(फोटो कैप्शन: तीन साल पहले जब हमने इंग्लैण्ड की एक शोध छात्रा क्लेर हेस को बीड़ी उद्योग पर अध्ययन करने का काम सौंपा था तो उसने राजेन्द्र केसरी का इस विषय पर लंबा इंटरव्यू लिया था। ये फोटो उसी वक्त उसने इन्दौर में शहीद भवन में लिया था जो उसने कामरेड राजू के प्रति अपनी श्रृद्धांजलि के साथ भेजा है।)
लोहे की हरी अल्मारी के भीतर एक पुराना सा टाइपराइटर इंतजार कर रहा है कि कोई उसे बाहर निकालेगा। कोई दरख्वास्त, कोई नोटिस, कोई सर्कुलर, कोई परचा - कुछ तो होगा जिसे टाइप होना होगा। टाइपराइटर के साथ ही वे सारी दरख्वास्तें, नोटिस, सर्कुलर और परचे भी इन्तजार कर रहे हैं कि कोई उन्हें टाइप करेगा, आॅफिस पहुँचाएगा, कोर्ट ले जाएगा, नोटिस बोर्ड पर लगाएगा। 27 मई को गुजरे आज महीना होने को आया, इंतजार खत्म ही नहीं होता।
एक बूढ़ी अम्मा है। साँवेर के नजदीक एक गाँव में रहती है। मांगल्या के पास की एक गुटखा फैक्टरी में काम करती थी। वहाँ राजू ने यूनियन बनायी हुई है। वहीं से वो राजू केसरी काॅमरेड को जानती है। बस में सत्रह रुपये खर्च करके इन्दौर में पार्टी के आॅफिस शहीद भवन तक आती है। वो शहीद भवन आकर राजू केसरी से मिलना चाहती है कि वो उसके देवर के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट लिखवाये। उसे पुलिस के पास जाकर रिपोर्ट लिखवानी है कि उसके देवर ने उस पर बहुत बड़ा पत्थर उठाकर फेंका। वो शहीद भवन में आकर राजू का कई बार तो घंटों इंतजार करती है। काॅमरेड राजू आते हैं, अम्मा से हँसी-मजाक करते हैं, अपना काम करते हैं लेकिन अम्मा के साथ रिपोर्ट लिखवाने नहीं जाते। बूढ़ी अम्मा खूब गुस्सा हो जाती है। काॅमरेड राजू हँसकर उसका गुस्सा और कोसना सुनते रहते हैं। अम्मा अपने सत्रह रुपये बेकार जाने का हवाला देती है। काॅमरेड राजू हँसते-हँसते उससे कहते हैं कि अम्मा मेरे घर चलकर सो जाना। मैं खाना भी खिला दूँगा और 17 रुपये भी दे दूँगा।
मैं उस दिन वहीं शहीद भवन में ही थी। सब काॅमरेड राजू और बूढ़ी अम्मा की बातचीत सुनकर हँस रहे थे। मैंने राजू केसरी से कहा, ’’काॅमरेड, क्यों बूढ़ी अम्मा को सताते हो? उसकी रिपोर्ट क्यों नहीं लिखवा देते?’’ राजू बोला, ’’काॅमरेड आप जानती नहीं हो। मैं खुद अम्मा के गाँव उसके घर जाकर आया, वो पत्थर भी देखकर आया जो ये बोलती है कि इसके देवर ने इस पर फेंका था, लेकिन इसे लगा नहीं। अब मैं पुलिस को जाके क्या बोलूँ कि इसके देवर ने इसको पत्थर मारा जो इसको लगा नहीं इसलिए उसको गिरफ्तार कर लो? फिर जब इसको इसका देवर कल सचमुच में पत्थर मारेगा तो फिर अम्मा को कौन बचाएगा?’’ अम्मा बड़बड़ाती रही, राजू टाइप करते-करते मुस्कुराते रहे, मैं अम्मा को समझाने की कोशिश करके निकल आयी।
