Friday 30 April, 2010

लो क सं घ र्ष !: न उनकी हार नई है न अपनी जीत नई

Sunday 18 April, 2010

इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है

इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है,
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है।
एक चिनगारी कही से ढूँढ लाओ दोस्तों,
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है।

एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी,
आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है।

एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी,
यह अंधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है।

निर्वचन मैदान में लेटी हुई है जो नदी,
पत्थरों से, ओट में जा-जाके बतियाती तो है।

दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर,
और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है।
- दुष्यंत कुमार

Friday 16 April, 2010

तीसरा आदमी कौन है

एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूं --
”यह तीसरा आदमी कौन है ?“
मेरे देश की संसद मौन है।
- धूमिल

भूली बिसरी यादें: लूला से हाल की मुलाकात

30 वर्ष पहले, जुलाई 1980 में, हम मानागुआ (निकारागुआ - अनुवादक) में मिले थे। मौका था सान्दिनिस्ता क्रांति की पहली वर्षगांठ का स्मरणोत्सव। यह मेरे लिबरेशन-थियोलॉजी (मुक्ति धर्मशास्त्र) के अनुनायियों के सम्बन्धों की बदौलत सम्भव हो सका। यह संस्था चिली में शुरू हुई और मैं 1971 में चिली के राष्ट्रपति अलेन्दे (उच्चारण ‘आएंदे’) से मिलने गया।मैंने फ्रिएर वेट्टो से लूला के बारे में काफी सुन रखा था। वह मजदूर नेता थे जिससे वामपंथी ईसाइयों को पहले से ही काफी उम्मीद थीं। वह ब्राजील देश निवासी, धातु उद्योग के एक विनम्र मजदूर, एक दिमागदार और सम्मानित ट्रेड यूनियन नेता थे। ब्राजील में 1960 के दशक तक यांकी साम्राज्यवाद (अमरीकी साम्राज्यवाद - अनुवादक) का सैनिक तानाशाही शासन था जिसने देश को बुरी तरह तबाह कर दिया था। ब्राजील के सम्बंध क्यूबा से तब तक बहुत अच्छे थे जब तक अर्धगोलार्ध में प्रभुत्व रखने वाली शक्तियों ने उन्हें पूरी तरह समाप्त नहीं कर दिया। कई दशक बीतने के बाद धीरे-धीरे हालात सुधर कर यहां तक पहुंचे हैं।हर देश का अपना इतिहास है, हमारे देश ने 1959 की आश्चर्यकारक घटना के बाद काफी मुसीबतें झेलीं - इतिहास के सबसे शक्तिशाली देश के आक्रमण झेले।अतः कैनकुन में हुई हमारी हाल की बैठक में लातिन अमरीकी और कैरिबियन क्षेत्र के देशों का एक समुदाय बनाने के प्रस्ताव असाधारण एवं गौरवशाली समझौता है। यह समझौता उस समय हो रहा है जब विश्व आर्थिक मंदी की चपेट में है, वातावरण में असमानता के कारण मानव जाति संकट में है तथा हैती की राजधानी पोर्ट ओ-प्रिन्स भूकम्प द्वारा तबाह हो चुका है। हैती महाद्वीप का सबसे गरीब देश है जिसने सबसे पहले गुलामी को समाप्त किया।हैती की समस्याएंमैं यह ‘यादें’ लिख ही रहा था और अभी कुल 6 हफ्ते पहले हैती में 2,00,000 लोगों की मौत की खबरें आईं, उसी बीच चिली में एक और भयानक भूकम्प की खबरें आईं। आर्थिक तौर पर भी यह हैती से अधिक विकसित है; अगर पक्की इमारतें नहीं होती तो शायद चिली के लाखों लोग मर जाते। इस बावत 20 लाख लोगों को नुकसान तथा 15 से 30 बिलियन डालर की हानि होने की रिपोर्ट है। इस विपदा में विश्व के लोगों का जिसमें हम भी शामिल हैं तथा एकजुटता, सहानुभूति चिली की जनता के साथ है। हालांकि जहां तक आर्थिक सहायता और किसी प्रकार की सहायता के मामले में क्यूबा कुछ अधिक करने की हालत में नहीं है। तथापि क्यूबा सरकार अपनी एकजुटता प्रकट करने वालों में पहली थी। हमने अपनी भावनाओं का इजहार उस समय कर दिया था जिस समय संचार व्यवस्था ठप्प पड़ी थी।............ हैती संसार के करोड़ों गरीब लोगों, जिसमें हमारे महाद्वीप के लोग भी अच्छी संख्या में हैं, का पर्याय बन चुका है।अभी जो भूकम्प आया था, उसकी तीव्रता रिचटर स्केल पर 8।8 थी। इसकी तीव्रता उस भूकम्प से अधिक थी जिसने पोर्ट-ओ-प्रिन्स को तहस-नहस कर दिया था। मुझे कानकुन में लिए गए फैसले की असलियत का पता चला और इसे आगे बढ़ाने के प्रयासों में मदद की जरूरत। साम्राज्य और उसके सहयोगी चाहे वे हमारे देशों के अन्दर हो या बाहर, लोगों की इस एकता और स्वतंत्रता के प्रयासों का विरोध करेंगे।लूला से मुलाकातमैं यह बात रिकार्ड में लाना चाहता हूं कि लूला की हाल की यह मुलाकात मेरे लिए महत्वपूर्ण यादगार मुलाकात थी, एक दोस्त के रूप में तथा एक क्रांतिकारी के रूप में। उन्होंने कहा था कि उनके राष्ट्रपति पद का कार्यकाल समाप्त होने वाला था अतः अपने मित्र फिडेल से मिलना चाहते थे। इस वृतान्त से उन्होंने मुझे सम्मान दिया। मैं मानता हूं कि मैं उन्हें अच्छी तरह जानता हूं। मेरे और उनके बीच में बिरादराना संवाद होते थे, कभी क्यूबा में कभी विदेश में। एक बार मुझे उनके मकान पर जोकि साओ-पौलो में एक साधारण उपनगर में था, मिलने का मौका मिला। यहां वह अपनी पत्नी और बच्चों के साथ रहते थे। मुझे उस पूरे परिवार के साथ घुलने मिलने का मौका मिला। उनके पड़ोसी उनका बहुत सम्मान करते थे। तब किसको मालूम था कि वे एक दिन उस महान राष्ट्र के राष्ट्रपति होंगे, लेकिन उन्हें बहुत चिन्ता नहीं थी, उनके विरोधियों ने उन्हें दो बार पराजित करवा दिया था। राष्ट्रपति बनने से पहले हुई मुलाकातों के बारे में विस्तार से नहीं कहंूगा। हां 1980 के दशक के मध्य में हम हवाना में लातिन अमरीका के विदेशी ऋण के पीछे माथापच्ची कर रहे थे जो उस समय तक 300 बिलियन डालर तक पहुंच गया था और जिसकी अदायगी एक से अधिक बार कर दी गयी थी। वह जन्मजात जुझारू है।जैसा मैंने कहा कि उनके विरोधियों ने भारी मात्रा में पैसे और मीडिया के समर्थन से उन्हें चुनाव हरवा दिये। उनके करीबी सहायक तथा दोस्त जानते थे कि समय आ गया है जबकि वे वर्कर्स पार्टी और वामशक्तियों के राष्ट्रपति चुनाव में उम्मीदवार बनें।जाहिर है कि उनके विरोधियों ने उनकी ताकत का गलत मूल्यांकन किया। उन्होंने सोचा कि वह संसद में अपना बहुमत सिद्ध नहीं कर पाएंगे। यूएसएसआर समाप्त हो गया था, वे ब्राजील के मुखिया बन कर क्या कर सकेंगे? ब्राजील - वह राष्ट्र जिसके पास अपार सम्पदा है लेकिन विकास थोड़ा, जहां अमीरों और असरदार लोगों का ही बोलबाला है?लेकिन नव-उदारवाद संकट के दौर में था, वेनेजुएला में बोलीवारियन क्रान्ति सफल हो चुकी थी। मेनेम का पतन हो चुका था। पिनोचेर राजनीतिक मंच से अदृश्य हो चुका था। क्यूबा साम्राज्यवाद को टक्कर दे रहा था। लूला उस समय चुनाव जीते जिस समय अमरीका में बेईमानी से बुश जीता, जिसने अपने प्रतिद्वंद्वी एल. गोरे की जीत को चुरा लिया था।यह चुनौती भरे समय की शुरूआत थी। हथियारों की होड़ तथा मिलिट्री औद्योगिक काम्पलेक्स (सैन्य औद्योगिक एकता) की भूमिका और समृद्ध क्षेत्रों से टैक्स घटाना नए अमरीकी राष्ट्रपति द्वारा उठाये गये पहले कदम थे।आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई को उसने युद्धों में जीत अभियान को जारी रखने तथा कत्लेआम और यातना को साम्राज्यवाद के हथियार के रूप में इस्तेमाल करने का बहाना लेकर टाल दिया। गुप्त जेलों से संबंधित घटनाएं जिन्हें छिपा पाना सम्भव नहीं है, वह अमरीका और उसके सहयोगियों के सहअपराध का पर्दाफाश करती हैं।दूसरी तरफ पिछले 8 वर्षों में जब लूला ब्राजील के राष्ट्राध्यक्ष थे, ब्राजील ने धीरे-धीरे समस्याओं से निजात पाना शुरू कर दिया था। ब्राजील का तकनीकी विकास बढ़ रहा था और ब्राजील अर्थव्यवस्था में सुधार और इसका फैलाव बढ़ रहा था। उनके राष्ट्र मुखिया का पहला कार्यकाल बहुत कठिन था लेकिन उन्होंने इसे सफलतापूर्वक पूरा किया और अनुभव हासिल किया। उनका अथक संघर्ष, मानसिक शान्ति, शान्त स्वभाव और कर्तव्य के प्रति बढ़ती लगन ने उन चुनौती भरे अंतर्राष्ट्रीय हालातों में ब्राजील का जीडीपी दो ट्रिलियन डालर के करीब था और ब्राजील की आर्थिक विकास दर दुनिया के पहले दस देशों की सूची में थी। हालांकि ब्राजील से अमरीका क्षेत्रफल के लिहाज से थोड़ा ही बड़ा हैै पर ब्राजील का जीडीपी अमरीका के जीडीपी का कुल मात्र 12 प्रतिशत है। लेकिन साम्राज्यवादी देश अमरीका विश्व को लूट रहा है और विश्व में एक हजार से अधिक स्थानों पर अपनी सेना को तैनात कर रखा है। 2002 के अंत में मुझे उनके राष्ट्रपति पद पर आसीन होने वाले समारोह को देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। चावेज भी वहां मौजूद थे। 11 अप्रैल को उनका तख्त पलट दिया गया और उसी वर्ष उन्होंने अमरीका द्वारा सुनियोजित तेल के व्यापार के खिलाफ साजिश का सामना किया। उस दौरान बुश अमरीका के राष्ट्रपति थे। ब्राजील, बोलिवारियन गणतंत्र और क्यूबा के आपसी संबंध मधुर थे।मेरी बीमारीअक्टूबर 2004 में मैं एक दुर्घटना का शिकार हो गया जिस कारण महीनों तक मेरी गतिविधियां स्थगित रहीं। फिर जुलाई 2006 के अंत में मैं गंभीर रूप से बीमार पड़ गया। इस कारण मैंने पार्टी और देश के मुखिया का पदभार उसी वर्ष 31 जुलाई को छोड़ दिया क्योंकि मुझे लगने लगा था कि मैं अब दायित्व नहीं निभा पाऊंगा।ज्यों ही मेरी हालत में सुधार आया मैंने पढ़ने, लिखने और क्रांति के बारे मंे उपलब्ध सामग्री का अध्ययन शुरू कर दिया और कुछ यादों को छपवाने का विचार बनाया।फिर जब मैं बीमार पड़ा तो मेरे लिए सौभाग्य की बात थी कि लूला जब भी हमारे देश की यात्रा पर आते तो मुझसे जरूर मिलते और हमारी खुलकर बातें होती। मैं यह नहीं कहूंगा कि मैं उनकी हर बात से सहमत था। मैं उनकी फसलों से जैविर्क इंधन के उत्पादन की योजना से असहमत हूं क्योंकि इससे भुखमरी एक भयंकर रूप ले सकती है।ब्राजील की समस्याएंमैं ईमानदारी से कहना चाहूंगा कि भुखमरी की यह समस्या ब्राजील की देन नहीं है और लूला की तो बिल्कुल नहीं। यह विश्व आर्थिक नीति का एक जरूरी हिस्सा है जो साम्राज्यवाद और उसके अमीर सहयोगियों द्वारा थोपी गयी है। ये मुल्क अपने बाजार के हित की रक्षा हेतु कृषि के उत्पादन पर विशेष रियायतें देकर विश्व के तीसरे देशों से खाद्यान्न आयात स्पर्धा में उन्हें मजबूर करते हैं कि वे इन देशों से औद्योगिक उपकरण खरीदने को मजबूर हों। ये उपकरण जिन देशों में बेचे जाते हैं उन्हें देशों के कच्चे माल तथा ऊर्जा श्रोतों का दोहन कर बनाए जाते हैं तथा गरीबी का कारण सदियों से इन देशों का उपनिवेश बने रहना है। मैं भलीभांति समझता हूं कि अमरीका व यूरोप की अनुचित स्पर्धा और विशेष रियायत के कारण ब्राजील को इथेनौल (ईथाइल अल्कोहल) का उत्पादन करने को बाध्य होना पड़ा है।ब्राजील में नवजात शिशु मृत्युदर 23.3 प्रति हजार है तथा प्रसूति मृत्युदर 110 प्रति हजार है जोकि अमीर औद्योगिक देशों में क्रमशः 5 एवं 15 है। हम इस प्रकार के दूसरे आकड़े भी दे सकते हैं।चुकन्दर से उत्पादित चीनी पर विशेष रियायत देकर यूरोप ने हमारे चुकन्दर से बनने वाली चीनी को यूरोप द्वारा अनुदान दिए जाने के कारण हमारे देश में गन्ने से बनने वाली चीनी को बाजार में बिकने से वंचित कर दिया है। हमारे गन्ना किसान वर्ष के अधिकतर समय काम से वंचित रहते हैं। इस बीच अमरीका ने हमारी बेहतरीन उपजाऊ जमीन छीन ली है और इसकी कम्पनियां चीनी उद्योग की मालिक बन गयी। तब अचानक एक दिन हमें हमारे चीनी कोटे से वंचित कर दिया और हमारे देश की आर्थिक घेराबंदी कर दी ताकि हमारी क्रान्ति और आजादी को समाप्त किया जा सके।अब ब्राजील ने गन्ना, सोयाबीन और अनाज का उत्पादन करने की विधि को विकसित कर दिया है जो अधिकतम उत्पादन देते हैं। एक दिन मैं एक ‘डाकूमेंट्री’ में देख रहा था कि सिएगो डी अविला में 40 हजार हेक्टेयर जमीन पर सोयाबीन की खेती के बाद अन्न एगाएंगे जहां वह पूरे वर्ष उत्पादन कर सकेंगे। मैंने कहा कि वह आदर्श समाजवादी कृषि है जो उच्चकोटि का यांत्रिक है और अत्याधिक उत्पादकता देने वाला है।कैरिबियन देशों में कृषि के लिए सबसे बड़ी समस्या चक्रवात है जो दिन प्रतिदिन बढ़ रहे हैं।हमारे देश ने मारियल में एक अत्याधुनिक बन्दरगाह के निर्माण तथा वित्तीय सहायता देने के बावत ब्राजील के साथ एक विस्तारित परियोजना समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं जो हमारी अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण होगी। वेनेजुएला ब्राजील के कृषि उत्पादन तथा तकनीकी का प्रयोग चीनी उत्पादन तथा गन्ने की खोई से ताप-विद्युतीय शक्ति बनाने के उपयोग में ला रहा है। यह एक बहुत ही विकसित यंत्र है और उसका प्रयोग समाजवादी उत्पादन में भी किया जाता है। बोलावियन गणतंत्र में वे गैसोलीन से वातावरण पर होने वाला नुकसान को कम करने के लिए इथोनॉल का प्रयोग कर रहे हैं।पूंजीवाद और प्राकृतिक विनाशपूंजीवाद ने उपभोक्ता समाज को पैदा किया और पैदा किया ईंधन की बर्बादी जिससे पैदा हुआ नाटकीय रूप में मौसम में परिवर्तन। प्रकृति को 400 मिलियन वर्ष लगे उन वस्तुओं को पैदा करने में जिन्हें केवल 2 सदियों से खा रहे हैं। विज्ञान को इस प्रकार की ऊर्जा की खोज करनी है जो आज पेट्रोल से मिलने वाली ऊर्जा का विकल्प बन सके। कोई नहीं जानता यह कितना समय लेगा और इस पर कितनी लागत आएगी। क्या कभी हम उसे पा सकेंगे? कोपेनहेगन में बहस का यह विषय था और यह वार्ता पूर्णरूप से असफल रही।लूला ने मुझे बताया कि जब तक इथेनाल की कीमत गैसोलीन की कीमत का 70 प्रतिशत बैठती है तब तक इथेनॉल तैयार करना फायदेमन्द नहीं है। उन्होंने बताया कि ब्राजील के पास दुनिया में सबसे अधिक जंगल हैं। जंगलों के कटने की दर को धीरे-धीरे 80 प्रतिशत तक कम किया जाएगा।आज ब्राजील के पास समुद्र खोद कर ईंधन/तेल निकालने की विश्व की सबसे बेहतरीन तकनीक है जिसके द्वारा 7000 मीटर से अधिक गहराई से ईंधन प्राप्त किया जा सकता है। 30 वर्ष पहले यह काल्पनिक मालूम होता था।उन्होंने उच्च शिक्षा योजना के बारे में जो ब्राजील अपनाना चाहता है, बताया। इस दिशा में चीन द्वारा उठाये गये कदम की सराहना की। उन्होंने गर्व से बताया कि चीन के साथ उनके देश का व्यापार 40 बिलियन डालर तक पहुंच गया है।एक बात साफ है कि एक धातुकर्मी एक असाधारण और आदरणीय राजनेता बन गया है जिसकी आवाज हर अंतर्राष्ट्रीय बैठक में सुनी जाती है।उन्हें इस बात का गर्व है कि 2016 के ओलम्पिक खेलों के आयोजन हेतु उनके देश को चुना गया है। उनका देश 2014 के विश्व फुटबाल कप की मेजबानी भी करेगा। यह ब्राजील द्वारा परियोजनाओं के परिणाम आधार पर सम्भव हुआ है, जिसमें उन्होंने अपने प्रतिद्वंद्वियों को पीछे छोड़ दिया है।उनकी विश्वसनीयता का एक बड़ा सबूत है कि उन्होंने दुबारा चुनाव लड़ने से इन्कार किया और विश्वास प्रकट किया कि वर्कर्स पार्टी की सरकार आगे जारी रहेगी।वे जो उनकी ख्याति और सम्मान के राजप्रतिनिधि हैं ओर दूसरे जो साम्राज्य की सेवा में हैं, उन्होंने उनके क्यूबा आने की आलोचना की है। ऐसे ही लोगों ने आधी सदी तक क्यूबा के खिलाफ बहुत गलत प्रचार किया। लूला कई वर्षों से यह जानते थे कि हमारे देश में किसी को प्रताड़ित नहीं किया गया, कभी हमने अपने किसी विरोधी को नहीं मरवाया और हमने कीभी भी अपनी जनता से झूठ नहीं बोला। वह यह जानते हैं कि सच्चाई से उनके क्यूबाई मित्रों का अटूट संबंध है।क्यूबा से वह हमारे पड़ोसी हैती में चले गए। हमने हैती के लिए इस दुखद घड़ी में क्या कर सकते हैं, इस विषय पर उनसे खुलकर विचारों का आदान-प्रदान होता रहा। वह जानते हैं कि एक लाख से अधिक भूकम्प पीड़ित हैती निवासी हमारे डाक्टरों द्वारा उपचार पा चुके हैं। मैं जानता हूं उनकी दिली इच्छा हैती के नेक और काफी समय से दुखी लोगों की मदद करना है।मैं ब्राजील के राष्ट्रपति से अपनी यह पिछली न भूलने वाली मुलाकात हमेशा याद रखूंगा और इसे लोगों को बताने में मुझे कोई संकोच नहीं है।

