित्तीय और आर्थिक नीतियों में परिर्वतन करें, जिसमें उन्हें अधिकाधिक लाभ हो और सर्वसाधारण को नुकसान हो। वे मांग करते हैं कि उनके हितों के अनुरुप वर्तमान श्रम कानूनों को बदला जाय। वे लोग मूलगामी भूमि-सुधारों के प्रति खुलेआम वैमनस्य के भाव प्रदर्शित करते हैं।’’
स्वतंत्र पार्टी के कार्यक्रम में ये प्रतिक्रांतिकारी प्रवृत्तियां बिल्कुल साफ-साफ प्रतिबिंबित हुई है और वह अपने इस कार्यक्रम के माध्यम से अपने झण्डे के नीचे सभी प्रतिक्रियावादी तत्वों को एकताबद्ध करना चाहती हैं। वह जन-संघ और अकाली दल जैसी संप्रदायवादी पार्टियों से भी संपर्क स्थापित करती है। इसके अतिरिक्त, जैसा कि अमृतसर में कहा गया था, ये सभी पार्टियां भारत सरकार की विदेश-नीति पर कठोर प्रहार करती हैं। वे रक्षामंत्री श्री कृष्णमेनन की भत्र्सना करने का एक भी अवसर खोना नहीं चाहते हैं। सितंबर 1959 में जनरल थिमैया के त्यागपत्र की धमकी पर जो संकट उत्पन्न करने का प्रयास किया गया और जिस तरह की भूमिका दक्षिण पक्षी कांग्रेसी नेताओं, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, स्वतंत्र पार्टी, जनसंघ और बड़े उद्योगपतियों ने निभायी, वे काफी सनसनीखेज हैं। लेकिन अगर नेहरु द्वारा दृढ़ कदम नहीं उठाया जाता, तो थिमैया की धमकी काम कर जा सकती थी। वह सरकारी मामलों में सेना के अनुचित हस्तक्षेप की घटना थी और उस खतरे की ओर संकेत कर रही थी, जो भारत और चीन के अनसुलझे विवादों को देखते हुए सिर पर मंडरा रहा था। उस तरह के खतरे को कोई मामूली बात समझ लेना मूर्खता होगी।
स्वतंत्र पार्टी को सामंती तत्वों, अमेरिका-पक्षी लोगों और उन्हीं की तरह के अन्य तत्वों को समर्थन के साथ-साथ देश के कुछ बड़े-बड़े पूंजीतियों और घोर प्रतिक्रियावादी इजारेदारों का भी सहयोग प्राप्त है।
फिर भी, इसका अर्थ यह नहीं है कि भारतीय पंूजीपति और वित्तदाता दो भागों में बंट गये हैं कि इनमें से एक भाग साम्राज्यवाद-पक्षी है, जो स्वतंत्र पार्टी का समर्थन करता है और दूसरा साम्राज्यवाद विरोधी है, जो कांग्रेस का समर्थन करता है। अभी तक इस तरह का कोई विभाजन नहीं हुआ है। सैद्धांतिक रुप से विचार करने पर भी इस अवस्था में इस तरह के विभाजन को कोई आधार दिखलायी नहीं पड़ता है। इसके विपरीत, यह मालूम है कि कांग्रेस का समर्थन करते हैं। इसके साथ-साथ वे कांग्रेस पर दबाव डालने के लिए और दक्षिणपक्ष की ओर उसे ज्यादा-से-ज्यादा मोड़ने के लिए एक हथियार के रुप में स्वतंत्र पार्टी का उपयोग करते हैं।
इस विषय पर, यानी भारत के इजारेदार पूंजीपति-वर्ग के सवाल को लेकर हमारी पार्टी में बहुत उलझनें है। इन उलझनों को दूर करने की जरुरत है।
यह सोचना ठीक नहीं होगा कि भारत के इजारेदार पूंजीपति साम्राज्यवाद-पक्षी हैं - इस अर्थ में कि वे साम्राज्यवादी युद्ध के शिविर में शामिल होना चाहते हैं, औद्योगीकरण के लक्ष्य को छोड़ देना चाहते हैं और पिछड़ी हुई कृषि-अर्थव्यवस्था से ही संतुष्ट रहना चाहते हैं। इस संबंध में ऐसी कोई बात दिखलायी नहीं पड़ती है। वे स्वतंत्र पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के निर्माण के लिए उत्सुक हैं और भारत में उद्योग-धंधे को विकसित करना चाहते हैं। फिर भी वे हमारे आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक जीवन में प्रतिक्रियावादी तत्वों को संघटित करते हैं। साम्राज्यवादी उन पर ही अधिक भरोसा करते हैं कि वे भारत के जनवादी विकास को रोके रहेंगे और भारत की जनता का संयुक्त रुप से शोषण करने की अनुकूल परिस्थितियां उत्पन्न करेेंगे।
आज जो हमारे सामने सबसे बड़ा खतरा है, वह यह नहीं है कि कांग्रेस की सत्ता स्वतंत्र पार्टी के हाथों में चली जायेगी अथवा सामंतवादी ताकतों की जीत हो जायेगी अथवा भारत पाकिस्तान की तरह एक पिछलगुआ राज्य बन जायगा। इसके अतिरिक्त अभी इस बात का भी खतरा नहीं है कि साम्राज्यवादी भारतीय पूंजीवादी वर्ग को पूंजीपति औद्यौगिकरण की नीति छोड़ देने के लिए मजबूर करने में सफल हो जायेंगे। कुछ राज्यों में और अनेक क्षेत्रों में, जहां सामंती अवशेष मजबूत हैं, अर्धसामंती तत्वों की राजनीरतिक स्थिति के और अधिक मजबूत होने का खतरा बढ़ता जा रहा है। हर संभव तरीके से और सभी जनवादी तत्वों और देश भक्तों के साथ मिलकर इस खतरे का मुकाबला करना जरुरी है।
फिर भी, संपूर्ण देश पर विचार करते हुए दक्षिण पक्ष की ओर और अधिक स्पष्ट झुकाव वास्तविक और तात्कालिक खतरे का सूचक है। सबसे अधिक प्रतिक्रियावादी इजारेदारों ने, अर्ध सामन्ती तत्वों को मिलाकर, जो उनके इशारे पर बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं, इस झुकाव के लिए प्रेरित किया है। कांग्रेस और कांग्रेस के बाहर के उग्र प्रतिक्रियावादी इसी बात के लिए प्रयत्नशील हैं।
1. वे हमारी विदेशी-नीति को प्रतिक्रियावादी दिशा की ओर मोड़ने की कोशिश करेंगे। वे समाजवादी शिविर से अलग हटने, पश्चिमी ताकतों की ओर मुड़ने, भारत-चीन सीमा-विवाद को और अधिक तूल देने और दूसरों के मामलों में दखल नहीं देने का तर्क उपस्थित करते हुए उपनिवेशवाद-विरोधी स्वर को दबाने की कोशिश करेंगे।
2. वे औद्योगिक विकास की नीति का अनुसरण करेंगे, लेकिन बड़े पूंजीपतियों को और अधिक छूट देने, सार्वजनिक क्षेत्र को कमजोर करने, विदेशी निजी पूंजी, खास कर अमेरिकी पूंजी के लिए ‘‘उपयुक्त वातावरण’’ का सृजन करने और अमेरिकी तथा अन्य विदेशी पूंजीपतियों से साठगंाठ की भी पूरी कोशिश करेंगे।
3. वे सभी भूमि-सुधारों को विफल करने का प्रयास करेंगे।
4. वे संसदीय जनतंत्र को नजरअंदाज करेंगे और कम्युनिस्ट पार्टी पर अपना हमला तेज कर देंगे।
5. वे पूरी हार्दिक निष्ठा के साथ उपर्युक्त उद्देश्यों को पूरा करने के लिए कांगे्रस और कांग्रेस के बाहर के उग्र प्रतिक्रियावादी तत्वों को पनपने का पूरा अवसर प्रदान करेंगे। वे कम्युनिस्ट पार्टी को संसद में जनवादी विरोधपक्ष की प्रमुख पार्टी के स्थान से हटाने का प्रयास करेंगे। वे केंद्रीय मंत्रिमंडल को ऐसे मंत्रियों से भरना चाहेंगे, जो उनके इशारे पर काम करें। कुछ मंत्रियों के विरुद्ध पंूजीवादी अखबारों में जो धुआंधर प्रचार किया जा रहा है, वह निरर्थक नहीं है। ये सभी प्रक्रियाएं- मुट्ठी भर लोगों के हाथों में संपत्ति के जमा होने की प्रक्रिया, दक्षिणपक्षी प्रतिक्रियावादियों की गतिविधियों के विस्तार की प्रक्रिया और कांग्रेस के भीतर दक्षिणपक्षी तत्वों की स्थिति के मजबूत होने की प्रक्रिया - एक-दूसरे से संबद्ध हैं। हाल के वर्षों में ये प्रक्रियाएं ओर तेज हुई हैं। विदेश-नीति, सार्वजनिक क्षेत्र बनाम निजी क्षेत्र आदि के सवालों पर न जाने कितनी ही बार तीखे विवाद उत्पन्न करने के प्रयास किये गये हैं। यह बात दूसरी है कि दक्षिणपक्षी तत्वों की सभी मंशाएं पूरी नहीं हुई, फिर भी वे कई क्षेत्रों में सफल हुए हैं और वे आक्रामक रुख अपनाते हैं। आगे आने वाले दिनों में भी यह प्रक्रिया जारी रहेगी।