जाॅब कार्ड बनवाना है, राशन कार्ड बनवाना है, लेबर कमिश्नर के पास जाना है, पेंशन दिलवानी है, ऐसे ढेर छोटे-बड़े कामों को काॅमरेड राजू केसरी को करते देखने की यादें हैं। यादें और भी हैं। विनीत ने बताया कि राजू केसरी की पहली याद वो है जब काॅमरेड रोशनी दाजी हमें छोड़ चली गयी थी। रोशनी की अंतिम यात्रा निकलने के पहले राजू केसरी सैकड़ों मजदूरनियों का जुलूस लेकर नारे लगाते हुए पहुँचा था। बेशक राजू सहित सभी रो रहे थे लेकिन सबकी आवाज बुलंद थी - ’काॅमरेड रोशनी दाजी को लाल सलाम’।
बीड़ी मजदूरिनों को संगठित करने, रेलवे हम्मालों की यूनियन बनाने, गुटखा फैक्टरियों में काम करने वाली औरतों का संगठन खड़ा करने जैसे अनेक कामों से राजू केसरी पार्टी का काम आगे बढ़ा रहे थे। बीड़ी के बारे में तो वे बताते भी थे कि इन्दौर की बीड़ी बनाने वाली बाइयाँ दूसरी जगहों की बीड़ी मजदूरों से कितनी अच्छी स्थिति में हैं। इन्दौर में सभी बीड़ी कारखानों के मजदूरों में राजू का काम फैला था और 3 हजार से ज्यादा बीड़ी मजदूर एटक के सदस्य बने थे। हाल में मुंबई में हुए बीड़ी-सिगार मजदूरों के राष्ट्रीय सम्मेलन में राजू को बीड़ी-सिगार फेडरेशन के मध्य प्रदेश के संयोजक की महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी गयी थी।
लड़ने में काॅमरेड राजू केसरी नंबर एक थे। मुझे खुद बताते थे कि कामरेड, आज फलाने की धुलाई कर दी। आज किसी को धक्का मारकर बाहर कर दिया। कामरेड बसन्त मुझे एक दिन बोले, ’’ये राजू हर चीज में झगड़ा डालता है। अड़ जाता है तो किसी की सुनता ही नहीं।’’ उनके साथ लगभग हर वक्त रहने वाले कामरेड सत्यनारायण बोले कि हम दोनों हर रोज लड़ते थे। आज शहीद भवन में सब कामरेड्स आँखें नम किये इंतजार करते हैं कि राजू आये और लड़ाई करे।
जब से इन्दौर में महिला फेडरेशन का काम शुरू किया, तभी से कामरेड मोहन निमजे और काॅमरेड राजू केसरी अपनी यूनियन की महिलाओं को महिला फेडरेशन की गतिविधियों में हमेशा भेजते रहे। अभी 8 मार्च 2010 को महिला दिवस के लिए मैंने काॅमरेड राजू से बात की तो वो प्रोमेड लैबोरेटरीज की कर्मचारी महिलाओं से बात करने के लिए हमारे साथ गये, गेट मीटिंग ली और बोले, ’’मैं मैनेजर से बात करूँगा कि 8 मार्च के दिन वो तुम लोगों की जल्दी छुट्टी कर दे ताकि तुम लोग महिला दिवस के जुलूस में शामिल हो जाओ, लेकिन अगर वो न माना तो तुम लोग आधे दिन की तनख्वाह कटवा कर आ जाना। छुट्टी मिले या नहीं लेकिन आना जरूर।’’ सारी महिलाएँ जोर से सिर हिलाकर बोलीं कि बिल्कुल आएँगे और 8 मार्च को आधे दिन की छुट्टी लेकर महिलाएँ आयीं और जुलूस में शामिल हुईं।