- फिडेल कास्त्रो

‘कामरेड’ सिर्फ एक शब्द नहीं!

‘कामरेड’!
सिर्फ एक शब्द नहीं,
बिजली की लाखों रोशनियों को एक साथ जला देने वाला एक स्विच है
जिसे दबाते ही
रंग बिरंगी रोशनियों की एक विश्व-व्यापी कतार जगमगा उठती है!
एक स्विच, जो वाल्ट व्हिटमॅन को मायकोवस्की से
और पाब्लो नेरूदा को नाज़िम हिकमत से मिला देता है,
मॅक्सिम गोर्की, हावर्ड फ़ास्ट और यशपाल के बीच
एक ही प्रकाश-रेखा खींच देता है!

‘कामरेड’!
सिर्फ एक स्विच नहीं, एक चुम्बन है!
एक चुम्बन, जो दो इन्सानों के बीच की सारी दूरियों को
एक ही क्षण में पाट देता है
और वे इसके इच्चारण के साथ ही
एक दूसरे से यों घुलमिल जाते हैं
जैसे युगों के परिचित दो घनिष्ठ मित्र हों!
एक चुम्बन, जो कांगों की नीग्रो मज़दूरिन
और हिन्दुस्तान के अछूत मेहतर को
एक क्षण में लेनिन के साथ खड़ा कर देता है!
एक अदना से अदना इन्सान को
इतिहास बनाने के महान उत्तदायित्व से गौरवान्ति कर जाता है!
‘कामरेड’!
सिर्फ एक चुम्बन नहीं, एक मंच है
जो बोलने वाले और सुनने वाले दोनों को पवित्र कर देता है
एक मंत्र, जिसे छूते ही अलग-अलग देशों, नस्लों, रंगों और वर्गों के लोग
एक दूसरे के सहज सहोदर बन जाते हैं!
एक रहस्यमय मंत्र
जो इन्सान की आज़ादी, बराबरी और भाईचारे के लिए
कुरबान होने वाले लाखों शहीदों की समाधियों के दरवाजे
सबके लिए खोल देता है
और साधारण से साधारण व्यक्ति उनकी महानता से हाथ मिला सकता है!
‘कामरेड’!
दिलों को दिलों से मिलाने वाली एक कड़ी है,
शरीरों को शरीरों से जोड़ने वाली एक श्रंृखला है,
विषमता और भेदभाव के तपते हुए रेगिस्तान का एक मरूद्वीप है
जहां आकर जुल्म और अन्याय की आग में जलते हुए राहगीर
राहत की सांस लेते हैं,
एक दूसरे का हौसला बढ़ाते हैं।
(कवि के शीघ्र प्रकाश्य संकलन ‘प्रतिनिधि कविताएं’ में से)
- डा. रणजीत

