Wednesday 16 October, 2013

किसानो की यह जंग जारी रहेगी



बाराबंकी।  किसानो की 163 ग्राम पंचायतों की जमीन छीन कर उत्तर प्रदेश सरकार टाउनशिप बसाना चाहती है। बड़े-बड़े माल, स्विमिंग पूल, फाइव स्टार होटल बनाने का कार्यक्रम है। किसानो की आम की बाग़, लहलहाते केलों के झुण्ड, धान की फसलें, गेंहू के खेत, मेंथा की हरियाली की जगह किसानो की रोजी-रोटी छीन कर उनको भूखा मार देने की उक्त योजना के विरोध में ग्राम मुबारकपुर में आज से क्रमिक भूख हड़ताल प्रारंभ हो गई है।               
यह जानकारी देते हुए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य परिषद् सदस्य डॉ उमेश चन्द्र वर्मा ने बताया कि आज क्रमिक भूख हड़ताल पर कांशीराम के नेतृत्व में महेश प्रसाद, राम विलास, मायाराम व भिखारी लाल 24 घंटे के लिए बैठे हैं। यह क्रमिक भूख हड़ताल 20 अक्टूबर तक चलेगी। 
          डॉ उमेश वर्मा ने आगे बताया कि 17 अक्टूबर से किसान सभा के नेतृत्व में विशुनपुर, बरौली जाटा, मसौली, मलूकपुर, जीयनपुर, मोहम्मदपुर बंकी, कोलागांव,  भगवंतनगर, अजगना, चंदनपुरवा, महुवामऊ, अलीपुर समेत अन्य कई गाँवों में क्रमिक भूख हड़ताल किसान प्रारभ करेंगे। किसानो की यह जंग भूमि अधिग्रहण के खिलाफ अंतिम निर्णय होने तक जारी रहेगी। किसान एक भी इंच जमीन अधिग्रहण नहीं करने देगा। 
 नीरज वर्मा 
मंत्री 
अखिल भारतीय किसान सभा बाराबंकी

Tuesday 12 March, 2013

जिम्मी कार्टर आपका है पीर मौलाना

बहुत मैंने सुनी है आपकी तक़रीर मौलाना
मगर बदली नहीं अब तक मेरी तक़दीर मौलाना

खुदारा सब्र की तलकीन अपने पास ही रखें

ये लगती है मेरे सीने पे बन कर तीर मौलाना

नहीं मैं बोल सकता झूठ इस दर्ज़ा ढिठाई से
यही है ज़ुर्म मेरा और यही तक़सीर मौलाना

हक़ीक़त क्या है ये तो आप जानें और खुदा जाने

सुना है जिम्मी कार्टर आपका है पीर मौलाना

ज़मीनें हो वडेरों की, मशीनें हों लुटेरों की

ख़ुदा ने लिख के दी है आपको तहरीर मौलाना !!!


बड़े बने थे जालिब साहेब ....पिटे सड़क के बीच ....

गाली खाई , लाठी खाई , गिरे सड़क के बीच .......


-हबीब जालिब

Monday 18 February, 2013

मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको




आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको


जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी कि कुएँ में डूब कर

है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी

चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा


कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई


कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है


थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को


डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से


आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में


होनी से बेखबर कृष्ना बेख़बर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी


चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई


दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया


और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज़ में
होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में


जुड़ गई थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था


बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है


कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएँगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं


कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें


बोला कृष्ना से बहन सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से


पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में


दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर


क्या कहें सरपंच भाई क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया


कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो


देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारो के यहाँ
पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहाँ


जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है मगरूर है


भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाँहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ


आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई


वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही


जानते हैं आप मंगल एक ही मक़्क़ार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है


कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गाँव की गलियों में क्या इज़्ज़त रहे्गी आपकी


बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया था


क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हाँ मगर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था


रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर था
भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था

सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में


घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
"जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने"


निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर


गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर "माल वो चोरी का तूने क्या किया"


"कैसी चोरी माल कैसा" उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस होश फिर जाता रहा


होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर
ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -


"मेरा मुँह क्या देखते हो! इसके मुँह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो"


और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी


दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था


घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ जोर से रोने लगे


"कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं"


यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से


फिर दहाड़े "इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा


इक सिपाही ने कहा "साइकिल किधर को मोड़ दें
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें"


बोला थानेदार "मुर्गे की तरह मत बांग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो


ये समझते हैं कि ठाकुर से उलझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है जेल है"


पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
"कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल"


उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को


धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को


मैं निमंत्रण दे रहा हूँ- आएँ मेरे गाँव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में


गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही


हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए!

 - अदम गोंडवी

Sunday 6 January, 2013

रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ


उर्दू की आधुनिक शायरी में अहमद फ़राज़ ने अपनी सादा जबावी से अपनी इस बात को पुख़्ता किया कि 'अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं, फ़राज़ अब ज़रा लहज़ा बदल के देखते हैं'। उनकी ग़ज़ल बेहद मक़बूल हुई, जिसे ग़ुलाम अली और हरिहरन जैसे कई नामचीन गायकों ने अपनी आवाज़ भी दी है।
जन्म : 12 जनवरी 1931
निधन : 25 अगस्त 2008

रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ।
कौन आता है मगर आस लगाए रखना
उम्र भर दर्द की शमाओं को जलाए रखना। (शमा : लौ)
काफ़िर के दिल से आया हूं मैं ये देखकर
ख़ुदा मौजूद है वहां, पर उसे पता नहीं।
यूं ही मौसम की अदा देख के याद आया है
किस क़दर जल्द बदल जाते हैं इंसान जानां।
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें।
आंख से दूर न हो, दिल से उतर जाएगा
वक़्त का क्या है, गुज़रता है गुज़र जाएगा।
दोस्त बनकर भी नहीं साथ निभानेवाला
वही अंदाज़ है ज़ालिम का ज़मानेवाला।
शोला था जल बुझा हूं हवाएं मुझे न दो
मैं कब का जा चुका हूं सदाएं मुझे न दो। (सदा : आवाज़)
कितना आसां था तेरे हिज्र में मरना जाना
फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते-जाते। (हिज्र : जुदाई)
करूं न याद उसे मगर किस तरह भुलाऊं उसे
ग़ज़ल बहाना करूं और गुनगुनाऊं उसे।
ज़िन्दगी से यही गिला है मुझे
तू बहुत देर से मिला है मुझे।
ऐसे चुप हैं कि ये मंज़िल भी कड़ी हो जाए
तेरा मिलना भी जुदाई की घड़ी हो जाए।
बदन में आग-सी चेहरा गुलाब जैसा है
कि ज़हर-ए-ग़म का नशा भी शराब जैसा है।
'फ़राज़' अब कोई सौदा कोई जुनूं भी नहीं
मगर क़रार से दिन कट रहे हों, यूं भी नहीं।
हर तमाशाई फक़त साहिल से मंज़र देखता
कौन दरिया को उलटता कौन गौहर देखता। (फक़त : सिर्फ, गौहर : मोती)
इससे पहले कि बेवफ़ा हो जाएं
क्यों नहीं दोस्त हम जुदा हो जाएं।
ये क्या कि सब से बयां दिल की हालतें करनी
'फ़राज़' तुझको न आईं मुहब्बतें करनी।
तू पास भी हो तो दिल बेक़रार अपना है
कि हमको तेरा नहीं, इंतज़ार अपना है।
सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
यह बात है तो चलो बात करके देखते हैं।
साभार :नव भारत   टाइम्स 

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