27 मई को जब राजू हमें छोड़कर चले गये तो बीड़ी मजदूरनियाँ, रेलवे हम्माल, प्रोमेड लैबोरेटरीज और तमाम कारखानों के मजदूर फिर छुट्टी लेकर आये अपने लड़ाकू काॅमरेड को आखिरी सलाम कहने। सबकी आँखों में आँसू थे लेकिन उन्होंने राजू से सीख लिया था कि आँखों में आँसू भले हों लेकिन किसी भी काॅमरेड को लाल सलाम कहते वक्त आवाज नहीं काँपनी चाहिए।
मिल मजदूर के लड़के थे राजू केसरी। एक दिन अपने बारे में बता रहे थे कि जब सिर्फ 14 बरस की उम्र थी तब उनके पिता दुर्घटना की वजह से काम करने लायक नहीं रह गये थे। सन 1975 में राजू ने पार्टी आॅफिस में पोस्टर चिपकाने की नौकरी 40 रुपये महीने पर की थी। काॅमरेड पेरीन दाजी कहती हैं कि ’’राजू पार्टी आॅफिस में झाड़ू लगाता था। उसका रंग काला था, तो शुरू में तो हम सब उसे कालू ही कहते थे। राजू तो वो बाद में बना।’’ झाड़ू लगाते-लगाते और पोस्टर चिपकाते-चिपकाते काॅमरेड राजू ने दसवीं पास की और टाइपिंग भी सीख ली। पार्टी के तमाम नोटिस और तमाम कागज टाइप करने की जिम्मेदारी तब से राजू ने ही संभाली हुई थी।
एक दिन मैंने उनसे पूछा कि जब आप पार्टी से जुड़े तो कम्युनिज्म से क्या समझते थे? तो बोले कि ’’काॅमरेड, 14 बरस की उम्र में मैं कुछ नहीं समझता था। सिर्फ इतना जानता था कि लाल झण्डा पकड़ना सम्मान की बात है। उस वक्त लाल झण्डे की लोग बहुत इज्जत करते थे। उन दिनों इन्दौर की कपड़ा मिलों में 30-35 हजार मजदूर काम करते थे और मजदूरों की आवाज केवल मिल क्षेत्र में ही नहीं बल्कि पूरे शहर में सुनी जाती थी।’’
सन् 1975 में ही मेरी माँ कामरेड इन्दु मेहता ने भी पार्टी की सदस्यता ली थी। उन्हीं दिनों मुझे एक चिट्ठी में मेरी माँ ने लिखा था कि ’’तुम लोगों के लिए एक बेहतर दुनिया छोड़कर जाना चाहती हूँ। इस दुनिया को बेहतर बनाने के लिए समाजवाद कायम करने का संघर्ष जरूरी है।’’ उस वक्त मेरी माँ की उम्र 53 वर्ष थी। वो काॅलेज में राजनीतिशास्त्र पढ़ाती थीं, उन्होंने समाजवाद और माक्र्सवाद के बारे में कई किताबें पढ़ी थीं। लेकिन राजू केसरी जैसे काॅमरेड्स उतनी किताबें नहीं पढ़ते। माक्र्सवाद के बारे में उनकी समझ पार्टी स्कूल से बनती है। वो मानवता की जरूरत और मानवता के लिए संघर्ष के माक्र्सवादी पाठ वहीं सीखते हैं। राजू केसरी मुझे कहा करते थे कि हमने तो माक्र्सवाद काॅमरेड इन्दु मेहता से ही सीखा।
