साठ और सत्तर के दशक में भारतीय संसद में हीरेन मुखर्जी, नाथ पाई,
ज्योतिर्मय बसु और अटल बिहारी वाजपेई के साथ-साथ जिस वक्ता की सबसे ज्यादा
धाक होती थी वे थे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के भूपेश गुप्त।
एक बार मशहूर रंगमंच आलोचक केनेथ टिनेन ने कहा था, अंग्रेज कंजूसों की तरह लफ्जों की जमाखोरी करते हैं, जबकि आयरिश एक शराबी की तरह उन्हें बाहर निकाल देते हैं। भूपेश गुप्त ने अपने जीवन में कभी शराब नहीं पी, लेकिन राज्यसभा में जब भी वे बोलने के लिए खड़े हुए, उनके मुँह से लफ्ज एक आयरिश मैन की तरह ही निकले। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव अतुल कुमार अंजान की भूपेश गुप्त से पहली मुलाकात तब हुई जब वे सिर्फ 16-17 साल के हुआ करते थे।
अंजान बताते हैं, कि मैं आल इंडिया स्टूडेंट फेडेरेशन के एक प्रदर्शन में दिल्ली आया था 1972 में, बोट क्लब पर हुए उस प्रदर्शन में मैंने भूपेश गुप्त को पहली बार बोलते हुए सुना। वहीं मैंने मधु लिमये, अमृतपद डाँगे और नाथ पाईजी को सुना। मैं इन सबसे प्रभावित हुआ, लेकिन सबसे अधिक प्रभावित हुआ भूपेश गुप्त की सिंहगर्जना से, जिसको सुनने से हृदय, शरीर और रोम में कंपन होता था।
अंजान आगे बताते हैं, क्या शब्द थे उनके! क्या था उनका उच्चारण! उस जमाने में उतनी अंग्रेजी नहीं जानता था लेकिन तब भी लगता था कि वे हमारी ही बात कर रहे हैं। जब वे उठकर जाने लगे तो मैं उनके पास जा कर खड़ा हो गया। उनसे बातचीत की, हाथ मिलाया। उन्होंने अंग्रेजी में पूछा कहाँ से? मैंने कहा लखनऊ से, ये मेरी उनकी पहली मुलाकात थी।
बाद में तो अतुल अंजान और भूपेश गुप्त का काफी साथ रहा। जब भी वे लखनऊ से दिल्ली आते तो, उन्हीं के घर ठहरते थे। सुबह साढ़े तीन बजे उठ जाते थे भूपेश गुप्त। तभी अखबार वाला धड़ाप की आवाज के साथ अखबार का बंडल फेंक जाता था।
दैनिक कार्य से निवृत्त होने के बाद वे चार बजे से अखबार पढ़ना शुरू कर देते थे। पाँच बजे से वे राज्यसभा में ध्यानाकर्षण प्रस्ताव के लिए तैयारी शुरू कर देते थे। एक ही उंगली से अपने पुराने टाइप राइटर पर टाइप करना शुरू कर देते थे। सात साढ़े सात बजे तक उनका काम रोको प्रस्ताव और जीरो आवर में कौन सा सवाल पूछेंगे-इन सब की तैयारी हो जाती थी।
आठ सवा आठ बजे राज्यसभा के सचिवालय में उनका प्रश्न पहुँच जाता था और ठीक दस बजे वे संसद पहुँच जाते थे। कुल मिलाकर उन्होंने राज्यसभा में 1500 से 2000 के बीच भाषण दिए हैं।
जब भूपेश बोलते थे तो सभापति तक के बूते की बात नहीं होती थी कि वे उनके भाषण में व्यवधान डालेें या उनसे कहें, योर टाइम इज अप मिस्टर भूपेश गुप्त। जब वे खड़े होते थे तो लोग अपनी कुर्सी से चिपक कर बैठ जाते थे। सुमित चक्रवर्ती मेनस्ट्रीम पत्रिका के संपादक और जाने माने पत्रकार निखिल चक्रवर्ती के बेटे हैं। वे बताते हैं, अबू अब्राहम ने एक बार लिखा था कि जब वे राज्यसभा में पहली बार एक सदस्य की हैसियत से घुसे तो उन्होंने देखा कि भूपेश गुप्त सदन में कोई मामला उठा रहे थे। उनका भाषण कुछ लंबा हो चला था। सभापति ने उनसे गुजारिश की कि मुद्दे पर आइए।