इजारेदारी की वृद्धि से हमारे देश की जनता के सम्मुख गंभीर खतरा पैदा हो गया है। अगर यह वृद्धि जारी रही और अगर इजारेदार, जिनके बड़े जबर्दस्त समर्थक और नुमाइन्दे सरकार में पहले से ही भरे पड़े हैं, सरकार पर अपना पूरा नियंत्रण स्थापित करने में सफल हो गये, तब सार्वजनिक क्षेत्र भी उनके चंगुल में फंस जायेगा और राजकीय इजारेदारी पूंजीवाद का स्वरुप ग्रहण कर लेगा। हम इस तरह के खतरे से इनकार नहीं कर सकते हैं। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि इजारेदारी और इजारेदारी की वृद्धि के खिलाफ संघर्ष चलाया जाये।
जैसा कि तीसरी पंचवर्षीय योजना के मसविदे में परिलक्षित किया गया है, अपनी बुनियादी नीतियों को बदलने का भारत सरकार का इरादा नहीं हैं इस तरह की नीतियों से निसंदेह कुछ परिणाम में औद्योगिक विकास होगा। फिर भी हमारे राजनीतिक और आर्थिक जीवन में अन्तर्विरोध और तेज होंगे। खाद्य-समस्या का समाधान नहीं होगा। बेरोजगारी बढ़ेगी। विशाल जनसमूह की हालात और बदतर होगी। इसके अतिरिक्त भारतीय पूंजीपतिवर्ग मजदूरों और बुद्धिजीवियों के स्तरों को काफी उन्नत करने में सफल नहीं होगा, जैसाकि औपनिवेशिक शासन पर आधारित विकसित पूंजीवादी देशों में देखा गया है। वह संसदीय जनतंत्र को भी स्थायित्व प्रदान नहीं करेगा। ऐसी स्थिति में जन-असंतोष बढ़ते जाने से और सामाजिक जनवाद की ओर से अथवा एक वैकल्पिक पूंजीवादी पार्टी की ओर से नहीं, बल्कि मजदूर वर्ग की पार्टी की ओर से सत्ताधारी पार्टी को दी जाने वाली जबर्दस्त चुनौती से सत्ताधारी वर्गों में संसदीय परंपराओं और व्यवहारों को तुच्छ समझने, कार्यपालिका की शक्ति का मनमाने ढंग से उपयोग करने, दमन का सहारा लेने, चुनावों के दौरान भ्रष्टाचार में लिप्त रहने, जातिवादी और संप्रदायवादी तत्वों से साठगांठ जोड़ने, स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों को रोकने के लिए भय और आतंक फैलाने जैसी प्रवृत्तियां और रुझान बढ़ते जा सकते हैं और इसके फलस्वरुप जनतंत्र उत्तरोत्तर कमजोर होता जा सकता है। कम्युनिस्ट पार्टी को अपना प्रमुख दुश्मन मानते हुए व्यक्तिगत अथवा प्रतिक्रियावादी तानाशाही शासन स्थापित करने की ओर झुकाव हो सकता है।
केरल की घटनाएं भविष्य के लिए बहुत ही शिक्षाप्रद हैं।
इस संदर्भ में राष्ट्रपति के अधिकारों के बारे में डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद की उक्ति, जिस पर अखबारों में लंबे अर्सें तक खूब बहस चलती रही, कोई आकस्मिक घटना नहीं है। इसी तरह विधान-सभाओं और संसद के प्रत्यक्ष चुनावों को खत्म करने के संबंध में श्री संजीव रेधी के सुझावों को हलके ढंग से टाला नहीं जा सकता है।
संसदीय जनततंत्र-विरोधी इन उक्तियों, सुझावों और धुआंधर प्रचारों पर हम पड़ोसी देशों में होने वाली घटनाओं, जैसे नेपाल की घटना की पृष्ठभूमि में विचार कर सकते हैं। हम उन पर थिमैया-प्रसंग और प्रशासन पुलिस तथा सेना के जनतंत्र-विरोधी और प्रतिक्रियावादी तत्वों की सुदृढ़ स्थिति की पृष्ठभूमि में विचार कर सकते हैं। सामंती और साम्प्रदायिक प्रतिक्रियावादी तत्वों के कार्यकलापों, दक्षिण प्रतिक्रियावादी तत्वों के कार्यकलापों और साथ-ही-साथ कांगे्रस और सरकार के भीतर के दक्षिणपक्षी तत्वों की सुदृढ़ स्थ्ािित के संदभ में उन पर विचार किया जा सकता है। जनवादी तत्वों की फूट और उनकी कमजोरियों की पृष्ठभूमि में भी उनकी समीक्षा की जा सकती है; क्योंकि इस स्थिति के कारण कई स्थानीय कामयाबियों के बावूजद जनवादी तत्व विशाल जन-समूह को कुंठाग्रस्त करने वाली सरकार की जन-विरोधी नीतियों को परास्त करने में सफल नहीं हो पाये हैं। ऐसी हालत में जनता में निराशा की भावना पैदा होती है और कभी-कभी बहुत से निराश लोग सभी बुराइयों के कल्पित इलाज के रुप में और कम-से-कम एक ‘छोटी विपति’ के रुप में तानाशाही शासन की स्थापना की बात चुपचाप स्वीकार कर लेते हैं।
राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा
जिन घातक प्रवृत्तियों का मैंने पहले ही जिक्र किया है, उनकी वृद्धि के कारण खतरा लगातार बढ़ता जा रहा है - जाति, धर्म, क्षेत्र और प्रांत पर आधारित ये घातक प्रवृत्तियों देश के प्रायः सभी भागों में परवान चढ़ती जा रही हैं।
कोई भी भारतीय देशभक्त इन बातों के प्रति उदासीन नहीं रह सकता है। स्वाधीनता-आन्दोलन की सभी यथार्थ उपलब्धियां छिन्न-भिन्न होती जा रही हैं। जिन मूल्यों को हमने अपने हृदय में संजोये रखा, उन पर प्रहार किया जा रहा है। स्वयं प्रधानमंत्री इस तरह के मामलों में अपनी असमर्थता दिखलाते हैं। उन्होंने बहुत ही निराश होकर कहा है कि वे ‘राष्ट्रीय एकता को बचाने के लिए राष्ट्रीय योजना को भी तिलांजलि देने’ को तैयार हैं।
देश के जो विभाजनकारी तत्व पहले से भी अधिक उछल-कूद कर रहे हैं, यदि उन्हें समय पर रोका नहीं गया, तो वे देश में सर्वत्र अराजकता की स्थिति पैदा कर देंगे, जन-आन्दोलनों को छिन्न-भिन्न कर डालेंगे और जनतंत्र के सम्मुख भी खतरा उत्पन्न कर देंगे। इसलिए हम सभी देशभक्त और जनवादी पार्टियों, संगठनो, ग्रुपों और व्यक्तियों से अपील करते हैं कि वे आपसी पूर्वाग्रहों को छोड़ कर स्वाधीनता-संग्राम के दिनों में निर्मित राष्ट्रीय एकता की परंपराओं को आगे बढ़ाने के लिए एकजुट हों। हम सभी पार्टियों से अपील करते हैं कि वे अपने छोटे-मोटे लाभों के लिए जातिवाद, संप्रदायवाद और प्रांतीयता की भावनाओं का उपयोग न करें। इस संबंध में हम अनेकानेक कांग्रेस कर्मियों से भी खास अपील करते हैं, जो उस संयुक्त संघर्ष की पवित्र स्मृतियों को संजाये हुए हैं, जिसे ब्रिटिश साम्राज्यवाद से लड़ते समय उन्होंने और उनमें से बहुत से लोगों ने जो आज कम्युनिस्ट पार्टी में हैं - और अन्य गैर कांग्रेसी पार्टियों ने छेड़ा था। अतीत के दिनों की तरह हमें आज भी एकता की उस चेतना की आवश्यकता है। हमें उसी की आवश्यकता है, ताकि हम विभाजनकारी तत्वों को परास्त कर सकें और देश को नियोजित विकास मार्ग पर अग्रसर कर सकें।
लेकिन इस तरह की एकता के लिए अपील करते हुए हम इस बात की ओर इंगित करना अपना कर्तव्य समझते हैं कि मौजूदा स्थिति की सबसे अधिक जिम्मेदारी कांग्रेस और सरकार के कंधों पर है। एकता की कामना करना ही पर्याप्त नहीं है। यह बतलाना आवश्यक है कि फूट क्यों है और इस बात की ओर इंगित करना भी आवश्यक है कि एकता कैसे हासिल की जायेगी।