ट्रेड यूनियन की राजनीति भी राजू केसरी ने काम करते-करते और अपने वरिष्ठ साथियों के काम करने के तरीकों को देखकर सीखी। पिछले 35 बरसों में पार्टी और कम्युनिस्ट विचारधारा से राजू ने गहरा संबंध बना लिया था। सही-गलत के बारे में और नये तरीकों की जरूरत के बारे में भी वो सोचते थे और बात करते थे। एक दिन शहीद भवन में बोले, ’’काॅमरेड, मैं ट्रेड यूनियन के काम से संतुष्ट नहीं हूँ। मजदूर हमारे पास आते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि उनके हकों की लड़ाई लाल झण्डे वाली यूनियन ही लड़ सकती है। हम उनका संगठन बनाते हैं। उनके हक की लड़ाई लड़ते हैं। मैनेजमेंट को मजदूरों के हक में झुकाते हैं, लेकिन जब उनकी माँग पूरी हो जाती है तो उन्हें यूनियन की जरूरत नहीं महसूस होती। वो सब छोड़-छाड़कर चले जाते हैं। बताइए काॅमरेड, अगर हम मजदूरों को उनके स्वार्थों से ऊपर उठाकर उनकी राजनीतिक समझ नहीं बना पाये तो ट्रेड यूनियन का क्या काम किया?’’ इन जायज सवालों का सामना करते हुए भी राजू को इस बात में कभी संदेह नहीं रहा कि रास्ते तभी निकलते हैं जब संघर्ष और कोशिशें जारी रखी जाती हैं। इसीलिए उसने लगातार मजदूरों, कर्मचारियों के नये-नये संगठन बनाना जारी रखा। हाल में आपूर्ति निगम के हम्मालों का संगठन और प्राइवेट स्कूलों के शिक्षकों व कर्मचारियों का संगठन बनाने में राजू ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। अपनी तरह से वो कोशिश भी करते थे कि यूनियन में शामिल मजदूर भत्ते-तनख्वाहों तक ही न रुकें बल्कि उनका सही राजनीतिक विचार भी बने। एक बार 15 अगस्त को हम्माल यूनियन के मजदूरों के बीच झण्डा फहराते हुए राजू केसरी मजदूरों से बोले कि ’’भगतसिंह ने हिन्दुस्तान की ऐसी आजादी के लिए कुर्बानी तो नहीं दी थी जहाँ हमारे बच्चों को दूध न मिले, काॅपी-किताब न मिले, उल्टे हम धर्म के नाम पर लड़ें और सब तरह की बेईमानियाँ करें। ये तो भगतसिंह और आजादी के उन सब दीवानों के साथ नाइन्साफी है।’’
असंगठित क्षेत्र में यूनियन को फैलाने का जो काम काॅमरेड राजू केसरी और उनके साथी काॅमरेडों ने किया, उसका महत्त्व इसलिए और भी बढ़ जाता है कि वो ऐसे वक्त में किया गया काम है जब असंगठित तो दूर, संगठित क्षेत्रों की ट्रेड यूनियनों में भी हताशा का माहौल है।
उदारीकरण के मजदूर विरोधी माहौल में ट्रेड यूनियन की राजनीति कितनी कठिन है, राजू जैसे काॅमरेड्स इस किताब को अपने अनुभव की रोशनी में रोज पढ़ते हैं। मैंने उनसे पूछा था कि, ’’काॅमरेड, फिर आप पार्टी के साथ अभी तक क्यों जुड़े हैं?’’ वो बोले, ’’काॅमरेड मैंने आशा नहीं छोड़ी है कि एक वैकल्पिक समाज, शोषणरहित समाज व्यवस्था एक दिन जरूर आएगी। लोग समाजवाद के महत्त्व को एक दिन जरूर समझेंगे। हमें एक अच्छा नेतृत्व चाहिए बस, एक दिन हम समाजवाद के सपने को जरूर सच कर लेंगे।’’