Wednesday 14 April, 2010

खूनीं सरमाये का निवाला है पूछती है यह इसकी खामोशी

मां है रेशम के कारखाने में
बाप मसरूफ सूती मिल में है
कोख से मां की जब से निकला है
बच्चा खोली के काले दिल में है
जब यहाँ से निकल के जाएगा
कारखानों के काम आयेगा
अपने मजबूर पेट की खातिर
भूक सरमाये की बढ़ाएगा
हाथ सोने के फूल उगलेंगे
जिस्म चांदी का धन लुटाएगा
खिड़कियाँ होंगी बैंक की रोशन
खून इसका दिए जलायेगा
यह जो नन्हा है भोला भाला है
खूनीं सरमाये का निवाला है
पूछती है यह इसकी खामोशी
कोई मुझको बचाने वाला है!
- अली सरदार जाफरी

घर-आंगन में आग लग रही

घर-आंगन में आग लग रही ।
सुलग रहे वन -उपवन,
दर दीवारें चटख रही हैं
जलते छप्पर- छाजन ।
तन जलता है , मन जलता है
जलता जन-धन-जीवन,
एक नहीं जलते सदियों से
जकड़े गर्हित बंधन ।
दूर बैठकर ताप रहा है,
आग लगानेवाला,
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला।

भाई की गर्दन पर
भाई का तन गया दुधारा
सब झगड़े की जड़ है
पुरखों के घर का बँटवारा
एक अकड़कर कहता
अपने मन का हक ले लेंगें,
और दूसरा कहता तिलभर भूमि न बँटने देंगें ।
पंच बना बैठा है घर में,
फूट डालनेवाला,
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला ।

दोनों के नेतागण बनते
अधिकारों के हामी,
किंतु एक दिन को भी
हमको अखरी नहीं गुलामी ।
दानों को मोहताज हो गए
दर-दर बने भिखारी,
भूख, अकाल, महामारी से
दोनों की लाचारी ।
आज धार्मिक बना,
धर्म का नाम मिटानेवाला
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला ।

होकर बड़े लड़ेंगें यों
यदि कहीं जान मैं लेती,
कुल-कलंक-संतान
सौर में गला घोंट मैं देती ।
लोग निपूती कहते पर
यह दिन न देखना पड़ता,
मैं न बंधनों में सड़ती
छाती में शूल न गढ़ता ।
बैठी यही बिसूर रही माँ,
नीचों ने घर घाला,
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला ।

भगतसिंह, अशफाक,
लालमोहन, गणेश बलिदानी,
सोच रहें होंगें, हम सबकी
व्यर्थ गई कुरबानी
जिस धरती को तन की
देकर खाद खून से सींचा ,
अंकुर लेते समय उसी पर
किसने जहर उलीचा ।
हरी भरी खेती पर ओले गिरे,
पड़ गया पाला,
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला ।

जब भूखा बंगाल,
तड़पमर गया ठोककर किस्मत,
बीच हाट में बिकी
तुम्हारी माँ - बहनों की अस्मत।
जब कुत्तों की मौत मर गए
बिलख-बिलख नर-नारी ,
कहाँ कई थी भाग उस समय
मरदानगी तुम्हारी ।
तब अन्यायी का गढ़ तुमने
क्यों न चूर कर डाला,
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला।

पुरखों का अभिमान तुम्हारा
और वीरता देखी,
राम - मुहम्मद की संतानों !
व्यर्थ न मारो शेखी ।
सर्वनाश की लपटों में
सुख-शांति झोंकनेवालों !
भोले बच्चें, अबलाओ के
छुरा भोंकनेवालों !
ऐसी बर्बरता का
इतिहासों में नहीं हवाला,
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला ।

घर-घर माँ की कलख
पिता की आह, बहन का क्रंदन,
हाय , दूधमुँहे बच्चे भी
हो गए तुम्हारे दुश्मन ?
इस दिन की खातिर ही थी
शमशीर तुम्हारी प्यासी ?
मुँह दिखलाने योग्य कहीं भी
रहे न भारतवासी।
हँसते हैं सब देख
गुलामों का यह ढंग निराला ।
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला।

जाति-धर्म गृह-हीन
युगों का नंगा-भूखा-प्यासा,
आज सर्वहारा तू ही है
एक हमारी आशा ।
ये छल छंद शोषकों के हैं
कुत्सित, ओछे, गंदे,
तेरा खून चूसने को ही
ये दंगों के फंदे ।
तेरा एका गुमराहों को
राह दिखानेवाला ,
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला ।
- शिव मंगल सिंह सुमन

काल

काल,
तुझसे होड़ है मेरी : अपराजित तू-
तुझमें अपराजित मैं वास करूं ।
इसीलिए तेरे हृदय में समा रहा हूं
सीधा तीर-सा, जो रुका हुआ लगता हो -
कि जैसा ध्रुव नक्षत्र भी न लगे,
एक एकनिष्ठ, स्थिर, कालोपरि
भाव, भावोपरि
सुख, आनंदोपरि
सत्य, सत्यासत्योपरि
मैं- तेरे भी, ओ‘ ‘काल’ ऊपर!
सौंदर्य यही तो है, जो तू नहीं है, ओ काल !
जो मैं हूं-
मैं कि जिसमें सब कुछ है...
क्रांतियां, कम्यून,
कम्यूनिस्ट समाज के
नाना कला विज्ञान और दर्शन के
जीवंत वैभव से समन्वित
व्यक्ति मैं ।
मैं, जो वह हरेक हूं
जो, तुझसे, ओ काल, परे है
- शमशेर बहादुर सिंह

Monday 12 April, 2010

राज्य सभा में सौ करोड़पति

राज्य सभा में सौ करोड़पति
अभी थोड़े दिन पहले मैंने लिखा था कि राजनीति में जन-प्रतिनिधि के नाम पर किस तरह के प्रतिनिधि हैं। आज की खबर पढ़कर मेरा विश्वास पक्का हो गया कि भारत की राजनीति में जनता का प्रतिनिधित्व करने वाला न के बराबर है। जैसा कि खबर है कि राज्य सभा में डी0 राजा सबसे गरीब सदस्य हैं, ये डी0 राजा जमीन के आदमी हैं और उसकी सतह से जुड़े हुए व्यक्ति हैं और सही अर्थ में जनता की आवाज उठाते रहते हैं। जिस सभा का बुद्धिजीवियों, वैज्ञानिक और जनता की इच्छाओं की समझ रखने वालों का सदन कहा गया है, आज वह मात्र धन पशुओं और धन पशुओं के लिए चरागाह मुहैया कराने वाले लोगों का सदन बनकर रह गया है।
जन सूचना अधिकार के अन्तर्गत प्राप्त सूचना में जहां यह कहा गया है कि राज्य सभा में 100 सदस्य करोड़पति हैं वहीं यह भी कहा गया है कि राहुल बजाज जिनकी सम्पत्ति 300 करोड़ रूपये की है वह महाराष्ट्र से आजाद उम्मीदवार की हैसियत से जीतकर राज्य सभा में बैठे हैं। जनता दल सेक्यूलर के राज्य सभा सदस्य एम0ए0एम0 रामास्वामी के पास 278 करोड़ रूपये, कांग्रेस की टी0 सुब्रह्मी रेड्डी के पास 272 करोड़ रूपये सम्पत्ति के स्वामी हैं। सबसे अधिक करोड़पति कांग्रेस पार्टी के जिनकी संख्या 33, फिर बीजेपी की जिनकी संख्या 21 और समाजवादी पार्टी के 7 सदस्य हैं। समाजवादी पार्टी की जया बच्चन के पास 215 करोड़ रूपये और अमर सिंह के पास 79 करोड़ रूपये की सम्पत्ति है। लेकिन भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के डी0 राजा और भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी) के सुमन पाठक के पास कोई सम्पत्ति नहीं है। असल में यही दोनों जनता के सच्चे प्रतिनिधि हैं और जनता की आवाज मुखर करने वाले प्रबल प्रहरी हैं। कबीर के सच्चे अनुयायी हैं और उनके बताये गये रास्ते ‘‘कबीरा खड़ा बाजार में लिए लुखाटा हाथ, जो घर फूंके आपनो वे आए मेरे साथ’’ पर चलने वाले सच्चे लोग हैं और मैं फिर कहूंगा कि यही गुलिस्तां को गुलज़ार करने वाले लोग हैं, जैसा कि इकबाल ने कहा है,
‘‘मिटा दे अपनी हस्ती को अगर कुछ मर्तबा चाहे,
कि दाना खाक में मिलकर गुल-ए-गुलज़ार होता है।’’
कहां बहक गया मैं भी बात कर रहा था राज्य सभा में 100 करोड़पतियों कि और बात करने लगा कबीर और इकबाल की। राज्य सभा में अधिकांश सदस्य विधान सभाओं से चुनकर आते हैं और जन प्रतिनिधियों का प्रतिनिधित्व करते हैं यानी जन प्रतिनिधियों के प्रतिनिधि होते हैं। मेरा मानना है कि जन प्रतिनिधि के नाम पर हर पार्टी में पार्टी के वफादार लोग या यूं कहिए कि पार्टी के साथ वफादारी के नाम पर राज्य सभा में पहुंचाये जाने वाले लोगों के वफादार लोग होते हैं क्योंकि पार्टियों को भी पैसा इन्हीं लोगों से पहुंचता है। यह बात रही धन-बल की लेकिन धन-बल को समर्थन देने के लिए छल-बल और बाहुबल भी जरूरी है। खबर यह भी बताती है कि राज्य सभा में आपराधिक चरित्र के कांग्रेस के 6 तथा भाजपा और बसपा के 4-4 सदस्य राज्य सभा में हैं। यही कारण है कि यह प्रतिनिधि सदन में पहुंचकर जन कल्याणकारी काम न करके जन विरोधी कामों को अपना समर्थन देते हैं। इस खबर पर यह मेरी अपनी टिप्पणी नहीं बल्कि मेरी भावनाओं का प्रतिबिम्ब है और यह प्रतिबिम्ब मैंने केवल इसलिए प्रस्तुत किया है कि इस पर ध्यान दीजिए कहीं यह प्रतिबिम्ब आपकी भावनाओं को तों नहीं है।