1947 के पूर्ववर्ती समय में हमारे सामने एक प्रेरक राष्ट्रीय उद्देश्य था और वह था- राजनीतिक तथा आर्थिक स्वाधीनता का उद्देश्य - एक ऐसा उद्देश्य, जिसे जनता के संयुक्त संघर्ष के द्वारा हासिल किया जा सकता था। उस समय देश में कई पार्टियां थीं। कांग्रेस के भीतर कई गुट थे। लेकिन उद्देश्य और जन-संघर्ष की आवश्यकता के सवालों पर सभी देशभक्तों में मतैक्य था। स्वाधीनता-प्राप्ति के बाद राष्ट्र के सम्मुख उसी तरह का स्पष्ट और प्रेरक उद्देश्य रखने की आवश्यतकता थी और यह भी बतलाने की आवश्यकता थी कि किन उपायों से उस उद्देश्य को हासिल किया जा सकता था। कांग्रेस से इसी तरह की उम्मीद की जा रही थी। लेकिन इस मामले में कांग्रेसी नेता अपनी वर्गीय नीतियों के कारण बुरी तरह विफल हो गये। कल्याणकारी राज्य और सहकारी राष्ट्र जैसे नारों के साथ खिलवाड़ करने के बाद वे समाजवादी ढांचे के समाज की बात करने लगे, लेकिन उन्होंने इसकी इस प्रकार न्याख्या की, मानों वे इसके सभी मूल तत्वों को नष्ट कर देने पर तुल गये हों। स्थिति यह है कि सरकार की नीतियों का सामाजवाद से दूर का भी संबंध नहीं है; बल्कि वे जनवदी नियोजन के सिद्धांतों के भी अनुरुप नहीं हैं। सरकार की नीतियां पूंजीवादी विकास की नीतियां हैं, लेकिन उनमें विदेशी इजारेदारी पूंजी के विरुद्ध दृढ़ संघर्ष और बुनियादी भूमि-सुधारों की कोई चर्चा तक नहीं है। उन नीतियों से अमीरों को और अमीर तथा गरीबों को और गरीब बनाने में मदद मिलती है। इस आधार पर राष्ट्रीय एकता का निर्माण नहीं किया जा सकता है।
अब प्रश्न उठता है कि स्वाधीनता-प्राप्ति के बाद देश के विशाल जन-समूह को किस प्रकार एकताबद्ध किया जा सकता था? इसका जवाब है कि राष्ट्रीय क्रांति की पूर्ति में योगदान करने वाले जनवादी सुधारों के स्पष्ट कार्यक्रम ब्रिटिश संस्थाओं के राष्ट्रीयकरण, जोतने वालों के हाथों में जमीन के हस्तांतरण, इजारेदारी पर नियंत्रण, राष्ट्रीय उद्योगों के विकास के कदम, मजदूरों के लिए न्यूनतम मजदूरी की व्यवस्था, सभी क्षेत्रों में जनवाद के प्रसार और स्वतंत्र, शांतिपक्षी तथा उपनिवेशवाद-विरोधी विदेश-नीति के द्वारा। जहां भी इस तरह का काम किया गया, जैसे विदेश-नीति के द्वारा यह कार्य संपन्न किया जा सकता था अर्थात् के क्षेत्र में वहां व्यापक राष्ट्रीय एकता का रुप खड़ा हो गया, लेकिन जहां सरकार यह काम करने से चुक गयी, वहां वह जनता को एकजुट नहीं कर सकी।
राष्ट्रीय स्वाधीनता-प्राप्ति की उमंग की पहली तरंग के बाद ही हमारी जनता कांग्रेसी शासन के दंशों को अनुभव करने लगी। किसानों ने देखा कि उन्हें जमीन नहीं मिली, बल्कि उन्हें बेदखली का शिकार होना पड़ा। मजदूरों ने देखा कि उनके द्वारा पैदा की गयी अतिरिक्त संपत्ति पूंजीपतियों की तिजोरियों में बंद हो गयी। मध्यम वर्ग के कर्मचारियों ने देखा कि कीमतों में लगातार वृद्धि होने के कारण उनके अचल वेतन छिन्नते जा रहे हैं। सभी वर्गों के सामान्य लोगों ने देखा कि वे ही राष्ट्रीय पुननिर्माण के नाम पर भारी बोझ ढोते जा रहे हैं। जबकि अमीर और अमीर होते जा रहे हैं। इन सभी बातों के बाद भी कोढ़ में खाज की तरह सभी क्षेत्रों में भ्रष्टाचार का बोलबाला बढ़ गया और सत्ताधारी पार्टी के अधिकांश सदस्य अपने पद का पूर्ण इस्तेमाल करते हुए गुलछर्रें उड़ाने लगे।
फिर तो लाजमी तौर पर असंतोष बढ़ गया और अब देशव्यापी जनवादी आन्दोलन के अभाव में अनेक क्षेत्रों के प्रतिक्रियावादी तत्व अपने पक्ष में इसी असंतोष का उपयोग कर रहे हैं। पिछड़े हुए लोगों से कहा जाता है कि दुःख की जड़ सरकार की वर्गीय नीतियों में निहित नहीं है, बल्कि उसका कारण यह है कि खास जातियों अथवा क्षेत्रों के लोग सरकार के ऊंचे-ऊंचे पदों पर आसन जमाये बैठे हैं। सत्ताधारी पार्टी के अनेक सदस्य अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए स्वयं जाति और समुदाय के आधार पर पक्षपात करते हैं।
बहुधा मुसलमानों के प्रति भेदभाव की नीति अपनायी जाती है। उर्दू को उसके उचित स्थान पर प्रतिष्ठित नहीं किया जाता है। आदिवासियों (आदिम जन जातियों), पिछड़ी जातियों और पिछड़े समुदायों को पर्याप्त सुविधाएं नहीं दी जाती है; जिसमें उनका तीव्र विकास हो।
इन बातों के अतिरिक्त आर्थिक नियोजन में सरकार सभी क्षेत्रों के संतुलित विकास की आवश्यकताओं की ओर ध्यान नहीं देती है।
विघटनकारी और पृथकतावादी तत्व इन सभी बातों से लाभ उठाते हैं।
इन बढ़ती हुई फूटवादी प्रवृत्तियों का कारगर ढंग से मुकाबला करने में कांगे्रस न केवल विफल हो गयी है, बल्कि अन्य राज्यों में कांग्र्रेस के विभिन्न गुट अपने को मजबूत करने के लिए स्वयं इन प्रवृत्तियों का उपयोग कर रहे हैं। कई राज्यों में कांग्रेस जाति के आधार पर कई गुटों में विभक्त हो गयी है। इसके अतिरिक्त अपनी सत्ता को कायम रखने की दृष्टि से कांग्रेस ने केरल में मुस्लिम लीग से, पंजाब में अकालियों से और इसी तरह अन्य राज्यों में विघटनकारी तत्वों से हाथ मिलाने में कभी हिचकिचाहट नहीं दिखलायी है - इन सभी बातों से फूटवादी प्रवृत्तियां और अधिक मजबूत हुई हैं।
यह एक अच्छा लक्षण है कि अनेक कांग्रेसकर्मी इन घटनाओं से बहुत परेशान हैं। यह एक अच्छा लक्षण है कि वे संप्रदायवाद को नियंत्रित करने के लिए कदम उठाने की इच्छा व्यक्त करते हैं।
हम ऐसे सभी कांग्रेसकर्मियों से सहयोग स्थापित करना चाहते हैं। हम हर पार्टी के ऐसे सभी लोगों से सहयोग स्थापित करेंगे, जो संप्रदायवाद और जातिवाद से नफरत करते हैं, जो राष्ट्रीय एकता के झण्डे को ऊंचा उठाये रखना चाहते हैं। हम अपने राष्ट्रीय आन्दोलन की परंपराओं की रक्षा के लिए उनके साथ मिल कर संयुक्त कार्रवाई का संगठन करेंगे।
फिर भी, हमें यह समझ लेना चाहिए कि फूटवादी प्रवृत्तियों के विरुद्ध छेड़े जाने वाले संघर्ष को कांग्रेस और सरकार की नीतियों को मूलगामी दिशा की ओर मोड़ने के लिए छेड़े गये संघर्ष से अलग नहीं किया जा सकता है। हमें जिस तात्कालिक उद्देश्य को हासिल करने के लिए आगे बढ़ना है, उसका स्पष्ट रुप सामने आ जाना चाहिए। ऐसे ठोस आर्थिक और राजनीतिक कदम आवश्यक हैं, जो हमें उस उद्देश्य की ओर ले जाएं और जो तेज गति से तथा अविच्छिन्न रुप से आम जनता की स्थिति में परिवर्तन लाएं। एक सही नीति के साथ जो पिछड़े समुदायों को आगे बढ़ने में योगदान करें, जो भेदभाव के विरुद्ध मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यक समुदायों की हिफाजत करे तथा जो सभी क्षेत्रों का संतुलित विकास सुनिश्चित करे- जातिवाद, संप्रदायवादी, भाषाई और क्षेत्रीयतावादी तत्वों के विरुद्ध संगठित रुप से वैचारिक और राजनीतिक संघर्ष चलाना आवश्यक है।