रात को दस-साढ़े दस बजे तक राजू पार्टी का काम करते रहे और फिर आधी रात अचानक अपने अधूरे काम, अधूरी लड़ाइयाँ और अधूरे सपने छोड़कर वो चले गए। मैं उनके घर गयी तो पूरा मोहल्ला भीगी आँखों के साथ बैठा था। उनकी 17 बरस की लड़की शानो मुझसे बात करने लगी अपने पापा के बारे में। मुझसे बोली, ’’आपकी पार्टी कितनी अच्छी है। मेरा भाई भी पार्टी ज्वाइन कर सकता है क्या? अभी वो सिर्फ 13 साल का है। पापा उसे इन्जीनीयर बनाना चाहते थे।’’
उसकी बात सुनकर मुझे लगा कि इतिहास अपने आपको इस शक्ल में दोहराये, ऐसा नहीं होना चाहिए। ऐसा नहीं होना चाहिए कि जैसे कम उम्र में राजू को पार्टी ज्वाइन करने की जरूरत पड़ी, वैसे ही उसके बेटे को पड़े। हम सब जो बचे हैं, पार्टी में राजू केसरी की खाली जगहों को देर-सबेर भर ही लेंगे। लेकिन राजू के बच्चों को इन्जीनीयर, डाॅक्टर, कलाकार या जो भी बनना हो, वो बनने का उन्हें अवसर मिलना चाहिए। हम सभी को मिलकर राजू के बच्चों की अच्छी पढ़ाई की पूरी व्यवस्था करनी चाहिए। बच्चे जब बड़े हों तो सोच-समझकर पार्टी से जुड़ें, वैसी दुनिया बनाने की कोशिशों में अपना हिस्सा बँटाएँ जिसका सपना उनके पापा देखते थे और जिन्दगी की आखिरी साँस तक उसको सच करने की खातिर वे हर छोटा-बड़ा काम करते रहे।
कामरेड राजू केसरी को लाल सलाम।
जया मेहता,
संदर्भ केन्द्र, 26, महावीर नगर, इन्दौर -452018
Sunday, 27 June 2010
लो क सं घ र्ष !: छोटी-बड़ी बातों का कामरेड - कामरेड राजेन्द्र केसरी
Posted by Randhir Singh Suman at 5:18 pm 0 comments
Tuesday, 22 June 2010
मेक्सिको की खाड़ी और भोपाल, दो मानदण्ड - अनुचित या उचित
- प्रदीप तिवारी
Posted by Randhir Singh Suman at 1:28 pm 0 comments
आज नदी बिलकुल उदास थी
सोई थी अपने पानी में,
उसके दर्पण पर-
बादल का वस्त्र पडा था।
मैंने उसको नहीं जगाया,
दबे पांव घर वापस आया।
- केदार नाथ अग्रवाल
Posted by Randhir Singh Suman at 5:58 am 0 comments
Friday, 4 June 2010
नायक के गीत
आह, तुम नहीं चाहतीं--
डरी हुई हो तुम
ग़रीबी से
घिसे जूतों में तुम नहीं चाहतीं बाज़ार जाना
नहीं चाहतीं उसी पुरानी पोशाक में वापस लौटना
मेरे प्यार, हमें पसन्द नहीं है,
जिस हाल में धनकुबेर हमें देखना चाहते हैं,
तंगहाली ।
हम इसे उखाड़ फेंकेंगे दुष्ट दाँत की तरह
जो अब तक इंसान के दिल को कुतरता आया है
लेकिन मैं तुम्हें
इससे भयभीत नहीं देखना चाहता ।
अगर मेरी ग़लती से
यह तुम्हारे घर में दाखिल होती है
अगर ग़रीबी
तुम्हारे सुनहरे जूते परे खींच ले जाती है,
उसे परे न खींचने दो अपनी हँसी
जो मेरी ज़िन्दगी की रोटी है ।
अगर तुम भाड़ा नहीं चुका सकतीं
काम की तलाश में निकल पड़ो
गरबीले डग भरती,
और याद रखो, मेरे प्यार, कि
मैं तुम्हारी निगरानी पर हूँ
और इकट्ठे हम
सबसे बड़ी दौलत हैं
धरती पर जो शायद ही कभी
इकट्ठा की जा पाई हो ।
- पाब्लो नेरुदा
Posted by Randhir Singh Suman at 9:13 pm 0 comments