जवाहर लाल कौल ‘व्यग्र’ के कहानी-संग्रह ‘चक्कर’ का लोकार्पण










वाराणसी: प्रगतिशील लेखक संघ वाराणसी इकाई तथा सर्जना साहित्य मंच वाराणसी के संयुक्त तत्वाधान में प्रसिद्ध कवि एवं कथाकार जवाहर लाल कौल ‘व्यग्र’ के प्रथम कहानी संग्रह ‘चक्कर’ का लोकार्पण दिनांक 14 फरवरी 2010 को उदय प्रताप महाविद्यालय वाराणसी के पुस्तकालय कक्ष में प्रख्यात कथाकार प्रो. काशी नाथ सिंह की अध्यक्षता में किया गया। मुख्य अतिथि के रूप में सुप्रसिद्ध दलित साहित्यकार एवं ‘बयान’ पत्रिका के सम्पादक मोहनदास नैमिशराय की उपस्थिति विशेष रूप से उल्लेखनीय रही।समारोह के प्रारम्भ में अपनी कहानियों की रचना-प्रक्रिया के सम्बंध में जवाहर लाल जी ने बताया। अपने उद्घाटन भाषण में डा. राम सुधार ने संकलन की कई कहानियों को संदर्भित करते हुए कहा कि व्यग्र जी के अन्दर एक सफल कहानीकार के बीज हैं। उनकी प्रत्येक कहानी एक सन्देश की तरफ ले जाती है। शायर दानिश जमाल सिद्दीकी का कहना था कि वाराणसी में कहानी के क्षेत्र में प्रो. काशी नाथ सिंह के बाद व्यग्र जी के आगमन से एक नई उम्मीद पैदा होती है। प्रो. चौथी राम यादव ने संग्रह की कहानी ‘औकात’ को रेखांकित करते हुए इस बात पर चिंता व्यक्त की कि आज की अस्पृश्यता दलित समाज की सबसे मारक एवं अपमानजनक स्थिति है जिसके कारण वह सवर्णीय चारपाई तो बुन सकता है लेकिन उस पर बैठ नहीं सकता।मुख्य अतिथि नैमिशराय ने कहा कि दलित साहित्यकार एक स्वस्थ समाज की रचना करना चाहता है। जब तक यह स्थिति नहीं आयेगी, दलित लेखन की आवश्यकता बनी रहेगी। ‘चक्कर’ कहानी पर विशेष रूप से चर्चा करते हुए उन्होंने इसे जातिगत दम्भ के अभिव्यक्ति की श्रेष्ठ मनोवैज्ञानिक कहानी बताया। प्रो. काशी नाथ सिंह ने कहा कि जवाहर लाल जी प्रेम चन्द्र की तर्ज के कथाकार हैं इसलिए उनके यहां प्रेम चन्द का विरोध भी प्रेम चन्द का विकास है। उन्होंने वाराणसी में पुरूष कथाकारों की कमी जाहिर करते हुए व्यग्र को अपना जोड़ीदार बताया। संग्रह की दो कहानियाँ ‘औकात’ और ’डाँगर’ पर चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि कौल जी में इस बात का सेंस है कि कहानी कहाँ से बनती है।आयोजन में डा. संजय कुमार, प्रगतिशील लेखक संघ के प्रदेश महासचिव डा. संजय श्रीवास्तव तथा संगम जी विद्रोही ने भी अपने विचार रखे। स्वागत वाराणसी प्रलेस के सचिव डा. गोरख नाथ एवं आभार जलेस के सह सचिव नईम अख्तर ने ज्ञापित किया। संचालन अशोक आनन्द ने किया।(प्रस्तुति: मूल चन्द्र सोनकर)

Sunday 11 April, 2010

काजू भुने प्लेट में विस्की गिलास में', उतरा है रामराज विधायक निवास में

काजू भुने प्लेट में विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में
पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत
इतना असर है खादी के उजले लिबास में
आजादी का वो जश्न मनायें तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में
पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है यहाँ की नखास में
जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में

(अदम गोंडवी )

आज मुझको मौत से भी डर नहीं लगता



राह कहती,देख तेरे पांव में कांटा न चुभ जाए
कहीं ठोकर न लग जाए;
चाह कहती, हाय अंतर की कली सुकुमार
बिन विकसे न कुम्हलाए;
मोह कहता, देख ये घरबार संगी और साथी
प्रियजनों का प्यार सब पीछे न छुट जाए!
किन्तु फिर कर्तव्य कहता ज़ोर से झकझोर
तन को और मन को,
चल, बढ़ा चल,
मोह कुछ, औश् ज़िन्दगी का प्यार है कुछ और!
इन रुपहली साजिशों में कर्मठों का मन नहीं ठगता!
आज मुझको मौत से भी डर नहीं लगता!
आह, कितने लोग मुर्दा चांदनी के
अधखुले दृग देख लुट जाते;
रात आंखों में गुज़रती,
और ये गुमराह प्रेमी वीर
ढलती रात के पहले न सो पाते!
जागता जब तरुण अरुण प्रभात
ये मुर्दे न उठ पाते!
शुभ्र दिन की धूप में चालाक शोषक गिद्ध
तन-मन नोच खा जाते!
समय कहता--
और ही कुछ और ये संसार होता
जागरण के गीत के संग लोक यदि जगता!
आज मुझको मौत से भी डर नहीं लगता!

Friday 9 April, 2010

आवारा सजदे

इक यही सोज़-ए-निहाँ कुल मेरा सरमाया है
दोस्तो मैं किसे ये सोज़-ए-निहाँ नज़र करूँ
कोई क़ातिल सर-ए-मक़्तल नज़र आता ही नहीं
किस को दिल नज़र करूँ और किसे जाँ नज़र करूँ?
तुम भी महबूब मेरे तुम भी हो दिलदार मेरे
आशना मुझ से मगर तुम भी नहीं तुम भी नहीं
ख़त्म है तुम पे मसीहानफ़सी चारागरी
मेहरम-ए-दर्द-ए-जिगर तुम भी नहीं तुम भी नहीं
अपनी लाश आप उठाना कोई आसान नहीं
दस्त-ओ-बाज़ू मेरे नाकारा हुए जाते हैं
जिन से हर दौर में चमकी है तुम्हारी दहलीज़
आज सजदे वही आवारा हुए जाते हैँ
दूर मंज़िल थी मगर ऐसी भी कुछ दूर न थी
लेके फिरती रही रास्ते ही में वहशत मुझ को
एक ज़ख़्म ऐसा न खाया के बहार आ जाती
दार तक लेके गया शौक़-ए-शहादत मुझ को
राह में टूट गये पाँव तो मालूम हुआ
जुज़ मेरे और मेरा रहनुमा कोई नहीं
एक के बाद ख़ुदा एक चला आता था
कह दिया अक़्ल ने तंग आके ख़ुदा कोई नहीं

Wednesday 7 April, 2010

खून-ए-दिल में डूबो ली हैं उंगलियां मैंने


फैज अहमद फैज को मैंने तब देखा था, जब सज्जाद जहीर की लंदन में मौत हो गई थी और वह उनकी लाश लेकर हिंदुस्तान आए थे। लेकिन उनसे बाकायदा तब मिला, जब मैं प्रगतिशील लेखक संघ का सचिव था। यह इमरजेंसी के बाद की बात है। उन दिनों मैं खूब भ्रमण करता था। बड़े-बड़े लेखकों से मिलना होता था। एक मीटिंग में प्रगतिशील साहित्य को लोकप्रिय बनाने की बात चल रही थी। मैंने फैज साहब से पूछा कि आप इतना घूमते हैं, लेकिन हर जगह अंग्रेजी में स्पीच देते हैं। ऐसे में हिंदुस्तान और पाकिस्तान में हिंदी-उर्दू के प्रगतिशील साहित्य का प्रचार कैसे होगा? फैज साहब ने कहा, ‘इंटरनेशनल मंचों पर अंग्रेजी में बोलने की मजबूरी होती है। लेकिन आप लोग कम से कम उतना काम तो कीजिए, जितना हमने अपनी जुबान के लिए किया है।’ उसके बाद उनसे मेरा कई बार मिलना हुआ। फैज साहब के बारे में एक बात बहुत कम लोग जानते हैं। इसे ठीक से प्रचारित नहीं किया गया। जब गांधीजी की हत्या हुई थी, तब फैज ‘पाकिस्तान टाइम्स’ के संपादक थे। गांधीजी की शवयात्रा में शरीक होने के लिए वह चार्टर्ड प्लेन से आए थे और जो संपादकीय उन्होंने लिखा था, मेरी चले तो मैं उसकी लाखों करोड़ों प्रतियां लोगों में बांटू। गांधीजी के व्यक्तित्व का ऐतिहासिक मूल्यांकन करते हुए शायद ही कोई दूसरा संपादकीय ऐसा लिखा गया होगा। फैज साहब ने लिखा था - अपनी मिल्लत और अपनी कौम के लिए शहीद होने वाले हीरो तो इतिहास में बहुत हुए हैं, लेकिन जिस मिल्लत से अपनी मिल्लत का झगड़ा हो रहा हो और जिस मुल्क से अपने मुल्क की लड़ाई हो रही हो, उस पर शहीद होने वाले गांधीजी अकेले थे। पार्टीशन के बाद उन दिनों पाकिस्तान में लड़ाई चल रही थी। गांधी जी खुद को बड़े गर्व से हिंदू कहते थे, लेकिन यह इतिहास की विडंबना है कि नाथूराम गोडसे ने सेकुलर पंडित नेहरू को नहीं मारा, राम का भजन गाने वाले गांधी को मारा। फैज अहमद फैज उर्दू के प्रगतिशील रचनाकारों में सबसे प्रसिद्ध कवि हैं। जोश, जिगर और फिराक के बाद की पीढ़ी के कवियों में वह सबसे लोकप्रिय थे। नोबेल प्राइज छोड़कर उन्हें साहित्य जगत का सबसे बड़ा सम्मान और पुरस्कार मिला। फैज उन कवियों में थे, जिन्होंने अपने विचारों के लिए अग्नि-परीक्षा भी दी। मशहूर रावलपिंडी षड्यंत्र केस के वह आरोपी थे। सज्जाद जहीर और फैज साहब पर पाकिस्तान में मुकदमा चलाया गया था। उन्हें कोई भी सजा हो सकती थी। वे काफी दिनों तक जेल में रहे ही। फैज साहब के एक काव्य संकलन का नाम है - ‘जिंदानामा’। इसका मतलब होता है कारागार। अयूबशाही के जमाने में उन्होंने विद्रोहात्मक कविताएं लिखीं। उन्होंने मजदूरों के जुलूसों में गाए जाने वाले कई गीत लिखे, जो आज भी प्रसिद्ध हैं। मसलन,हम देखेंगेलाजिम है कि हम भी देखेंगेवो दिन कि जिसका वादा हैजब जुल्मोसितम के कोह-ए-गरांरूई की तरह उड़ जाएंगे.....जब बिजली कड़-कड़ कड़केगीहम अहल-ए-सफा, मरदूद-ए-हरममसनद पर बिठाए जाएंगेसब ताज उछाले जाएंगेसब तख्त गिराए जाएंगेऔर राज करेगी खुल्क-ए-खुदाजो मैं भी हूं और तुम भी हो। फैज अहमद फैज की इस चर्चित नज्म को पिछले दिनों टेलीविजन पर सुनने का मौका मिला। इसे पाकिस्तानी गायिका इकबाल बानो ने बेहद खूबसूरती से गाया है। फैज प्रेम और जागरण के कवि हैं। उर्दू-फारसी की काव्य परंपरा के प्रतीकों का वे ऐसा उपयोग करते हैं, जिससे उनकी प्रगतिशील कविता एक पारंपरिक ढांचे में ढल जाती है और जो नई बातें हैं, वे भी लय में समन्वित हो जाती हैं। उन्होंने कई प्रतीकों के अर्थ बदले हैं, जैसे उनकी एक कविता है - ‘रकीब’। रकीब प्रेम में प्रतिद्वंद्वी को कहा जाता है। उन्होंने लिखा कि मैं अपनी प्रेमिका के रूप से कितना प्रभावित हूं, यह मेरा रकीब जानता है। उन्होंने लिखा - मुझसे पहली-सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग। इतनी ही नहीं, उन्होंने ही यह लिखा - और भी गम हैं जमाने में मुहब्बत के सिवा। राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा। और लेखकों के लिए उन्होंने लिखा - मता-ए-लौह-ओ-कलम छिन गई, तो क्या गम है। कि खून-ए-दिल में डुबो ली हैं उंगलियां मैंने। दरअसल फैज में जो क्रांति है, उसे उन्होंने एक इश्किया जामा पहना दिया है। उनकी कविताएं क्रांति की कविताएं हैं और सरस भी हैं। सबसे बड़ा कमाल यह है कि उनकी कविताओं में सामाजिक-आर्थिक पराधीनता की यातना और स्वातंन्न्य की कल्पना का जो उल्लास होता है, वह सब है। फैज की दो और खासियतें हैं - एक, वह व्यंग्य कम करते हैं, लेकिन जब करते हैं, तो उसे बहुत गहरा कर देते हैं। जैसे - शेख साहब से रस्मोराह न की, शुक्र है जिंदगी तबाह न की। दूसरी बात फैज रूमानी कवि हैं। वे अपने भावबोध को सकर्मक रूप प्रदान करने वाले कवि हैं। क्रांति सफल नहीं हुई तो ऐसे में जो क्रांतिकारी कवि हैं, निराश होकर बैठ जाते हैं। कई तो आत्महत्या कर लेते हैं और कई जमाने को गालियां देते हैं। फैज वैसे नहीं हैं। उनका एक शेर है - करो कज जबीं पे सर-ए-कफन, मेरे कातिलों को गुमां न हो। कि गुरूर इश्क का बांकपन, पसेमर्ग हमने भुला दिया। अर्थात कफन में लिपटे मेरे शरीर के माथे पर टोपी थोड़ी तिरछी कर दो, इसलिए कि मेरी हत्या करने वालों को यह भ्रम न हो कि मरने के बाद मुझमें प्रेम के स्वाभिमान का बांकपन नहीं रह गया है। यह ऐतिहासिक यातना की अभिव्यक्ति है। यह समूचे समाजवादी आन्दोलन और समाजवादी चेतना की ऐतिहासिक अभिव्यक्ति है। राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के दिनों में ऐसी अनेक कविताएं बाल कृष्ण शर्मा ‘नवीन’, निराला आदि कवियों ने लिखी थीं। कुछ इसी भावबोध पर लिखी उनकी एक नज्म है, जो मुझे अभी याद नहीं है। हां, एजाज अहमद ने उन पंक्तियों को अपने एक मशहूर लेख आज का मार्क्सवाद में उद्घृत किया है। जिसका भाव है - हमने सोचा था कि हम दो-चार हाथ मारेंगे और यह नदी तैरकर पार कर लेंगे। लेकिन नदी में तैरते हुए पता चला कि कई ऐसी लहरें, धाराएं और भंवरें हैं, जिनसे जूझने का तरीका हमें नहीं आता था। अब हमें नए सिरे से यह नदी पार करनी होगी। सो, फैज केवल रूप, सौंदर्य और प्रेरणा के ही कवि नहीं हैं, बल्कि विफलताओं और वेदना के क्षणों में साथ रहने वाली पंक्तियों के भी कवि हैं।