इस समय इन सभी बातों का अभाव है। इसीलिए विघटनकारी शक्तियां इतनी प्रबल हो गयी हैं। हमें सभी देशभक्तों को पूरे धैर्य के साथ इस स्थिति से अवगत कराने का पूरा प्रयास करना चाहिए, ताकि राष्ट्रीय एकता का निर्माण करने वाले कार्यक्रम, नीतियों और कदमों के पक्ष में आम जनता का समर्थन प्राप्त किया जा सके।
राष्ट्रीय जनवादी कर्तव्यों को पूरा करने के लिए राष्ट्रीय जनवादी मोर्चा
साथियों, इन बातों को देखते हुए कहा जा सकता है कि हमारे सम्मुख जो स्थिति है, वह बहुत ही जटिल और परस्पर विरोधी तथ्यों से भरी है।
पहला, हमारे उद्योग-धंधे आगे बढ़े हैं, लेकिन हमारी आवश्यकताओं को देखते हुए उनकी गति बहुत ही धीमी और लड़खड़ाती हुई है। सब बातों पर विचार करते हुए कृषि अर्ध निश्चल स्थिति में और मानसून के उतार-चढ़ाव पर निर्भर है।
दूसरा, सबसे बड़ी बात यह है कि समाजवादी विश्व और विशेषकर सोवियत संघ के साथ हमारे आर्थिक संबंधों में वृद्धि हुई है, जिससे अनेक उद्योग खड़े हो गये हैं, जो हमारी स्वतंत्रता की जड़ो को मजबूत करते हैं। फिर भी सरकार ने साम्राज्यवादी देशों और मुख्यतः अमेरिका से काफी कर्ज लिया है, और आज भी लेती जा रही है। भारत के बड़े-बड़े पूंजीपतियों और विदेशी पंूजी की साठगांठ मजबूत होती जा रही है।
तीसरा, हमारी अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक क्षेत्र ने एक महत्वपूर्ण स्थान ग्रहण कर लिया है, लेकिन साथ-ही-साथ इजारेदारी का भी काफी विकास हुआ है और बड़े इजारेदारों के हाथों में आर्थिक सत्ता संकेन्द्रित हो गयी है।
चैथा, सामंती संबंधों को नियंत्रित किया जा रहा है, लेकिन अधिक लाभ मुट्ठी भर धनी किसानों को हो रहा है। इसके अतिरिक्त भूस्वामियों के अधिकारों में कमी नहीं हुई और उनकी गतिविधियां तेज हो गयी हैं।
पांचवा, जनता पर भारी बोझ लादकर और शहरों तथा गांवों दोनों ही क्षेत्रों के धनाढ्य वर्गों को और भी धनाढ्य बन कर आर्थिक विकास का ढिंढोरा पीटा जा सकता है। बेरोजगारों की संख्या में और भी वृद्धि हुई है।
छठा, मजदूरों, कठिन परिश्रम करने वाले किसानों और बुद्धिजीवियों की दुःख तकलीफ बढ़ी है, जिससे कई तरह के संघर्ष खड़े हो गये हैं, जिनमें आम लोगों ने अपने जुझारुपन, साहसिकता और संघर्ष-चेतना का परिचय दिया है। लेकिन कई कारणों से, जैसे लोकप्रिय संगठनों की फूट, दक्षिणपक्षी सोशलिस्टों की विघटनकारी भूमिका, राष्ट्रीय राजनीतिक स्तर पर काम करने में मजदूर वर्ग की अक्षमता, किसान-संगठनों की कमजोरी और राष्ट्रीय पैमाने पर अनवरत आन्दोलन का संचालन करने में हमारी विफलता के फलस्वरुप, इन संघर्षों के बावजूद, जनवादी आन्दोलन कमजोर है और वह बड़ी मांगों को हासिल करने में अक्षम है।
सातवां, अधिकांश राज्यों में आम जनता के बीच हमारा प्रभाव बढ़ा है, लेकिन अपने देश के राजनीतिक जीवन में हम अभी तक निर्णायक शक्ति का ग्रहण नहीं कर सके हैं।
आठवां, पहले से भी अधिक उछल-कूद और ऊद्यम मचाने वाली धर्माेन्मादग्रस्त पार्टियां विभिन्न क्षेत्रों में जनता के असंतोष से लाभ उठाती जा रही हैंः जातिवाद, संप्रदायवाद और प्रांतीयता की प्रवृत्तियां और अधिक प्रबल हो गयी हैं। फूटवादी और विघटनकारी प्रवृत्तियां परवान चढ़ती जा रही हैं।
नौवां, उग्र प्रतिक्रियावादी तत्वों ने खुलेआम स्वतंत्र पार्टी नामक एक राजनीतिक पार्टी स्थापित कर ली है, जो भारत की विदेश-नीति, सार्वजनिक क्षेत्र, भूमि-सुधारों आदि की भत्र्सना करती है। स्वतंत्र पार्टी बहुधा प्रतिक्रियावादी सांप्रदायिक पार्टियों, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के दक्षिण पक्षी नेताओं और कांग्रेस के भीतर के दक्षिण पक्षी तत्वों के साथ पूरी तरह सांठगांठ करके काम करती है।
दसवां, नेहरु-सरकार की बुनियादी नीतियां पहले की ही भांति बाहरी और घरेलू दोनों ही क्षेत्रों में राष्ट्रीय पूंजीवादी नीतियां हैं। फिर भी दक्षिणपक्षी तत्वों ने कांग्रेस संगठन पर अपना शिकंजा कस दिया है और वे सरकार को दक्षिणपक्ष की ओर ले जाने के लिए प्रयत्नशील हैं। कई बार उनके हमलों को विफल किया गया है। कांग्रेस के भीतर नीतियों को लेकर तीव्र विवाद खड़े हो गये हैं, लेकिन कई सवालों पर कांग्रेस दक्षिण पक्ष की ओर कुछ-कुछ खिसकती हुई दिखलायी पड़ी है।
कुछ राज्यों में जनवादी आन्दोलन के विकास और हमारी पार्टी के प्रभाव में वृद्धि के बावजूद हमारे आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक जीवन में जो नकारात्मक पहलू उभर आये हैं, उनसे हमारे देश, हमारी स्वतंत्र और शांति पक्षी विदेश-नीति, हमारे सर्वतोमुखी आर्थिक विकास, जन-कल्याण और भारतीय जनतंत्र के सम्मुख गंभीर खतरे उत्पन्न हो गये हैं।
जो हो, भयभीत होने की कोई जरुरत नहीं हैं लेकिन हमें खुशहाली का भी शिकार नहीं होना चाहिए। आगे, हमें कठिन दिनों का सामना करना पड़ेगा, जो तीखे विवादों, प्रखर परिवर्तनों और संकट के भी दिन होंगे।
सबके बावजूद इस पर जोर देना आवश्यक है, क्योंकि हमारी पार्टी में ऐसी प्रवृत्ति मजबूत होती जा रही है, जो हमें संसदवाद के शांतिपूर्ण मार्ग से जोड़ती है। इस प्रवृत्ति के कारण यह धारणा उत्पन्न हो गयी है कि आने वाले सफल चुनावों के माध्यम से, जिनमें हम क्रमशः काफी मजबूत होते जाएंगे, कठिन परिश्रम करने वाले जन-समूह को सत्ता पर विजय प्राप्त करने की दिशा की ओर अग्रसर किया जा सकता है। यह एक ऐसी धारणा है, जिससे जुड़कर हम एक लंबे समय तक के लिए संसदीय जनवाद को पूरी तरह स्वीकार कर लेते हैैं और समझते हैं कि इस पर कोई बहुत बड़ी आंच नहीं आयेगी। इस धारणा से हम यह भी समझ बैठते हैं कि पूंजीवादी उदार चेतना से स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के माध्यम से सहज ढंग से और अविराम गति से आगे बढ़ा जा सकता है।
सार रुप में यह एक सुधारवादी और संशोधनवादी धारणा है। इससे किसानों के बीच सार्वजनिक रुप से काम करने में उदासीनता बरतने और आम लोगों को संघर्षशील नहीं बल्कि केवल मतदाता समझते की प्रवृत्ति और विधान सभा के कार्यों तथा जन-संघर्षों को एक साथ जोड़ने के बदले जन-संघर्षों के स्थान पर विधान सभा के कार्यों को अधिक महत्व देने जैसे सुधारवादी दृष्टिकोण पनपते हैं। इससे ऐसा गूढ़ संकीर्णतावादी दृष्टिकोण भी पनप सकता है कि मित्रों को प्रभावित करने की कोई खास जरुरत नहीं है। हमारी पार्टी में वस्तुतः दोनों ही बाते दिखलायी पड़ती हैं।
हमने अप्रैल, 1958 में अमृतसर में इस संबंध में जो कुछ कहा था, वह ध्यातव्य है ‘‘यदि कम्युनिस्ट पार्टी और जनवादी ताकतें अभी से एकजुट होकर गंभीरतापूर्वक जनता के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह करने के लिए तैयार हो जायें, तो कांगे्रस के एकछत्र शासन में अवश्य ही और भी बड़ी दरारें पैदा हो सकती हैं। यह प्रक्रिया केरल में शुरु हुई और उसे कुछ अन्य राज्यों में भी वैकल्पिक जनवादी सरकारें स्थापित करने के उद्देश्य से आगे बढ़ाया जा सकता है।’’
