Monday 13 April, 2020

महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी व कम्युनिस्ट नेता कामरेड पी सी जोशी




कामरेड पूरन चन्द जोशी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव जिनका
जन्म 14 अप्रैल, 1907
को अल्मोड़ा में हुआ था और मृत्यु 9 नवम्बर, 1980 को दिल्ली में हुई थी। देश के प्रसिद्धि स्वतंत्रता सेनानी भी थे।  सन 1929 में 'मेरठ षड्यंत्र केस' में सज़ा भी हुई थी।
विद्यालय इलाहाबाद विश्वविद्यालय से
क़ानून की डिग्री ली थी।
कामरेड पूरनचंद जोशी सन 1936 में कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव बने थे तथा सन 1951 में इलाहाबाद से 'इण्डिया टुडे' पत्रिका निकाली थी।
कामरेड जोशी स्वाधीनता सेनानी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्य थे। वह कम्युनिस्टों के बीच पी.सी. जोशी के नाम से प्रसिद्ध थे।  वह कुछ समय तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय मे इतिहास के अध्यापक भी रहे थे।
विद्यार्थी जीवन में ही पी. सी. जोशी कम्युनिस्ट आंदोलन के संपर्क में आ गए थे। गोपनीय गतिविधियों में उनके संलग्न रहने की सूचना मिलने पर गिरफ्तार कर लिए गये थे। मेरठ षड़्यंत्र केस 1929 में कामरेड पूरनचंद्र जोशी पर भी मुकदमा चला और 1933 तक वे जेल में बंद रहे थे। बाहर आने पर जब कम्युनिस्ट पार्टी का भारत में केंद्रीय संगठन बना तो पी. सी. जोशी उसके महासचिव बनाए गए थे। 1935 की कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के निश्चयों की पृष्ठभूमि में, देश के स्वतंत्रता संग्राम के लिए प्रयत्नाशील संगठन के सहारे अपनी संगठनात्मक शक्ति में वृद्धि करने के उद्देश्य से भारत के कम्युनिस्ट भी कांग्रेस संगठन में सम्मिलित हो गए थे। साथ ही पूरनचंद्र जोशी ने श्रमिकों के किसानों के और विद्यार्थियों के भी अलग संगठन बनाए थे। कामरेड पी.सी.जोशी का इन सबमें अग्रणी योगदान था।
-रणधीर सिंह सुमन 

जलियांवाला :मुखविरों के वंशज आज भी हिन्दू -मुसलमानों को लड़ा रहे हैं


अंग्रेजों के मुखविरों के वंशज आज भी हिन्दू -मुसलमानों को लड़ा कर साम्राज्यवादियों की मदद कर रहे है .देश की आजादी के लिए हिन्दू -मुसलमानों सहित लाखों तत्कालीन नागरिकों ने प्राण दे दिए थे .अंग्रेजों के मुखविरों के वंशज आज भी समझते है कि आजादी ऐसे ही मिल गई थी .
सभी धर्मों के मतालाम्बियों की एकता इस देश की प्राणवायु है .साम्प्रदायिक एकता के कारण ही जलियांवाला बाग कांड हुआ था . आज भी मुखविरों की जमात के वंशज हिन्दू- मुस्लिम -सिख- ईसाई को लड़ा कर देश की एकता को कमजोर कर रहे है . अंग्रेज भी इसी एकता से भयभीत थे .

13 अप्रैल, 1919 सिखों का बैसाखी पर्व था।पुलिस अत्याचारों व रोलेट एक्ट के विरोध में अमृतसर स्वर्ण मंदिर के पास जलियांवाला बाग मैदान में, हजारों सिख, मुसलमान और हिंदू उस समय एकत्रित हुए। राम सरन दत्त, गोकुल चंद नारंग, सैफ़ुद्दीन किचलू, अली ख़ान सहित अंग्रेजी शासन के खिलाफ सभी एकजुट थे अंग्रेज 1857 के विद्रोह, 1870 के दशक के कूका आंदोलन और साथ ही 1914-15 के ग़दर आंदोलन देख चुके थे . हिन्दू =मुस्लिम एकता के कारण सरकार का जबरदस्त मजबूत विरोध था .हड़तालें हो रही थी .जालंधर के ब्रिगेडियर जनरल रेगिनाल्ड डायर को आदेश दिया गया कि वो इन घटनाओं को संभालने के लिए फ़ौरन अमृतसर पहुंचें. नागरिक प्रशासन ढह चुका था और ऐसे में संभवत: डायर को परिस्थितियों को नियंत्रण में करने के लिए बुलाया गया था.

ब्रिगेडियर जनरल रेजिनॉल्ड डायर
शाम 4 बजे के बाद, जनरल रेजिनाल्ड डायर, फिर अमृतसर के सैन्य कमांडर ने 90 सदस्यों की एक छोटी टुकड़ी के साथ स्टेडियम को घेर लिया। बल के साथ दो बख्तरबंद वाहनों को डायर के पास लाया गया। लेकिन स्टेडियम की सड़क इतनी संकरी थी कि वाहन अंदर नहीं जा सकते थे। जलियांवाला बाग स्टेडियम दीवारों से घिरा हुआ है, स्टेडियम के द्वार बहुत संकीर्ण हैं और उनमें से कई स्थायी रूप से बंद हैं। यद्यपि मुख्य द्वार अपेक्षाकृत बड़ा था, लेकिन प्रवेश द्वार को डायर सैनिकों और वाहनों द्वारा बंद कर दिया गया था।
ब्रिगेडियर जनरल रेजिनॉल्ड डायर  ने सभा छोड़ने की चेतावनी के बिना  गोलीबारी का आदेश दिया गया था। डायर ने बाद में कहा कि यह कदम भारतीयों की सभा  को समाप्त  करने के बजाय सबक सिखाने के लिए थी । गोली  समाप्त होने तक सैनिकों को गोली चलाने का आदेश दिया गया था। सैनिकों ने 1,650 बार भीड़ पर गोलीबारी की। यह आंकड़ा बाद में उन खाली कारतूसों  से पता चला था जो घटना के बाद से खाली हो गए थे। त्रासदी से बचने के लिए, लोग मैदान में एक छोटे से कुँए पर चढ़ गए। इस छोटे से कुएं से केवल 120 शव बरामद किए गए थे।
गोलीबारी में हताहतों की संख्या को लेकर अभी भी विवाद हैं। ब्रिटिश सरकार ने कहा कि गोलीबारी में 379 लोग मारे गए। इसके बारे में कांग्रेस के आंकड़ों के अनुसार, यह लगभग 1,800 था।
घटना के महीनों बाद, सरकार ने मरने वालों की संख्या का अनुमान लगाया। अधिकारियों ने जनता से आग्रह किया कि अगर उनके परिवारोंके सदस्य  मौत  या घायल  जलियांवाला बाग में गोलीबारी में हुई है तो  वे अपने नाम सरकार को प्रस्तुत करें। यह कोई प्रभावी उपाय नहीं था। बहुत से लोग स्वयंसेवक के लिए तैयार नहीं थे क्योंकि उन्हें लगता था  कि यदि उनके नाम सामने आते हैं तो अतिरिक्त कार्रवाई की जाएगी। प्रत्यक्षदर्शियों ने बाद में खुलासा किया कि वास्तविक मौत का आंकड़ा ब्रिटिश अधिकारियों की तुलना में बहुत अधिक था।
-रणधीर सिंह सुमन

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