Sunday 4 April, 2010

बजट 2010-11: गहराते सामाजिक असमानता के खतरनाक आयाम

किसी भी साल के बजट को दो स्तरों या तत्वों के रूप में देखा जा सकता है, कम से कम उसे समझने के प्रयास की शुरूआत के रूप में। एक तो उसमें राजकीय आय और व्यय के पुराने, नये और प्रस्तावित आंकड़े या संख्या होती है जिनका सिलसिलेवार पूरा ब्यौरा विभिन्न मदों में बजट के दस्तावेजों में दर्शाया जाता है। दूसरे कुछ गुणात्मक पहलू होते हैं जो विशेष रूप से चुने हुए जुमलों, वाक्यांशों और सिद्धांतों की दुहाई देते हैं। ये एक ओर तो सरकार के कामकाज और चरित्र को जन-हितैषी साबित करने के मकसद से चुने या गढ़े जाते हैं। दूसरे, उन्हें इस तरह बहु अथवा द्विअर्थी रखा जाता है कि हमारे गैर-बराबरीमय समाज में सत्ता और शक्ति के असली ध्रुवों को भी अपनी सरकार की नीयत, नीतियों, निर्णयों और कार्यों पर भरोसा बना रह सके। वैसे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से बजट तथा नीति निर्माण में इन तबकों की दखल और सीधी भागीदारी पिछले दो दशकों से लगातार बढ़ी है। जैसे-जैसे आम आदमी का जीवन दूभर होता जाता है, उसे अधिकाधिक हाशिये पर डाल दिया जाता है। उसी के साथ-साथ यह आकर्षक जुमलों, मोटी संख्याओं या नम्बरों का खेल भी नटवरलाली रूप ग्रहण करता जाता है। ऐसा ही गुणात्मक, सैद्धांतिक स्तर पर भी किया जाता है।
वर्तमान बजट
सन् 2010-11 के लिये प्रस्तावित बजट के ये दोनों पक्ष काफी अंशों तक इनकी दीर्घकालिक प्रवृत्तियों को प्रकट करते हैं। इस साल पेश बजट पुरानी, जमी-जमायी आर्थिक वृद्धि दर बढ़ाने के लिए निजी निवेश तथा तथाकथित उद्यमिता को बढ़ाने के लिए, राज्य की ‘समर्थकारी’ भूमिका को रेखांकित करने के लिए अपने बड़े मुद्दे के राजकीय खर्च को काफी कड़ाई से नियंत्रित करता है। इसका मकसद है सरकार बाजार से कम कर्ज उठाये ताकि कम ब्याज दरों पर निजी क्षेत्र, खासकर कम्पनी क्षेत्र, को प्रचुर मात्रा में कर्ज उपलब्ध होता रहे। निजी क्षेत्र को बैंक खोलने की इजाजत भी इसी काम को आगे बढ़ायेगी। राज्य खर्च की कानून हदबंदी राज्य को अपने पैर पसारने से भी रोकता है ताकि सार्वजनिक सेवाओं तक राज्य को बाहर रखकर या हाशिये पर डालकर उच्च शिक्षा, जटिल-महंगी चिकित्सा, यातायात, मूलभूत आधार क्षेत्रीय सेवाओं आदि के मलाईदार हमेशा मांग में रहने वाले भारी मुनाफादायक क्षेत्र बड़ी-बड़ी कम्पनियों के हाथ में आ जायें। बस इन कामों के ‘सार्वजनिक’ चरित्र का इस्तेमाल बायेबिली गैप फंड यानी मुनाफे की अप्रर्याप्तता को पूरा करने के लिए सार्वजनिक धन की छद्मरूप से सहायता लेकर किया जा सके।
बजट और जनता
हां, गांवों की पाठशाला या वहां की चिकित्सा व्यवस्था या गांवों को जोड़ने वाली सड़के, गांवों तथा कस्बों की सफाई, पानी आपूर्ति की व्यवस्था, बाढ़ नियंत्रण आदि अनाकर्षक काम जरूर सरकार के हाथों में रहे। किन्तु ये काम भी इतने विशाल हैं, खासकर शिक्षा के अधिकार की कानूनी मान्यता तथा सबके लिए स्वास्थ्य जैसे जुमलों के प्रचलन के कारण कि इनके लिए खर्च की अगर समुचित तजवीज की जाये तो वित्तमंत्री को इस अति धनी तथा समृद्ध से समृद्धतर होते वर्ग की जेब में हाथ डालना ही पड़ेगा। कुछ अंशों तक इस ‘खतरे’ में अपने समतुल्य और बिरादराना तबकों को बचाने के लिए अब सेवाकर तथा अन्य प्रत्यक्ष करों का दामन ज्यादा अंशों तक थामा जा रहा है और आय, सम्पत्ति तथा मुनाफे आदि पर लगने वाले प्रत्यक्ष करों में कटौती की गयी हैं किन्तु एक तीर से दो पंछियों को मार गिराने में माहिर शासक वर्ग ने सरकारी कम्पनियों के शेयर, बाजार में निजी क्षेत्र को बेचकर एक भारी राशि, चालीस हजार करोड़ रुपयों की अपने खर्च को पूरा करने का फैसला भी बजट में जोड़ दिया है। इससे न केवल धनी वर्ग का संभावित कर भार कम होगा, किन्तु मलाईदार, जन धन तथा त्याग से बने नवरत्नों, मुक्त सार्वजनिक क्षेत्र में कई तरह से संेधमारी के रास्ते भी हमारे कम्पनी क्षेत्र के तथा शेयर बाजार के स्टोरियों को मिल जायेंगे।
जो बाजार स्वयं अपने को किसी अनुशासन में नहीं रख पाता है, जहां अरबों के सत्यमनुमा घोटाले आम प्रवृत्ति है जिनका यदाकदा ही और बहुधा आकस्मिक भंडाफोड होता है, जो विकट उतार-चढ़ाव के दौर से केवल मानसिक और ‘एनिमल स्पिरिट्स’ भेड़चाल प्रवृत्ति के कारण अस्थिरता का दूसरा नाम बन गया है, उसके द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र के कम्पनियों को अनुशासित करने की कोशिश एक भारी अंर्तविरोध ही दर्शाता है। किन्तु हमारे बाजारवादी शासक जो पश्चिम के भयावह, जनविरोधी अर्थशास्त्र के कायल हैं और उन्हीं के सुझाये रास्ते पर आंखे मूंद कर चलते हैं, अपने राजकोषीय अनुशासन और बजट
प्रबंधन कानून के प्रति इतने संजीदा तथा समर्पित हैं कि वे (जैसा कि कार्ल पोलान्यी ने दशकों पहले कहा था) आर्थिक उन्नयन के लिए किसी भी सामाजिक कीमत को अधिक और गैर वाजिब नहीं मानते हैं।