इस प्रस्थापना का सुधारवादी निष्कर्ष इस तथ्य में निहित है कि यह सत्ता की ओर असानी के साथ बढ़ने की संभावना प्रस्तुत करती है। इस धारणा को अपनाकर सामाजिक अंतर्विरोधों के तीव्र होने जन-आन्दोलन के विकसित होने और हमारी ताकत बढ़ने के साथ-साथ जन-आन्दोलन पर किये जाने वाले कठोर हमले की कल्पना भी नहीं की जा सकती है, ऐसे हमले की कल्पना, जिससे संसदीय जनतंत्र पर सच्चा खतरा मंडराने लग जा सकता है। इसके साथ ही इसके निहितार्थ बहुत ही संकीर्णतावादी होंगे, क्योंकि ये पार्टी के तात्कालिक जन-कार्यों को आम राष्ट्रीय जनवादी कार्यों की पूर्ति के लिए राष्ट्रीय जनवादी एकता के साथ नहीं बल्कि ‘‘वैकल्पिक जनवादी सरकार’’ के नारे के साथ प्रत्यक्ष रुप से जोड़ते हैं - स्मरणीय है कि ‘‘वैकल्पिक जनवादी सरकार’’ का नारा ठीक वैसा ही नारा है जैसा कि जनवादी एकता की सरकार का नारा था, जिसे हमने 1954 में मदुरै में बुलंद किया था। चुनावों के अवसर पर एक विशेष राज्य में यह नारा बुलंद करना एक बात थी और चुनावों के वर्षों पहले एक सामान्य नारे के रुप में पार्टी के सभी सार्वजनिक कार्यों को इससे जोड़ना दूसरी बात है। इस प्रकार के संयोजन से और कुछ नहीं केवल जनवादी मोर्चे का कार्य-क्षेत्र संकीर्ण होगा और उसका असर रोजमर्रें के आन्दोलन पर भी पड़ेगा।
आज सभी खुशफहमियों को दूर करने की जरुरत है। यह देखना जरुरी है कि हमारे राष्ट्र के सम्मुख कई ज्वंलत विकल्प उपस्थित हैं। चाहे जनवादी ताकतें एकजुट हों और वे दक्षिण प्रतिक्रियावादी तत्वों को बेपनाह और पराजित करें, दक्षिणपक्ष की ओर जाने से सरकार को रोकें और सरकार को वामपक्ष की ओर आर्थिक जनवादी विकास की ओर ले जायें अथवा हमलावर प्रतिक्रियावादी ताकतें कांग्रेस और सरकार की भीतर के अपने मित्रों की सहायता से व्यापक रुप से दक्षिणपक्ष की ओर घसीट ले जायें।
मैने जिस नकारात्मक रुपों का वर्णन किया है, उनके बावजूद परिस्थितियां जनवादी ताकतों के बिलकुल अनुकूल हैं। नये युग का स्वरुप, विश्व की शक्तियों का नया संतुलन, समाजवादी व्यवस्था और समाजवादी व्यवस्था के हरावल सोवियत संघ की भूमिका, ये सभी बातें जनता को समाजवाद की ओर आकृष्ट कर रही हैं। अपनी अनेक खामियों के बावजूद हमारी पार्टी ने देश में एक बड़ा स्थान ग्रहण कर लिया है। पिछले साढ़े तेरह साल के जीवंत अनुभवों ने हमारी जनता को कई बातें सिखलायी हैं- सबसे बड़ी बात इसने जनता को संघर्ष और एकता की आवश्यकता बता दी है। जो कांग्रेसकर्मी और कांग्रेस के समर्थक दक्षिणपक्षी प्रतिक्रिया के उभार और फूटवादी प्रवृत्तियों के विकास से चिन्तित हैं तथा जो चाहते हैं कि सरकार अपनी प्रगतिशील घोषणाओं को लागू करे, वे अब पुनर्चिंतन भी करने लगे हैं।
जनता बुनियादी सुधारों की दिशा की ओर अग्रसर होती जा रही है और सरकार की जन-विरोधी नीतियों के कारण असंतोष और निराशा की भावनाएं बढ़ती जा रही हैं। इन बातों का प्रभाव कांग्रेस पर भी पड़ रहा है। निहित स्वार्थी तत्वों के चंगुल का फैलाव, कांग्रेस के भीतर भूस्वामियों ओर अन्य प्रतिक्रियावादी तत्वों का जमाव, भ्रष्टाचार की वृद्धि और कांग्रेसकर्मियों ने एक समय जिन मूल्यों की कामना की थी, उनका हृास, दमन और जनता का शोषण, पदों के लिए निरंतर तू-तू, मैं-मैं और भाई-भतीजावाद - जन आन्दोलन के प्रभाव से जुड़ी हुई इन सभी बातों से कांग्रेस के भीतर मोहभंग ओर विभेदीकरण की प्रक्रियाओं का जन्म होता है।
इस तरह के और भी अनुकूल कारक मौजूद हैं। वे बहुत ही व्यापक जनवादी एकता की परिस्थितियां, संयुक्त जन-आंदोलन की परिस्थितियां, विस्तृत और सुदृढ़ जन आन्दोलन की परिस्थितियां उत्पन्न कर रहे हैं। इस तरह का आन्दोलन अभियानों, संघर्षो और अन्य सरगरमियों के द्वारा खड़ा हो सकता है। इसे सभी क्षेत्रों से गुजरना होगा और सुदृढ़ जन संगठनों की बुनियाद पर खड़ा होना होगा। तभी दक्षिणपक्षी प्रतिक्रियावादी तत्वों के षड्यंत्रों को विफल किया जा सकता है, सरकार की नीतियों को इच्छित दिशा की ओर मोड़ा जा सकता है और सर्वतोमुखी विकास को सुनिश्चित किया जा सकता है।
इस तरह का आन्दोलन खड़ा करने के लिए हमारी पार्टी को देश के प्रति अनुराग रखने वाले सभी तत्वों और जनवादी शक्तियों को एकजुट करने का पूरा प्रयास करना पड़ेगा।
लेकिन किसलिए? अविलंब जनवादी सुधारों के लिए, सरकार की सभी प्रगतिशील नीतियों को बचाने और मजबूत करने के लिए, जनता को नुकसान पहंुचाने वाली और आर्थिक विकास की गति को रोकने वाली नीतियों को विरोध करने के लिए तथा ऐसी नीतियों को उलटने के लिए और उन्हें वामपक्ष की ओर मोड़ने के लिए।
इस संदर्भ में मेहनतकश लोगों के आवश्यक हितों की हिफाजत करने के लिए और उनके जीवन-स्तर को उन्नत करने के लिए क्रियात्मक एकता की स्थापना करना सबसे अधिक महत्वपूर्ण है।
इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए किन-किन शक्तियों को एकजुट करना पड़ेगा? हमारी पार्टी के भीतर इस बात को लेकर कोई मतभेद नहीं हंै कि किन वर्गों के योगदान से जनवादी मोर्चें को संघटित किया जाय। हम सभी इस बात से सहमत हैं कि मोर्चं में मजदूर, किसान, निम्न पूंजीपति और साम्राज्यवादी केन्द्रों से संबंध नहीं रखने वाले राष्ट्रीय पूंजीपति शामिल रहेंगे। हम इस बात से भी सहमत है कि मजदूर-किसान-एकता ही इस मोर्चे की आत्मा और धुरी होगी। अमृतसर में तीन साल पहले हमने कहा था कि किसान-सभाओं और खेत मजदूर यूनियनों को संगठित और विकसित करने में हमारी विफलता ही जनवादी आंदोलन की सबसे बड़ी कमजोरी का द्योतक है। आज भी वह कमजोरी मौजूद है। इसलिए हमें एक बार फिर इस नारे पर अधिक जोर देना चाहिए; ‘किसानों की ओर पार्टी का मुंह मोड़ दो।’ इस बार पूरी गंभीरता के साथ हमें इस नारे को बुलंद करना चाहिए और राज्य इकाई को इसे लागू करना चाहिए।
जहां तक पार्टियों का सवाल है, हम प्रजा सोशलिस्ट और सोशलिस्ट पार्टी की भूमिका के बारे में सहमत हैं कि इन पार्टियों का नेतृत्व, खासकर प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का नेतृत्व कई अर्थों में कांग्रेस से भी कहीं अधिक दक्षिणपक्षी हैं। फिर भी मोटे तौर पर उसके कार्यकर्ता वामपक्षी और समाजवादी विचारों के हैं। इसलिए एक तीखा वैचारिक संघर्ष शुरु करते समय इन पार्टियों के प्रति सही दृष्टिकोण अपनाने की जरुरत है, जिसमें जहां तक संभव हो आम सरगार्मियों और संघर्षों की ओर उन्हें और खासकर उनके अनुयायियों को आकर्षित किया जा सके।
कांग्रेस के बारे में कौन-सा रुख अपनाया जाये?