नवउदारवाद के दुराग्रहों के समावेशी विकास की मखमली चादर में लपेटने के प्रयासों की कुछ अन्य बानगियां इस बजट में खोज पाना कोई मुश्किल काम नहीं है। कहा गया है कि तेज आर्थिक बढ़ोतरी सरकार को समाज तथा आम जन के कल्याण हेतु अधिक संसाधन उपलब्ध कराती है। इस साल के बजट अनुमान चालू कीमतों पर 12.5 प्रतिशत राष्ट्रीय आय वृद्धि की परिकल्पना पर बनाये गये प्रतीत होते हैं। जाहिर है कि राष्ट्रीय आय की वकालत उसके द्वारा ज्यादा बखूबी सामाजिक दायित्व पूरी करने की क्षमता पैदा होने का दावा करने वालों को कम से कम हर सामाजिक सेवा और गरीब तथा खास कर ग्रामीण गरीब तथा हर साल श्रम शक्ति में शामिल होते 120 लाख युवा वर्ग के लिए पुराने आबंटन को कम से कम 12.5 प्रतिशत से ज्यादा तो बढ़ाना ही चाहिए था। किन्तु शिक्षा, स्वास्थ्य, ग्रामीण विकास, तंग बस्तियों और गांवों के लिए आधारभूत सेवाओं, रोजगार सृजन, सिंचाई, स्वच्छता तथा पेयजल आदि किसी भी काम के लिए राष्ट्रीय आय की अनुमानित वृद्धि के अनुपात में आबंटन नहीं किया गया है।
रोजगार एवं शिक्षा
इस बार रोजगार वृद्धि का कोई टारगेट भी घोषित नहीं किया गया है। शिक्षा के अधिकार को अमल में लाने के लिए कम से कम 81 हजार करोड़ रुपये सलाना चाहिए, किन्तु तजबीज मात्र 48 हजार रुपयों से कुछ कम की गयी है। उच्च शिक्षा के लिए 16.7 हजार करोड़ रु. की व्यवस्था तो हास्यास्पद लगती है, जब यह देखा जाता है, कि स्वयं छात्र अपनी उच्च शिक्षा के खर्च को निजी स्तर पर पूरा करने के लिए पिछले वर्ष बीस हजार करोड़ रुपयों से ज्यादा का निजी कर्ज बैंकों से लेने को विवश हुए थे। ऊपर तुर्रा यह कि उच्च शिक्षित युवकों को भी बेरोजगारी का सामना भी करना पड़ता है। चिकित्सा खर्च अब अस्पतालों के कम्पनीकरण के कारण निजी जेबों पर इतना भारी पड़ने लगा है कि वह अब किसानों और मध्य आय तबके तक के कर्ज के चक्र में फंसने का एक मुख्य कारण बन गया है। फिर भी सबके लिए स्वास्थ्य बीमा अभी कहीं भी कार्यान्वयन के क्षितिज पर नजर नहीं आता है।
यहां बहु-चर्चित, बहु-प्रशंसित और कई अर्थों में पहली गंभीर जनहितकर योजना ‘मनरेगा’ के बारे में इस साल के बजट की आपराधिक बेरूखी का अलग से उल्लेख बजट और समावेशी विकास की असलियत को समझने के लिए जरूरी है। इस तथाकथित फ्लैगशिप स्कीम के लिये महज एक हजार करोड़ की अतिरिक्त राशि की व्यवस्था संशय पैदा करती है कि यह कहीं घोषित प्राथमिकताओं के बारे में पुनर्विचार का संकेत तो नहीं है। बहरहाल केवल 5 करोड़ से कम परिवार इस योजना का आंशिक लाभ उठा पाये हैं और लाभान्वित से बाहर लोगों का आकलन 70 प्रतिशत तक किया जा रहा है। मात्र 65 लाख लोगों को एक सौ दिन का रोजगार मिल पाने की बात स्वयं गांव विकास मंत्री मानते हैं। इस साल न्यूनतम दिहाड़ी भी 100 रुपये प्रस्तावित है। सबसे गंभीर बात यह कि 15 रुपये से कम दैनिक खर्च पर लोगों को गरीब मानने वाले लोगों ने क्या कभी यह आकलन किया है कि लगभग 20 प्रतिशत खाद्य पदार्थों की कीमत बढ़ने का असर भुखमरी, कुपोषण, श्रम उत्पादकता तथा अपराधों के बढ़ने आदि पर क्या होता है? इस बेरुखी के मुकाबले आमतौर पर करोड़पति-अरबपति निर्यातकों को वैश्विक मंदी के झटके से उबारने के लिए अपनी पहल और लाॅबीज के मिले जुले असर के प्रति अतिउदार शासकों का खुमान इतना प्रबल है कि उनके लिए सहायता कोष जारी करने में राज के बीज अनुशासन को भुला दिया जाता है। अत्यंत शर्मनाक और कारपोरेट समूहों की अंध भक्ति का और उदाहरण क्या हो सकता है सिवा इसके कि कम्पनियों के पक्ष में कर खर्च रूपी ‘प्रोत्साहन’ की मात्रा ‘मनरेगा’ से एक सौ गुणा बढ़ाकर पिछले साल के चार लाख करोड़ रुपये में से अब 5 लाख करोड़ रुपये कर दी गयी है, बदले में खाद्यान्न, भ्रष्टाचार और हवाला रूपी प्रतिफल पाने के लिए। सारे देश में मनरेगा लागू करना वैसा ही है जैसे 98 प्रतिशत गांवों में स्कूल खोल देना। अभी भी 12 करोड़ से ज्यादा बालक-बालिकाएं विद्यमान घटिया और गैर-सार्थक शिक्षा से भी वंचित हैं।
वास्तव में देखा जाये तो मनरेगा में मजदूरी नहीं राहत राशि ही बांटी जा रही है क्योंकि 100 दिन का काम और कमरतोड़ मेहनत के बाद भी पूरी दिहाड़ी का वक्त पर नहीं मिलना इस काम को रोजगार साबित नहीं कर सकता है। बजट के दिन वाॅल स्ट्रीट जर्नल भारत के वित्तमंत्री के नाम खुली चिट्ठी छाप कर यह राय देता है कि अब सरकार के सामने दकियानूसी दक्षिणपंथी तथा वामपंथी कोई चुनौती बाकी नहीं बची है। अतः वे अब तथाकथित सुधारों की सड़क पर दौड़े तथा सामाजिक सेवाओं आदि झंझटो से अपने को आजाद कर ले। क्या मनरेगा के लिए मात्र एक हजार करोड़ रुपये का चालू कीमतों पर अतिरिक्त आवंटन इसी प्रतिष्ठित पत्र की राय के प्रति सकारात्मक रूख तो नहीं दर्शाता है? याद रहे कि सरकार के कई भूतपूर्व और वर्तमान सलाहकार भी नरेगा के खिलाफ लिख चके हैं और गांवों के बड़े धनी किसान भी खेत मजदूरों को मनरेगा द्वारा प्राप्त विकल्प से परेशान हैं।
बजट का फलसफा
चन्द अन्य पहलुओं का खुलासा बजट के अंकों और फलसफे दोनों का असली खाका खींचते हैं। पिछले साल वेतन आयोग के 102 हजार करोड़ रुपये बांट कर तथा चार लाख करोड़ का मंदी-विरोधी प्रोत्साहन पैकेज देकर राष्ट्रीय आय की वृद्धि को हवा दी गयी थी। इस आय तथा उसी बढ़त के असंतुलित तथा जनहित उपेक्षक रूप से चर्चा तक नहीं होती तो फिर उनसे दो-दो हाथ होने की तजबीजों का तो सवाल ही पैदा नहीं होता है। आयकर तथा कम्पनी कर में कमी समृद्ध लोगों को अप्रत्याशित अनायास अतिरिक्त आमदनी देकर आय की असमानता घटाने की मृतप्राय कोशिशों के ताबूत में और अधिक कील ठोक दी गयी है। इसके बलबूते अनप्रयुक्त उत्पादन क्षमता का उपयोग, नए निवेश के अवसर और विदेशी पूंजी को आकर्षित करने का आधार तैयार किया गया लगता है ताकि ‘ग्रोथ बढ़ती रहे चाहे वह एक कैंसर ग्रस्त अर्थव्यवस्था को ही और ज्यादा क्यों न फुलायें’। अप्रत्यक्ष करों का प्रत्यक्ष करों में की गयी कमी से लगभग दोगुना इजाफा कृषि जन्य पदार्थों की महंगाई को औद्योगिक उत्पादों तक ले जायेगा, खासकर ऊर्जा क्षेत्र की कीमतों को बढ़ाकर जहां पहले ही भारी भरकम बोझ विद्यमान है। लगता है कि सरकार केवल अपने द्वारा कर लगाकर आम जनता की जेब हल्की करने भर से संतुष्ट नहीं है। बाजार तक सरकार की साठगांठ से तेजी से बढ़ती महंगाई रूपी दानवी कारारोपण सरकार के चहेते पूंजीपति वर्ग की आय बढ़ाता है और देश के उत्पादन ढांचे के आम आदमी की जरूरतों के लिए उत्पादन तथा रोजगार अवसरों से विमुख करता जा रहा है।
कर संरचना
हमारे अप्रत्यक्ष करों की संरचना भी भारतीय उद्योगों के खिलाफ और आयातों यानी विदेशी उत्पादकों के हितों को बढ़ाने वाली बनती जा रही है। कई सालों से उत्पाद-शुल्क के रूप में भारत के देसी उद्योगों से ज्यादा राजस्व वसूला जा रहा है और काफी तुलना में विदेशी माल से कम राजस्व एकत्रित किया जा रहा है। इस दौरान मुक्त आयात नीति के कारण हमारा आयात बिल बेइन्तहा बढ़ा है। किन्तु सन् 2008-09 में सीमा शुल्क से प्राप्त 99879 करोड़ रुपये के मुकाबले देसी उत्पाद शुल्क से 108613 करोड़ रुपयों का राजस्व एकत्रित किया गया। सन् 2010-11 के अनुमान इसी प्रवृत्ति पर मोहर लगाते है। देसी माल खरीदने वाले साल भर में सत्रह हजार करोड़ रुपये ज्यादा सरकारी खजाने में भेजेंगे। देश के अपने उद्योगों के खिलाफ यह पक्षपात न केवल देश से रोजगार के अवसरों का निर्यात करता है बल्कि व्यापार घाटे को बढ़ता है और विदेशी पूंजी तथा भगौड़ी आवास पूंजी को आकर्षित करने वाली नीतियां अपनाने की बाध्यता को बढ़ाती है। अब तो एक-दो साल पहले यह स्थिति नजर आयी थी कि देश का आंतरिक औद्योगिक उत्पादन देश में आयातित औद्योगिक माल से कम हो चुका था। क्या यह देश के अनौद्योगीकरण की एक नयी किश्त की शुरुआत नहीं हैं?

हमने बजट में शामिल तत्वों, नीतियों और प्रावधानों की चर्चा अब तक की है। किसानों से कर्ज चुकाने पर ब्याज की दर में दो फीसदी की कमी जैसे कुछ वांछनीय और प्रशंसनीय कदमों पर उल्लास प्रकट किया जाना चाहिए। किन्तु सैकड़ों ऐसे जनहितकारी काम हैं जिनका अतापता बजट के किसी कोने में दिन में चिराग लेकर ढूंढ़ने पर भी नहीं लगेगा। वैसे कृषि के नाम पर बड़ी देसी-परदेसी कम्पनियों के पक्ष में नई सौगातों की बौछार की गयी है तथा 50 करोड़, छोटे, सीमांत किसानों की विशेष जरूरतों को नजरअंदाज किया गया है।
नवउदारवादी नीतियां
कुल मिलाकर इन नवउदारवादी नीतियों का कोई भी समर्थक यह दावा करने में समर्थ नजर नहीं आता है कि जो यह कह सके कि वृद्धि दर के लक्ष्य को प्राप्त करके, देसी-विदेशी पूंजी को चरने के लिए नए हर-भरे चारागाह देकर मुनाफा स्फीति की बेलगाम गति की ओर बढ़ाकर, अगला वित्तमंत्री अपने बजट भाषण में यह दबे स्वर में भी कह सके कि तीव्र बढ़त दर और समावेशी विकास की लघु बुनियादों के मजबूत करके हम कम से कम घटी गरीबी, बढ़ी खाद्य सुरक्षा, कम बेरोजगारी तथा कम से कम अपरिवर्तित विषमताओं और स्वास्थ्य पर्यावरण की दिशा में एक शुरूआत भर तो कर ही पाये हैं। इस साल के सीमांतक नवीन बजटीय
प्रावधान नव-उदारवाद के मृतप्रायः घोड़े को और अधिक हरी घास तथा हरे चने खिलाकर पिछले बीस सालों से मजबूत होती दुष्प्रवृत्तियों और कुविकास के चक्र को उल्टा घुमाना तो दूर रोक तक नहीं पायेंगे। क्या नक्सलवादी चुनौतियों को इन मूलभूत प्रवृत्तियों को मजबूती देकर कुछ छुटमुट प्रादेशिक स्तर तक सीमित प्रयासों से निपटा जा सकेगा? ऐसे अनेक सवाल जनता को इस बजट के निर्णयकर्ताओं और सलाहकारों से पूछने होंगे यदि भारत की जनता का विकास और जीवन जीने के अधिकार को जमीनी सच्चाई बनाना है।