हमारे देश के राजनीजिक जीवन में कांग्रेस का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान रहा है और आज भी है। उसने स्वाधीनता-संग्राम में और नेहरु के नेतृत्व में स्वाधीनता की जड़ों को सुदृढ़ करने के संघर्ष में जो भूमिका अदा की है, उसको देखते हुए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। कांग्रेस का प्रभाव विशाल और व्यापक है, हालांकि स्वाधीनता-संग्राम के दिनों के मुकाबले में उस प्रभाव में कमी आयी है। उसका प्रभाव सभी वर्गों में - मजदूर-वर्ग के एक विशाल हिस्से में फैला हुआ है। उसका प्रभाव किसानों, दस्तकारों, बुद्धिजीवियों और दूसरे लोगों के बीच में भी है। नेहरु का प्रभाव और भी व्यापक है। भारत की इस विशाल वास्तविकता को नजरअंदाज कर हम राष्ट्रीय जनवादी मोर्चे का निर्माण नहीं कर सकते हैं।
इसीलिए हमारी पार्टी की चैथी कांग्रेस में कहा गया है कि कांग्रेस के पीछे चलने वाली जनता और जनवादी विरोधपक्ष की पार्टियों के पीछे चलने वाली जनता के बीच का विभाजन जनवादी शिविर का सर्वाधिक महत्वपूर्ण विभाजन है। क्या वह स्थिति आज भी जारी है? हां, वह जारी है। कुछ राज्यों में, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के प्रभाव में हृास होने के साथ-साथ, वह सर्वाधिक महत्वपूर्ण विभाजन कांग्रेस के पीछे चलने वाली जनता और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पीछे चलने वाली जनता के विभाजन का रुप-ग्रहण कर चुका है। यह कहते हुए मेरे सामने केरल, आंध्र और पश्चिम बंगाल के उदाहरण हैं।
क्या इसका यह आशय है कि आज कांग्रेस, अर्थात् जिस रुप में आज कांग्रेस है, के साथ सामान्य संयुक्त मोर्चा कायम करना संभव है? नहीं। अनिवार्यतः हम एकता और संघर्ष के संबंध कायम रखेंगे। कांग्रेस - उसके दक्षिण पक्ष को मिला कर- समग्र रुप में राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग का एक अंग है। इसके अतिरिक्त, स्वाधीनता-प्राप्ति के बाद, उसमें ऐसे अनेक प्रतिक्रियावादी तत्व शामिल हो गये, जो राष्ट्रीय स्वाधीनता-संग्राम के विरोधी थे, जैसे भूस्वामी और अन्य तत्व। उसके अनेक पुराने नेता बड़े-बड़े पूंजीपतियों से संपर्क स्थापित कर भ्रष्ट हो गये। कुड ऐसे लोग भी उसमें शामिल हो गये हैं, जिनको राष्ट्रीय आन्दोलन से कुछ भी लेना-देना नहीं है। कांग्रेस और उसकी सरकारों के अनेक कार्यों में इन बातों की झलक मिलती है।
फिर भी, कांग्रेस को दक्षिणपक्षी प्रतिक्रियावादी पार्टियों के बराबर समझ लेना बहुत बड़ी भूल होगी। आज के संदर्भ में कांग्रेस की अनेक घोषित नीतियां और उसके कुछ कदम प्रगतिशील हैं- जैसे विदेश-नीति, सार्वजनिक क्षेत्र, धर्म-निरपेक्षता आदि।
निम्नलिखित तथ्य स्थिति की जटिलता को उजागर करते हैं: 1. वे नीतियां और काम, जिनसे जनता को नुकसान पहंुचता है और कांग्रेस तथा सरकार की वे नीतियां, जो असंतोष और कुण्ठा को जन्म देती हैं। जनता को गुमराह करने और अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए दक्षिणपक्षी प्रतिक्रियावादी तत्व इसी असंतोष का उपयोग करते हैं। फिर भी हम केवल अपने बल पर अथवा केवल वामपक्षी ताकतों की एकता पर भी कारगर ढंग से इन नीतियों का मुकाबला नहीं कर सकते हैं: इन नीतियों के खिलाफ संघर्ष को फैलाने और तेज करने के लिए आवश्यकता इस बात की है कि कांग्रेस के पीछे चलने वाले और कांग्रेस के प्रति वफादार विशाल जन-समूह को संघर्ष में खींच लाया गया।
2. दक्षिणपक्षी ताकतों का एक बड़ा हिस्सा कांग्रेस के भीतर है। साथ ही हमारे अनेक ठोस मित्र भी कांग्रेस के भीतर हंै।
यह सच है कि अनेक कांग्रेसी नेता वास्तव में शांति और गुट-निरपेक्षता की विदेश-नीति का समर्थन नहीं करते हैं, लेकिन यह भी इतना सच है कि जो लोग इसका समर्थन करते हैं और जो लोग इसकी हिफाजत करना चाहते हैं, वे प्रजा सोशलिस्ट पार्टी अथवा किसी दूसरी ‘‘वामपक्षी’’ पार्टी के भीतर नहीं, बल्कि कांग्रेस के भीतर अथवा उन लोगों के बीच में नेहरु के प्रभाव में हैं, मौजूद हैं। फिर सार्वजनिक क्षेत्र को ही लें। कांग्रेस के भीतर के कई लोग इसकी भत्र्सना करते हैं। लेकिन यह भी सच है कि ऐसे बहुत से लोग जो इसकी रक्षा करना और इसको विस्तृत करना चाहते हैं, वे भी कांग्रेस के भीतर ही मौजूद हैं। जहां तक संप्रदायवाद का सवाल है, यह कहना ठीक होगा कि वह कांग्रेस के भीतर बहुत गहराई में प्रवेश कर गया है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जबलपुर की घटनाओं से अनेक वामपक्षी पार्टियों के नेताओं से भी कहीं अधिक नेहरु और अनेक कांग्रेसीकर्मी दुःखी थे।
क्या कांग्रेसकर्मियों से संपर्क स्थापित किये बिना और उसका समर्थन प्राप्त किये बिना हम भारत की विदेश-नीति की रक्षा, सार्वजनिक क्षेत्र की रक्षा और संसदीय व्यवस्था की रक्षा कर सकते हैं? क्या हम उनके सहयोग के बिना संप्रदायवाद से कारगर ढंग से संघर्ष करने की उम्मीद कर सकते हैं?
स्पष्टतः नहीं। इसलिए निष्कर्ष निकलता है कि अपने संगठन के प्रति कांग्रेसकर्मियों की निष्ठा और उनकी भावनाओं को देखते हुए हमें अपना दृष्टिकोण स्थिर करना चाहिए। हमें बार-बार न केवल कांग्रेस का समर्थन करने वाले जन-समूह, कांग्रेसकर्मियों बल्कि संबद्ध समस्याओं और क्षेत्र की ठोस परिस्थितियों पर विचार करते हुए कांग्रेस कमिटियों से भी प्रत्यक्ष अपील करनी चाहिए।
संप्रदायवाद का विरोध एक अत्यावश्यक और महत्वपूर्ण विषय है, जिस पर व्यापक एकता स्थापित की जा सकती है। यदि इस संबंध में व्यावहारिक संयुक्त कार्रवाई के लिए सही दृष्टिकोण अपनाया जाये और भाईचारे की अपील की जाये, तो कांग्रेसकर्मियों के साथ-साथ सभी स्वस्थ तत्व इसका समर्थन करेंगे। मध्य प्रदेश के दंगों और मुख्यतः हिन्दीभाषी क्षेत्रों में जनसंघ की गतिविधियों के तेज होने के बाद यह बात और भी आवश्यक हो गयी है।
हमें राजनीतिक स्वतंत्रता को सुदृढ़ करने, संसदीय जनवाद, विदेश नीति, सार्वजनिक क्षेत्र, कृषि-सुधारों आदि की हिफाजत करने के संधर्ष में कांग्रेस के भीतर के जनवादियों और अनेक कांग्रेसकर्मियों को अवश्य ही अपना मित्र और ठोस सहयोगी समझना चाहिए। हमें अवश्य ही भाईचारे का दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। इसके अतिरिक्त कांग्रेस द्वारा जब भी कोई प्रगतिशील घोषणा की जाती हो, तब हमें केवल उस घोषणा की पोल खोलने में ही नहीं रह जाना चाहिए, बल्कि एकता की स्थापना के लिए उसका उपयोग करना चाहिए।
साथियों, यदि कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन के बाद ‘‘हदबंदी के संबंध में अपने फैसले लागू करो’’ का नारा बुलंद कर हमने देश के सभी भागों में किसनों की पदयात्राएं संगठित की होतीं, तो कितना अच्छा रहता? क्या इससे हमें उन किसानों से अपना संपर्क सुदृढ़ करने में मदद नहीं मिलती, जिनमें से बहुतों को हमारे सभी साथी प्रबल कांग्रेस - समर्थक मानते हैं?
इसके अतिरिक्त क्या यह एक अच्छी बात नहीं होती, यदि उड़ीसा में कांग्रेस गणतंत्र परिषद की सांठगांठ के बाद हम कांग्रेस की पोल खोलने में ही न लगे रहकर, संपूर्ण राज्य में जन-अभियान का आयोजन कर कांग्रेसकर्मियों को राजाओं के विरोध में किये जाने वाले संघर्ष की परंपराओं की याद दिलाते और उनसे यह कहते कि वे साठगांठ को तोड़ने के लिए अपने नेताओं पर दबाव डालें?
क्या यह भी अच्छी बात नहीं होती कि जब दक्षिणपक्षी तत्वों और प्रजासोशलिस्ट पार्टी के नेताओं ने कृष्ण मेनन पर हमला बोल दिया और जब नेहरु ने दृढ़ता दिखलायी, तब हम नेहरु के समर्थन में सार्वजनिक प्रदर्शनों का आयोजन करने में जुट जाते? क्या उससे जनवादी विचार वाले कांग्रेसकर्मियों के साथ एकता स्थापित करने और स्वयं सरकार के प्रतिक्रियावादी कदमों के विरुद्ध भी अत्यधिक प्रभावशाली ढंग से संघर्ष करने में मदद नहीं मिलती?
हम दूसरे उदाहरण पर गौर करें। उच्च क्षेत्रों की ओर से यह प्रस्ताव उपस्थ्ति किया गया कि निजी तौर भी सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों के साझों की बिक्री की व्यवस्था की जाय। इस सवाल को लेकर कांग्रेस के नेताओं में गहरे मतभेद पैदा हो गये। क्या इस संबंध में हम अपनी भूमिका का निर्वाह नहीं कर सकते थे?
सैद्धांतिक दृष्टिकोण से कुछ ही साथियों को इनमें से एक ही बात पर मतभेद होगा। लेकिन इस संबंध में कुछ हिचकिचाहट अवश्य है।
मैं निश्चयपूर्वक इस एक प्रमुख बात पर खूब जोर देते हुए कह सकता हूं कि अपने संघर्षों के आधार को विस्तृत करने की आवश्यकता को देखते हुए और आगे के दिनों की नाजुक स्थिति को देखते हुए पहले की अपेक्षा यह अधिक आवश्यक हो गया है कि हम कांग्रेस के भीतर जनवादियों और कांग्रेस के प्रभाव में रहने वाली जनता से संपर्क स्थापित करने के लिए घनघोर परिश्रम करें। हमें इस बात पर अधिक जोर देने की जरुरत है; क्यांेकि पालघाट में हमने जो कुछ भी कहा, उसके बावजूद हमने इस काम की ओर बहुत ही कम ध्यान दिया।
इसके लिए निम्नलिखित बातों की ओर ध्यान देने की जरुरत है:
1. जनता की एकता को व्यावहारिक रुप प्रदान करने के लिए कांग्रेस की प्रगतिशील घोषणाओं से लाभ उठाना चाहिए।
2. आन्दोलन के दौर में केवल उन्हीं लोगों के बारे में नहीं सोचना चाहिए, जो हमारे प्रभाव में हों, बल्कि उनके बारे में भी जो हमारे प्रभाव में नहीं हों; केवल उन्हीं लोगों के पक्ष में नहीं बोलना चाहिए, जो ‘‘सामने’’ विराजमान हों और कांग्रेस तथा उसकी सरकार की भत्र्सना करते हुए बात पर खुश होते हों, बल्कि उनके पक्ष में भी जो ‘‘परिधि के पास खड़े हों’’।
3. दक्षिण प्रतिक्रयावादी तत्वों के विरुद्ध, सांप्रदायिक पार्टियों के विरुद्ध और उनकी नीतियों तथा नारों के विरुद्ध दृढ़ और समझौता-विहीन संघर्ष छेड़ना चाहिए। इससे ईमानदार कांग्रेसकर्मी हमारी ओर आकृष्ट होंगे।
4. कांग्रेस कर्मियों और कांग्रेसी लोगों के बीच धैर्यपूर्वक तर्क का आधार अपनाकर मुहिम चलानी चाहिए। जो स्थिति पैदा होती जा रही है, उससे और खासकर विघटनकारी प्रवृतियों के विकास से वे चिन्तित हैं। हमें इस स्थिति के बुनियादी कारणों का और खासकर सरकार की वर्गीय नीतियों के फलस्वरुप एक प्ररेक उद्देश्य की कमी का स्पष्ट उल्लेख करना चाहिए।
5. कांग्रेस कर्मियों और कांग्रेसी लोगों के बीच धैर्यपूर्वक तर्क का आधार अपनाकर मुहिम चलानी चाहिए। जो स्थिति पैदा होती जा रही है, उससे और खासकर विघटनकारी प्रवृत्तियों के विकास से वे चिन्तित हैं। हमें इस स्थिति के बुनयिादी कारणों का और खास कर सरकार की वर्गीय नीतियों के फलस्वरुप एक प्रेरक उद्देश्य की कमी का स्पष्ट उल्लेख करना चाहिए।
कांग्रेसकर्मियों और कांग्रेस का अनुसरण करने वाली जनता के साथ मिलकर आम कार्यों को आगे बढ़ाते हुए हमारी पार्टी को धैर्य के साथ और तर्क के आधार पर मुहिम चलाने की जरुरत है, ताकि उन्हें बतलाया जा सके कि भारत और विश्व की वर्तमान परिस्थितियों में कांग्रेस की बुनियादी नीतियां स्वतः कितनी अनुपयुक्त हैं और किस प्रकार ये नीतियां भारत में पूंजीवादी समाज के विकास के प्रयासों से उत्पन्न होती हैं और वह भी विदेशी पूंजी के विरुद्ध दृढ़ कदम उठाये बिना, किसानों के हितों में बुनियादी कृषि-सुधारों की ओर ध्यान दिये बिना और इजारेदारों को सभी प्रकार की रिआयतें प्रदान करके।
कांग्रेसी नेताओं ने हमारी जनता और साथ-ही-साथ अपने अनुयायियों में भी समाजवादी विचारधारा के प्रति प्रबल आकर्षण देखकर समाजवाद का लक्ष्य स्वीकार कर लिया है, लेकिन उनके पूरे व्यवहार से यह सिद्ध होता है कि वे इस लक्ष्य को स्वीकार कर समाजवाद के यथार्थ मंतव्यों को विकृत करना और आम जनता को जनवादी सुधारों के संघर्ष से अलग करना चाहते हैं। इसलिए हमें लगातार पूरे धैर्य के साथ जनता को और कांग्रेसकर्मियों को समझाना चाहिए कि कांग्रेस और कांग्रेस की सरकार के सिद्धांतों, नीतियों और कार्यों में समाजवाद की गंध तक नहीं है। हमें उन्हें यह भी बतलाना चाहिए कि समाजवाद का क्या अर्थ है और उसे कैसे हासिल किया जा सकता है।
हमारे देश के बहुत से लोगों ने अस्पष्ट और सामान्य ढंग से सही लक्ष्य के रुप में सामाजवाद को स्वीकार कर लिया है। उन्होंने यह देखा है कि जिन देशों में समाजवाद की जीत हो चुकी है,वहां उसने क्या उपलब्ध किया है। उन्होंने यह देखा है कि उसने कैसे पूंजीवादी अराजकता को खत्म कर दिया, कैसे मुट्ठी भर लोगों की दौलत और अधिकांश लोगों की गरीबी के बीच की घोर विषमता का उन्मूलन कर दिया, कैसे बेरोजगारी को दूर कर दिया और कैसे देश को तेज तथा सुसंगत विकास के पथ पर अग्रसर कर दिया। यही कारण है कि वे समाजवाद की ओर खिंचे चले आये।
हमारा एक बड़ा वैचारिक कर्तव्य है कि हम इस चेतना को आगे बढ़ायें। हमें आम जनता को ओर विशेष रुप से मजदूरों तथा आगे बढ़े हुए लोगों को वैज्ञानिक समाजवाद के सिद्धांतों को समझाना चाहिए और आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक सभी क्षेत्रों में जनवाद की रक्षा और विस्तार के संघर्ष तथा समाजवाद के बीच के संबंधों को स्पष्ट करना चाहिए।
हमने कांग्रेस के जनवादियों के बारे में जो कुछ भी कहा है, उसका यह मतलब नहीं कि अन्य पार्टियों में और जिनका किसी पार्टी से संबंध नहीं है, ऐसे लोगों के बीच प्रगतिशील तथा जनवादी तत्व नहीं है। इसके विपरीत, उनकी भी संख्या कम नहीं है। यह सच है कि जनता का एक बड़ा हिस्सा कांग्रेस के प्रति निष्ठा व्यक्त करता है, लेकिन ऐसे लोगों की भी संख्या कम नहीं है, जो कांग्रेस को छोड़कर किसी दूसरी पार्टी का अनुसरण करते हैं अथवा किसी भी पार्टी से संबद्ध नहीं है। हमें आम गतिविधियों की ओर उन्हें आकर्षित करने का पूरा प्रयास करना चाहिए।
हमें दक्षिणपक्षी प्रतिक्रिया तत्वों के विरुद्ध अथक और निर्णायक संघर्ष शुरु करना होगा। हमें सरकार की जन-विरोधी नीतियों के विरुद्ध संघर्ष करना होगा। हमें निहित स्वार्थी तत्वों और सरकार के हमलों से जनता की हिफाजत करनी होगी। हमें जातिवादी और संप्रदायवादी ताकतों के खिलाफ बिना किसी समझौते के लड़ना होगा। इसके अतिरिक्त एकता के लिए प्रयास करते हुए, परिस्थिति की मांग के अनुसार, हमें अपने प्रभाव के आधार पर और जनता को गोलबंद करने की अपनी क्षमता के आधार पर पार्टी की ओर से स्वतंत्र रुप से जन-संघर्ष का आयोजन करना होगा। हमें यह सब कुछ मिल जुल कर करना होगा। तभी जनवादी मोर्चा खड़ा हो पायेगा।