कहा जाता है कि हजारों करोड़ रुपयों का आबंटन जनविकास के सामाजिक तथा कल्याणकारी कार्यक्रमों के लिये किया गया है। खासकर नवउदारवाद का समावेशी विकास से परिणय कराकर, उदाहरणार्थ, इस वर्ष के बजट में सामाजिक सेवाओं के लिये आबंटित योजना तथा योजना इतर राशि (157053 करोड़ रुपयांे), आधारभूत संरचना तथा गांवों और शहरों के गरीबों के लक्षित कार्यक्रमो की लम्बी फेहरिस्त तथा विशाल राशि का हवाला दिया जाता है। हम फिर भी यह मानते हैं कि ऐसा नवउदारवादी समावेशी विकास
अधिसंख्यक भारतवासियों की किसी भी अब तक चिरस्थाई बनी विशाल तथा कष्टकर समस्या का समाधान नहीं कर पायेगा। कुछ तथ्यों और विचारों पर नजर डालने से हमारे मत का औचित्य समझ में आ जाना चाहिए। कुल बजट खर्च करीब ग्यारह लाख करोड़ रुपये का है जो सारी राष्ट्रीय आय के करीब छठे हिस्से के करीब होता है। हमारे गैर-बराबरीमय देश में कम, अनिश्चित आमदनी वाले लोगों को जो कई आर्थिकेत्तर संख्याओं के सहारे जीते हैं, उनका अनुपात अस्सी प्रतिशत से ज्यादा है और उनकी सार्वजनिक खर्च की जरूरत भी सम्पन्न अल्पसंख्य (और आयकरों विभेदित विषमतामय) तबकों से कई गुना ज्यादा होती है। किन्तु खर्च में गरीब बहुमत का तुलनात्मक हिस्सा कम तथा शीर्षस्थ एक प्रतिशत से भी काफी कम लोगों का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष हिस्सा पूर्णमात्रा तथा तुलनात्मक दोनों तरह से बहुत ज्यादा होता है। उदारहरण के लिए लगाये गये करों से कम्पनी तथा बड़े व्यवसायों को अनेक छूटें और रियायतें दशकों से जारी है। पिछले बजट में लगाये गये करों को छोड़कर “प्रोत्साहन“ के बतौर करीब चार लाख करोड़ रुपये का कर-खर्च किया गया था। अब यह 5 लाख करोड़ हो रहा है। कम आय वाले तबकों का दशकों का बजट बमुश्किल इस खर्च के बराबर आता है। इस साल भी इस प्रक्रिया के तहत जनता के नाम पर जारी खाद्य तथा खाद सब्सिडी में कटौती की गयी है। दूसरी ओर कम्पनी कर की छूटों को हटाने की बकाया भर की गयी है और उन्हें सब्सिडी में कटौती से 5.5 गुना से ज्यादा बढ़ा दिया गया है।
सरकारी खर्च का लाभ
सरकारी खर्च का सीधा या अप्रत्यक्ष लाभ सामान तथा सेवाएं सप्लाई करने के रूप में धनी वर्ग को मिलता है। बजट भाषण में सरकारी तंत्र के नकारेपन और अकुशलता को एक भारी दिक्कत माना गया है। इसे और ज्यादा नौकरशाहीपूर्ण तरीकों से नहीं मिटाया जा सकता है। जब तक समावेशन में एक निश्चित तथा घोषित या ज्ञात काल खंड में हर भारतीय को साधिकार, सम्मानजनक मानवीय जीवन बिताने के न्यूनतम संसाधनों की पक्की गारंटी के साथ व्यवस्था नहीं की जाती है और पहले से ही समृद्ध, शीर्षस्थ तबकों के हकों में शक्ति और संसाधनों का अत्यधिक केन्द्रीकरण जारी रहता है, ये आंशिक कवरेज वाली, आंशिक कल्याण तथा संभावित क्षमता निर्माता स्कीमें राजनीतिक तिकड़मबाजी तथा भ्रष्टाचार के स्त्रोत बने रहेंगे। गरीबों से काम कराके उन्हें मजदूरी तक नहीं देने की असंख्य घटनाएं वास्तव में एक नई दास प्रथा तथा कफनचोरों की याद ताजा करते हैं। शीर्षस्थ तबकों और उनके लग्गू-भग्गू लोगों के पास निजी विवेक जो जवाबदेहविहीन मनमानी का दूसरा नाम है, का जितना बड़ा दायरा छोड़ा जायेगा, करोड़ों गरीबों को दिये गये हकों और संसाधनों की चोरी होती रहेगी। सबको पर्याप्त लाभ निश्चित अवधि में गारंटी करके इन आपराधिक अमानवीय रूझानों से मुक्ति की शुरूआत की जा सकती है। सबको लाभार्थी बनाने की गारंटी उनमें गलाकाट स्पर्धा की जगह पारस्परिक समर्थकारी एकजुटता की जड़े मजबूत करेगी। जब हम सम्पन्न लोगों को विकास प्रक्रिया का कर्ताधर्ता बनाते हैं जो शेष लोगों के स्वावलम्बन की नींव खोद देते हैं।

राजकीय दानधीरता और राजनीतिक प्रचार की भावना से पीड़ित तथाकथित विकास और कल्याण योजनाएं एक ओर तो शासन तंत्र और अर्थव्यवस्था के संचालित होते रहने की न्यूनतम जरूरतों का भाग है और दूसरी ओर लोकतांत्रिक व्यवस्था द्वारा आरोपित राजनीतिक तकाजा है। संक्षेप में आय सम्पत्ति और सत्ता के केन्द्रीकरण के साथ जनता को कुछ सीमित और कुछ लोगों को अनुकम्पा और निजीविवेक आधारित “लाभ“ तो दिया जा सके है, किन्तु अनेकों को वंचित रखकर, उन्हें संभावित लाभार्थियों की लम्बी क्यू में इंतजारत रख करके। यह किसी ऐसे विकास का आधार नहीं बन सकता है जो सामाजिक असमावेशन का उन्मूलन कर सके और भावी जनपे्ररित विकास का आधार बन सके।

सन् 2010-11 के बजट के वैचारिक आधार में सच्ची, सर्वसमावेशी, समतामय सामाजिक न्याय को कोई स्थान नहीं दिया गया है। उसका मकसद और वह भी सुदूर तथा अनिश्चित रूप से निचले बीस प्रतिशत लोगों के अन्त्योदय के द्वारा एक प्रतिशत से भी कम सुपर रईसों की सम्पत्ति में इजाफा करते हुए एक शीर्षोदयी रणनीति के द्वारा भारत की राष्ट्रीय आय को दुनिया के अन्य देशों की तुलना में ऊंचे स्तर तक ले जाना है। राष्ट्रीय आय का विशाल एबसोल्यूट आकार मुख्यतः हमारे विशाल भौतिक तथा जंकीय आकार का नतीजा है। नवउदारवादी बार-बार पैंतरे बदलते हैं, नये-नये स्वांग भरते हैं, नये-नये जुमले उछालते हैं ताकि बाजार के शीर्षस्थ अति लघु तबकों के हित को राष्ट्र हित का पर्याय बनाकर पोसा जाये और जनमत से मंजूर भी करा लिया जाये। राज्य की भूमिका घटाने के नाम पर उसे एक अतिलघु वर्ग का हथियार बना लिया गया है।

निरंतर बढ़ती हुई मात्रा में कई छद्म तथा खुले रूपों में ऐसी बजटीय तथा अन्य नीतियों को चलाते हुए हमारे शासक वर्ग ने लोकतंत्र की प्रक्रिया अपनाते हुए लोकतंत्र को एक गैर लोकतांत्रिक प्रतिफलदायक निजाम में बदल दिया है। आज चुनौती इन प्रक्रियाओं को समन्द कर उन्हें बहुमुखी, बहुमतावादी, अनेक संस्थाओं, रणनीतियों और जनउभार के बीच प्रभावी तालमेल स्थापित कर चालबाजियों भरी सामाजिक परिवर्तन को दूषित दिशाओं से हटाकर उन्हें लोकतांत्रिक सात्विक सार तत्वों से विमुखित करना है। हर बजट ऐसी चुनौतियों को नए सिरे से रेखांकित करता आ रहा है और सन् 2010-11 का बजट कोई अपवाद नहीं बल्कि उसकी अगली किश्त है। सीधे-सीधे बजट के संदर्भ में प्रगतिशील सार्वजनिक खर्च पैटर्न को प्रगतिशील कराधान तथा राजस्व प्राप्ति के अन्य तरीकों द्वारा पूरा करवाना एक घोर उपेक्षित किन्तु अति अपेक्षित और वांछित जरूरत है।