बिरादराना और वास्तविक संयुक्त मोर्चा के दृष्टिकोणों से जुड़ी हुई पार्टी की स्वतंत्र सार्वजनिक गतिविधि, जिसमें हर सवाल पर अधिकाधिक समर्थन हासिल किया जा सके - यही हमारी कार्यनीति होनी चाहिए। इस तरह की स्वतंत्र सार्वजनिक गतिविधि के लिए हमारा अनुसरण करने वाली जनता की चेतना के स्तर को उन्नत करने की आवश्यकता है। हम जन-संघर्ष के लिए पूर्वशर्त के रुप में एकता का सवाल खड़ा करना नहीं चाहते हैं। बिहार में टैक्स-विरोधी संघर्ष का जिक्र करते हुए हमने बतलाया है कि हम एकता के लिए इंतजार नहीं करते हैं। लेकिन अपने बल पर संघर्ष शुरु करते हुए और ऐसे संघर्ष की तैयारी के दौर में भी हमें ऐसा दृष्टिकोण अपनाना चाहिए, जिसमें दूसरे लोग भी हमारी ओर आकृष्ट हों। साथियों, सवाल यह नहीं है कि हमें हो-न-हो संघर्ष शुरु करना ही होगा। सवाल यह है कि इसे कैसे, किस दृष्टिकोण के साथ, किस नारे के साथ और किस कार्यनीति के साथ शुरु किया जाये, जिसमें यह जहां तक संभव हो विस्तृत आधार पर शुरु किया जा सके और सफलताएं प्राप्त की जा सकें।
हम एक नाजुक दौर से गुजर रहे हैं। हमें इस अवधि में एक बड़ी भूमिका का निर्वाह करना पड़ेगा और इसके महत्व को हृदयंगम करना पड़ेगा।
आज हम अपने देश के जीवन में एक बड़ी शक्ति के रुप में उभर चुके हैं। देश में दूसरी पार्टी के रुप में कम्युनिस्ट पार्टी का उद्भव और केरल सरकार की स्थापना भारतीय राजनीति में स्वाधीनता-प्राप्ति के बाद की संभवतः सबसे बड़ी घटना है। इसे हमारे दुश्मन भी स्वीकार करते हैं। अब प्रश्न है कि हम किस प्रकार आगे बढ़ेंगे? किस प्रकार हम अपना प्रभाव विस्तृत और सुदृढ़ करेंगे? हम किस प्रकार कारगर ढंग से राजनीतिक परिस्थितियों में अपनी भूमिका का निर्वाह करेंगे और घटनाओं को सांचे में ढालेंगे? मैं महसूस करता हूं कि मैंने जो कुछ भी कहा है, वह सार रुप में सही कार्यनीति की ओर संकेत करता है। निस्संदेह इसे और भी सविस्तार प्रतिपादित करना होगा।
इस संदर्भ में मैं एक महत्वपूर्ण बात का उल्लेख करना चाहता हूं। कुछ महीनों के बाद तीसरा आम चुनाव संपन्न होगा। हम अपनी पार्टी की संपूर्ण नीति के आधार पर एक राजनीतिक संग्राम के रुप में चुनावों में भाग लेंगे। हम दक्षिण प्रतिक्रियावादी तत्वों द्वारा प्रचारित नारों से स्पष्ट रुप से अपने को अलग करते हुए वर्तमान सरकार की जन-विरोधी नीतियों का पर्दाफाश करेंगे, अपनी वैकल्पिक नीतियों को लोगों के सामने रखेंगे और प्रतिक्रियावादी तत्वों तथा वर्तमान सरकार दोनों के ही विरोध में एवं प्रत्येक सवाल पर अपनी नीतियों के पक्ष में चुनाव को एक विशाल राजनीतिक अभियान के रुप में परिणत करेंगे। हम जनता के सम्मुख राष्ट्रीय जनवादी दायित्वों को पूरा करने के संदर्भ में राष्ट्रीय जनवादी मोर्चे के निर्माण के लिए संघर्ष करने वाली पार्टी के रुप में और सरकार की जन-विरोधी और जनवादी-विरोधी नीतियों को पराजित करने के लिए तथा जनता को इन नीतियों के हमलों से और निहित स्वार्थी तत्वों के हमलों से भी बचाने के लिए, उस संघर्ष के एक अंग के रुप में, अपने इतिहास के साथ उपस्थित होेंगे।
हमारे साथी पूछ सकते हैं: सरकार के साथ हमारी पार्टी का कैसा संबंध रहेगा? मैं ‘‘विरोध पक्ष की पार्टी’’ की उक्ति से सहमत नहीं हूं, जिसका प्रयोग सामान्य रुप से हमारी पार्टी की व्याख्या के सिलसिले मे किया जाता है; क्योंकि वस्तुतः यह एक संसदीय अवधारणा है। इसमें संदेह नहीं है कि संसद और विधान-मंडलों के भीतर हम अपनी केंद्रीय समिति के जून, 1955 के प्रस्ताव के अनुसार जनवादी विरोध पक्ष की भूमिका का निर्वाह करेंगे।
हम एक सकारात्मक दृष्टिकोण अपनायेंगे। हम अपनी आजादी और अपनी अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने वाली, किसानों को जमीन देने वाली, आम जनता की अवस्था को उन्नत करने वाली और अपने आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन में जनवाद को मजबूत करने वाली अपनी वैकल्पिक नीतियों के आधार पर राजनीतिक संघर्ष करेंगे। हमारे चुनाव-घोषणा पत्र में इन नीतियों को और भी ठोस रुप में प्रस्तुत करना है।
वैकल्पिक सरकार के बारे में क्या होगा? मैं समझता हूं कि यदि कुछ राज्यों में यह संभावना हो अथवा यदि जनता सोचती हो कि ऐसी संभावना है, तो हमें ऐसी सरकार की स्थापना का नारा देना चाहिए, जो इन नीतियों को लागू करने में सक्षम हो।
हम संपूर्ण जन-आंदोलन को किस दिशा की ओर ले जाना चाहते हैं? मेरे मतानुसार, हमारे देश के लिए राष्ट्रीय जनवाद का नारा एक सही नारा है।
लेकिन यह सवाल कार्यक्रम से सीधे जुड़ा हुआ है, इसलिए मैं समझता हूं कि पार्टी में काफी विचार-विमर्श के बाद ही इस पर कोई निर्णय किया जाना चाहिए।
मैंने आपका बहुत समय ले लिया है। लेकिन मैं आपकी इजाजत से और भी दो-चार बातें कहना चाहता हूं। जैसाकि दिमित्रोव ने कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल की 7वीं कांग्रेस में कहा था, संयुक्त मोर्चे की स्थापना के संघर्ष में कम्युनिस्ट पार्टी को बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करना पड़ेगा। केवल कम्युनिस्ट पार्टी ही मूल रुप से संयुक्त मोर्चें के प्रवर्तक, आयोजक और प्रेरक शक्ति की भूमिका का निर्वाह कर सकती है। इसलिए अनिवार्य रुप से यदि हम अपनी पार्टी को सुदृढ़ करने की आवश्यकता पर विचार नहीं करेंगे, तो राजनीतिक परिस्थिति पर हमारी कोई भी बहस पूरी नहीं होगी।
पार्टी जिन दुर्बलताओं से ग्रस्त है और इस भूमिका का निर्वाह करने के लिए जिनके विरुद्ध हमें संघर्ष करना है, के बारे में मुझे जो कुछ भी कहना है, उसे मैं पार्टी-संगठन पर बहस के दौरान कहूंगा। लेकिन मैं इसी वक्त यह कह देना चाहता हूं कि गंभीर रुप से वर्तमान सैद्धांतिक दुर्बलताओं को दूर किये बिना, माक्र्सवादी-लेनिनवादी आधार पर, सही कार्यनीति के आधार पर और कठोर अनुशासन पालन के आधार पर अपनी पार्टी को एकताबद्ध किये बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते हैं तथा अपने राष्ट्रीय राजनीतिक दायित्वों के प्रति सजग रहकर हम इस महाधिवेशन पहले से भी अधिक एकताबद्ध होकर प्रकट होंगे, ताकि हम कारगर ढंग से अपने देश को जनता के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह कर सकें।

-कामरेड अजय घोष
(कामरेड अजय घोष की जन्मशती पर हम उनके कुछ प्रसिद्ध भाषणों एवं लेखों की श्रंखला प्रस्तुत कर रहे है जो हमारे युवा पाठकों के लिए बहुत उपयोगी है।)

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