कमल नयन काबरा

Saturday 3 April, 2010

संसद में महंगाई के खिलाफ गूंज : गुरूदास दासगुप्ता का भाषण

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के गुरूदास दासगुप्ता ने लोकसभा में मूल्यवृद्धि पर बहस में भाग लेते हुए कहा कि मुख्य बात यह है कि मूल्यवृद्धि का कारण यदि खाद्यान्नों की कमी है तो यह कमी कल नहीं हुई। खाद्यान्नों की कमी लंबे अर्से से कृषि से जुड़ी रही है। मौजूदा सरकार छह सालों से सत्ता में है। इस अवधि में कमी को दूर करने तथा कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए क्या कदम उठाये गये? सत्तापक्ष के सदस्यों ने जो भाषण दिये हैं वे स्थिति की गंभीरता को प्रतिबिंबित नहीं करते।
मूल्यवृद्धि की विशेषता
दूसरी बात यह कि गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों के लिए यदि सार्वजनिक वितरण प्रणाली ने काम नहीं किया तो आप इसके लिए किसको दोषी मानते हैं? सरकार पूरे देश की है, केवल दिल्ली या कोलकाता की नही है। स्थित को सुधारने के लिए क्या किया गया? मैं केवल इतना समझ पाया हूं कि वायदा कारोबार पर चयनित ढंग से प्रतिबंध लगाया गया है, एक आर्थिक कदम के रूप में इस पर प्रतिबंध नहीं लगाया है। इसलिए मैं कहना चाहूंगा कि आपने अपना केस ठीक से नहीं रखा है। हम सभी इससे सहमत हैं कि देश के खाद्यान्नों की मूल्यस्फीति में भूचाल आया हुआ है।
शरद पवार पिछले छह साल से कृषि मंत्री हैं। डा. मनमोहन सिंह पिछले छह साल से प्रधानमंत्री और यूपीए सत्ता में है। इस अवधि में मूल्यवृद्धि रोकने के लिए क्या कदम उठाये, क्योंकि इन कदमों का कोई नतीजा नहीं निकला? ऐसा लगता है कि राष्ट्र को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है सरकार उनके प्रति संवेदनशील नहीं है।
इसलिए मूल्यवृद्धि की विशेषता क्या है। मूल्यवृद्धि की विशेषता यह है कि मोबाइल फोन सस्ता हो गया है लेकिन दाल महंगी हो गयी है। रेल यात्रा सस्ती हो गयी है लेकिन तेल महंगा हो गया है। मतलब यह कि सभी उपभोक्ता वस्तुएं जो जिंदा रहने के लिए जरूरी हैं, काफी महंगी हो गयी है। यह सब सरकार की आर्थिक नीति का नतीजा है। इस स्थिति के लिए सरकार की पूरी आर्थिक नीति जिम्मेदार है। वायदा कारोबार पर पूरी तरह रोक लगाने से किसने रोका था? हमने सभी वायदा कारोबार पर रोक लगाने की मांग की थी लेकिन सरकार ने ऐसा नहीं किया। खाद्यान्नों का निर्यात करने की इजाजत किसनेे दी। सरकार ने दी। किसने खाद्य सुरक्षा को कमजोर करने के लिए नकदी फसल को तरजीह दी? किसने खाद्यान्न भंडारों के विपरीत बड़े पैमाने पर बैंक ऋण मुहैया कराया? क्या आप मुझे बतायेंगे कि किसने नकदी फसल को तरजीह दी और खाद्यान्न भंडारों के विपरीत बैंक ऋण क्यों मुहैया कराया गया? बैंक ऋण के विपरीत खाद्यान्नों के भंडार में 5 प्रतिशत से बढ़ाकर 25 प्रतिशत की वृद्धि क्यों की गयी?
सरकार की पूरी आर्थिक नीति इसके लिए जिम्मेदार है। इसलिए मेरा आरोप है कि पर्याप्त कदम उठाये बिना मनमाना उदारीकरण मूल्यवृद्धि का कारण है।
मूल्यवृद्धि रोकने के लिए सरकार ने क्या कदम उठाये हैं? केवल यह विश्वास कि बाजार अर्थव्यवस्था से सब ठीक हो जायेगा। बाजार अर्थव्यवस्था में सरकार का विश्वास, मनमाने ढंग से उदारीकरण में उसका विश्वास, भूमण्डलीय में उसका विश्वास है जिसके चलते देश की यह हालत हो गयी है। हमने मांग की थी कि आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन किया जाये, लेकिन संशोधन नहीं किया गया। आंकड़ों की कालाबाजारी केवल भारत में ही नहीं, पूरे विश्व में सबसे बड़ा रहस्य है। मूल्यों को कैसे नियंत्रित किया जाये? केवल यही मुद्दा नहीं है। आज देश में अनाज का कारोबार सबसे मुनाफे का कारोबार है। सुषमा स्वराज ने चीनी की बात कही है। मैं पूरे अनाज कारोबार की बात कर रहा हूं। क्या आप विश्वास करेंगे कि एक साल में अनाज कारोबार में 300 प्रतिशत का मुनाफा हुआ है?ये पैसे कहां से आये? ये पैसे राष्ट्रीयकृत बैंकों से आये। ये पैसे क्यों आये? क्योंकि सरकार ने अनाज का कारोबार करने वालों के लिए राष्ट्रीयकृत बैंकों के दरवाजे खोल दिये। आम लोगों की मुसीबतें बढ़ाने के लिए जनता के पैसे का इस्तेमाल किया गया।
महंगाई और सब्सिडी
मैं कहता हूं कि बंगाल काफी दूर है। आंध्र प्रदेश में क्या हो रहा है? छत्तीसगढ़ में क्या हो रहा है? पुणे में क्या हो रहा है? समस्या यह है कि बढ़ती कीमतों की चिंता करने वाला कोई नहीं है, भुखमरी की चिन्ता करने वाला कोई नहीं है। मेरा सुझाव है कृषि के क्षेत्र में अधिकाधिक निवेश होना चाहिए। सरकार सिंचाई की सुविधा को बढ़ाए, भूमि का व्यापरीकरण बन्द हो, भूमि का गैर कृषि उद्देश्यों के लिए विपणन बंद हो , किसानों को फसल का समर्थन मूल्य मिले तथा देहातों के लिए एक विशाल सामाजिक संरचना बनायी जाये। दूसरा सरकार को सट्टेबाजी, स्टाक का बाजारीकरण, वादा कारोबार तथा अन्न व्यापार के लिए बैंकों से कर्ज को रोक देना चाहिए।
आज हम जीडीपी का 1 प्रतिशत अन्न सब्सिडी पर खर्च करते हैं। मैं मांग करता हूं कि इसके लिए 3 प्रतिशत सब्सिडी दी जाये ताकि 23.96 करोड़ लोगों को सस्ते दामों पर अन्न मिले। सरकार को देश के हक में काम करना चाहिए, जनता के हक में काम करना चाहिए। इसके लिए नीति में परिवर्तन होना चाहिए। जब तक गरीबी है, जब तक बेरोजगारी है, जब तक भुखमरी है, जब तक हरिजनों और आदिम जातियों पर अत्याचार होतें रहेंगे, माओवाद को पनपने का अवसर मिलेगा।
हम मोआवादियों द्वारा हिंसा के खिलाफ हैं। मैं यह कहना चाहता हूं कि अगर आप महंगाई नहीं रोकेंगे, भुखमरी नहीं रोकेंगे, जरूरत के अनुसार अन मुहैया नहीं कराएंगे, बेरोजगारी की समस्या हल नहीं करेंगे, यह देश बंट जाएगा, सरकार साख खो देगी, जनता का विश्वास खो देगी, जो हम नहीं चाहते हैं। (संक्षिप्त)
डी. राजा का भाषण
डी. राजा ने बहस में भाग लेते हुए मूल्यवृद्धि के लिए सरकार कोे जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने कहा कि आज देश में महंगाई सबसे ज्वलंत समस्या बनी हुई है। सभी जरूरी चीजों के मूल्यों में कई गुना वृद्धि हो गयी है। यही कारण है कि हमने मूल्यवृद्धि पर व्यापक बहस की मांग की। मैं सभी राजनीतिक दलों से अपील करता हूं कि वे बहस के दौरान लोगों की गंभीर चिंताओं को ध्यान में रखे। लोगों में गुस्सा है और निराशा की भावना है।
लोगों का कहना है कि जितना ही आप बात करते हैं उतना ही ज्यादा मूल्य बढ़ते हैं। यही निराशावाद है तथा संसद एवं संसद सदस्यों के प्रति लोगों की भावना है। हमें पूरी गंभीरता के साथ इस मुद्दे पर बहस करनी चाहिए। सरकार को इस बारे में अधिक संवेदनशील होना चाहिए। लोग सोचते हैं कि सरकार लाचार है। सरकार उपाय करने के लिए अंधेरे में हाथ-पांव चला रही है। लेकिन मैं इससे सहमत नहीं हूं। सरकार जानती है, जो सत्ता में हैं वे जानते हैं कि देश में क्या हो रहा है। लेकिन वे कुछ करना नहीं चाहते। सरकार चाहती तो मुद्रास्फीति और मूल्यवृद्धि रोकने के लिए सख्त कदम उठाती। लेकिन वह कारवाई करना नहीं चाहती। क्यों? क्योंकि सरकार, यूपीए 2 विकास के नवउदारवादी रास्ते के प्रति पूरी तरह प्रतिबद्ध है। सरकार मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था की नीति पर चल रही है। सरकार बड़े औद्योगिक घरानों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों को उदार पूर्वक रियायतें देने की नीति पर चल रही है। पहले सरकार कहा करती थी कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल, खाद्यान्नों आदि के मूल्य बढ़ गये हैं इसलिए भारत में भी मूल्य बढ़ेंगे। लेकिन मुद्रास्फीति की दर में काफी गिरावट आ गयी, यहां तक कि शून्य पर पहुंच गयी फिर भी कीमतें कम नहीं हुई। इसका आर्थिक तर्क क्या है? सरकार के पास इसका स्पष्टीकरण क्या है? सरकार ने मानसून एवं कम वर्षा की बात कही। लेकिन देश के अनेक हिस्सों में भारी वर्षा हुई, बाढ़ भी आयी। सरकार को इन सबका पूर्वानुमान होना चाहिए था। अब क्या हो रहा है। वे एक दूसरे पर दोषारोपण कर रहे हैं। कृषि मंत्री शरद पवार के कुछ बयानों से देश में भय और आशंका की स्थिति पैदा हुई।
हमारे सुझाव
कुछ लोग सोचते हैं कि जब हम सरकार की आलोचना करते हैं तो कोई सुझाव नहीं देते। अवश्य की हमने सुझाव दिया है और देते रहे हैं। जब हमने यूपीए-1 सरकार का समर्थन किया था तो हमने सरकार को काफी सार्थक सुझाव दिये थे मुद्रास्फीति और मूल्यवृद्धि रोकने के लिए। हमने सरकार से तभी कहा था आज भी कह रहा हूं कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली सबके लिए लागू क्यों नहीं करते? गरीबी रेखा के नीचे (बीपीएल) और गरीबी रेखा के ऊपर (एपीएल) के बीच क्यों विभाजन है जो काफी त्रुटिपूर्ण है और उसमें संशोधन करने की जरूरत है तथा सार्वजनिक वितरण प्रणाली का विस्तार करके उसे मजबूत बनाने की जरूरत है। लेकिन सरकार का दृष्टिकोण भिन्न है और वह धीरे-धीरे इसे समाप्त करना चाहती है। इसी प्रकार हम सरकार से आवश्यक वस्तु अधिनियम को कारगर एवं मजबूत बनाने की मांग करते हैं लेकिन सरकार ऐसा क्यों नहीं कर रही है? देश में आज जो स्थिति पैदा हुई है उसके लिए सरकार की नीति जिम्मेदार है। सरकार को गरीबों को नहीं, बड़े उद्योगपतियों एवं कारपोरेट घरानों की चिंता है। इसलिए वह नवउदारवाद की नीति पर चल रही है ताकि बड़े उद्योगपतियों और कारपोरेट घरानों को खुश रखा जा सके।
केवल कृषि उत्पादन बढ़ाने और आत्मनिर्भरता की बात करना काफी नहीं है, सरकार को सही मायने में ठोस कदम उठाना होगा। यदि सरकार ठोस कदम नहीं उठायेगी तो यहां बहस करना बेकार है। आज लोग क्या सोचते हैं, संसद एवं संसद सदस्यों के प्रति उनकी क्या सोच है, क्या भावना है? आमतौर पर वे यही कहते हैं कि संसद में चाहे जितनी बहस हो ले, संसद सदस्य जितना चिल्ला लें, कीमतें कम नहीं होगी, कीमतें ऐसी ही बढ़ती रहेंगी। इस तरह की सोच निराश को जन्म देती है जो खतरनाक है, लोकतंत्र के लिए घातक है। चूंकि हम लोकतंत्र में विश्वास करते हैं तो हम सरकार से कहना चाहते हैं कि वह कीमतें रोकने के लिए ठोस कदम उठाये। लोग यही चाहते हंै। (संक्षिप्त)

Thursday 1 April, 2010

विद्युत वितरण के निजीकरण का विरोध

लखनऊ 31 मार्च। आगरा में विद्युत वितरण के कार्य को बहुराष्ट्रीय कम्पनी ‘टोरेन्ट’ को सौंपे जाने की भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव मंडल ने तीव्र निन्दा करते हुए रोष जाहिर किया है। भाकपा ने पूर्व विद्युत बोर्ड की बेशकीमती परिसम्पत्तियों को औने-पौने दाम पर सरमायेदारों को सौंपने के लिए 20 साल पूर्व शुरू की गयी निजीकरण की प्रक्रिया की ओर एक बड़ा खतरनाक कदम बताया है।
यहां जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में भाकपा ने बिजली बोर्ड के निजीकरण की प्रक्रिया को जनविरोधी बताते हुए कहा है कि 16 साल पहले ग्रेटर नोएडा में इसी तरह का किया गया प्रयोग असफल रहा था और करोड़ों रूपये का चूना बिजली बोर्ड को लगा था। प्रदेश सरकार ने इससे कोई सबक नहीं लिया है।
भाकपा ने इस पूरी प्रक्रिया में भ्रष्टाचार व्याप्त होने की ओर इशारा करते हुए कहा है कि पावर कारपोरेशन ने औसत बिजली विक्रय मूल्य आगरा में 4.00 रूपये प्रति यूनिट तथा कानपुर में 4.25 रूपये प्रति यूनिट होने के तथ्य को टेन्डर फार्म में गलत तरीके से घटा कर क्रमशः 2.62 रूपये तथा 3.55 रूपये प्रति यूनिट लिखा गया जबकि टोरेन्ट कम्पनी से हुए समझौते के अनुसार यह कम्पनी केवल 1.54 रूपये तथा 2.00 रूपये प्रति यूनिट ही पावर कारपोरेशन को अदा करेगी। भाकपा ने कहा है कि इस गड़बड़ घोटाले से हजारों करोड़ रूपये का नुकसान पावर कारपोरेशन को होगा वहीं दूसरी ओर बिजली उपभोक्ताओं को अपनी जेबों को भी ढीला करना होगा।
भाकपा ने बिजली कर्मचारियों से कार्य बहिष्कार के बजाय सीधी कार्यवाही का अनुरोध करते हुए कहा है कि निजीकरण के खिलाफ यह लड़ाई केवल बिजली कर्मचारियों के भरोसे नहीं छोड़ी जा सकती है। भाकपा ने जनता के व्यापक तबकों से इसका सड़कों पर विरोध करने का आह्वान किया है।


(शमशेर बहादुर सिंह)
कार्यालय सचिव

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