भूपेश ने जवाब दिया मैं धीरे-धीरे वही कर रहा हूँ। एक मोती से माला नहीं बन जाती। उनको एक-एक कर पिरोने से ही माला बनती है। उनकी एक और अदा होती थी कि अपना भाषण देने के बाद वे अपना हियरिंग एड उतार देते थे। लोग मजाक में कहते थे कि वे ऐसा इसलिए करते थे ताकि उनके भाषण की आलोचना उनके कानों तक न पहुँच सके। एक बार नेहरू के भाषण के दौरान ही उन्होंने अपना हियरिंग एड उतार दिया था। जब नेहरू ने कहा था कि हम में से बहुतों को यह सौभाग्य नहीं प्राप्त है कि हम वह न सुनें जो हम सुनना नहीं चाहते।
हिरण्मय कार्लेकर हिंदुस्तान टाइम्स के संपादक रह चुके हैं। उन्होंने भूपेश गुप्त के राजनैतिक जीवन को बहुत नजदीक से देखा है। वे बताते हैं, अगर उनसे बात करनी होती थी तो आपको बहुत जोर से बोलना पड़ता था, क्योंकि वे ऊँचा सुनते थे। दूसरा वे खुले इंसान थे। जो कुछ कहना होता था साफ बोलते थे। तीसरे विवादास्पद बात करने में उन्हें बहुत मजा आता था। एक बात करके वे छोड़ देते थे और फिर देखते थे कि उसका उन लोगों पर क्या असर पड़ रहा है जिनके लिए वह बात कही गई थी।
भूपेश शराब को हाथ नहीं लगाते थे। सुमित चक्रवर्ती एक किस्सा सुनाते हैं, एक बार नव वर्ष के मौके पर एक महिला ने उनसे कहा कि आज तो कम से कम आप शैरी पी सकते हैं। भूपेश ने जोर से ठहाका लगाते हुए कहा था कि तुम मुझसे वह काम करने के लिए कह रही हो जो मुझसे माओत्से तुंग और निकिता रुशचेव भी नहीं करवा पाए। उन्होंने कितनी बार मुझसे शराब पीने का इसरार किया लेकिन मैंने कभी उनकी बात नहीं मानी।
मेनस्ट्रीम के पूर्व संपादक निखिल चक्रवर्ती भूपेश गुप्त को उनके लंदन के दिनों से जानते थे। उनकी मौत के बाद उन्होंने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा था, भूपेश संसदीय बहस के लिए बहुत तैयारी करते थे। वे अपने निजी सचिव खुद थे। उनका कमरा हमेशा बेतरतीब रहता था लेकिन वह मेज जिस पर वे काम करते थे, हमेशा साफ सुथरी होती थी। उस जमाने में संसद में ध्यान आकर्षित करने के कई तरीके हुआ करते थे। एक था राजनारायण स्टाइल जहाँ आप मसखरापन कर सांसदों का ध्यान खींचते थे और दूसरा था संजय गांधी स्टाइल जहाँ आप ताकत और ऊँची आवाज के जोर पर अपनी बात मनवाते थे। भूपेश इन दोनों से अलग थे। उन्हें इसलिए सुना जाता था क्योंकि वे हमेशा नाइंसाफी और असमानता के खिलाफ आवाज उठाते थे। भूपेश गुप्त की अकेली संपत्ति उनकी किताबें थी। उनके पास बहुत कम कपड़े होते थे। अगर कोई उन्हें कोई कपड़ा देता भी तो वे उसे किसी जरूरतमंद को बाँट देते थे। कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्व नेता मोहित सेन उनके बहुत करीबी थे।
उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘द ट्रैवलर एंड द रोड’ में लिखा है, जब वे मरे तो उनके बैंक अकाउंट में बहुत कम पैसे थे। उनके पास किताबों, नोटबुक्स और बहुत मामूली वार्डरोब के अलावा कुछ भी नहीं था। मुझे वे बहुत पसंद करते थे और अक्सर हम उनके फिरोज शाह रोड वाले घर से बंगाली मार्केट पैदल जाया करते थे जहाँ वे गोलगप्पे और मिठाइयाँ खाते थे। तीस के दशक से ही वे इंदिरा गांधी से बहुत जुड़े हुए थे और उनके और फिरोज गाँधी के बीच संदेशवाहक का काम करते थे, लेकिन 1977 के बाद से वे उनके सख्त खिलाफ हो गए थे, हालाँकि उन्होंने इमरजेंसी का समर्थन किया था। उसके बाद वे उनसे निजी तौर पर कभी नहीं मिले। भूपेश गुप्त और इंदिरा गांधी की दोस्ती के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है। इंदिरा गांधी, उनके होने वाले पति फिरोज गांधी और भूपेश गुप्त ब्रिटेन से एक ही पानी के जहाज से भारत वापस लौटे थे। इंदिरा गांधी की नजदीकी दोस्त पुपुल जयकर ने उन पर लिखी जीवनी में लिखा है, जब इंदिरा गांधी फिरोज गाँधी से शादी के मुद्दे पर अपने पिता जवाहरलाल नेहरू को नहीं मना पाईं तो वे और फिरोज, कम्युनिस्ट नेता और अपने बहुत अच्छे दोस्त भूपेश गुप्त के पास गए। जब भूपेश ने यह सुना तो वे फिरोज की तरफ मुड़ कर बहुत गंभीरता से बोले क्या तुम वफादार रह पाओगे? फिरोज जोर से हँसे और घुटनों के बल बैठ कर बोले, क्या तुम चाहते हो कि मैं वफादारी का प्रण लूँ? भूपेश गुप्ता ने फिरोज गांधी को कोई जवाब नहीं दिया, बल्कि इंदिरा गांधी की तरफ मुड़ कर पूछा, क्या तुम वास्तव में फिरोज से शादी करना चाहती हो? उनको पता था कि इंदिरा जिद्दी है और उन्हें कोई ताज्जुब नहीं हुआ जब इंदिरा ने कहा कि उनका यही इरादा है। भूपेश ने तब दोनों से कहा कि वे महात्मा गांधी से सलाह लें। इंदिरा गाँधी से निकटता होने के बावजूद दोस्ती कभी भी उनके राजनैतिक विचारों के आड़े नहीं आई। वक्त का तकाजा हुआ तो उन्होंने इंदिरा गांधी पर राजनैतिक हमलों से परहेज नहीं किया।
अतुल कुमार अंजान बताते हैं, इंदिरा गांधी के साथ उनके संबंध नीतियों के सवाल पर कठोर होते थे। लंदन के अध्ययन काल में दोनों के संबंधों के बीच बहुत जीवंतता और आत्मीयता थी। एक बार मैं उनके निवास स्थान से संसद भवन पैदल जा रहा था। अचानक उनके सामने एक एंबेसडर कार आ कर रुकी। शीशा उतार कर एक महिला बोल रही थी भूपेश... भूपेश, मैंने देखा वह प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थीं। उन्होंने अपनी कार का दरवाजा खोला और उनसे अपनी कार में बैठने का आग्रह करने लगीं। लेकिन भूपेश कार में बैठने में झिझक रहे थे। अंततः वे कार में नहीं बैठे। तब मुझे लगा कि यह सिर्फ एक अद्वितीय सांसद और प्रधानमंत्री के बीच का मामला नहीं है, बल्कि यह बहुत गहरा आत्मीय संबंध है। जब 1980 में अचानक इंदिरा गांधी के छोटे बेटे संजय गांधी का एक हवाई दुर्घटना में निधन हो गया, तो घोर राजनैतिक विरोधी होते हुए भी भूपेश गुप्त ने संजय गांधी को जिस तरह की भावभीनी श्रद्धांजलि दी, वैसी शायद किसी ने भी नहीं दी। भूपेश गुप्त बोले, कई मौके ऐसे आते हैं जब नियमों को ताक पर रख दिया जाता है। अगर नियमों को ताक पर नहीं रखा गया होता तो 23 जून को हुई दुर्घटना नहीं हुई होती, तो प्रधानमंत्री के बेटे, सत्ताधारी पार्टी के महासचिव और 25 सालों तक मेरे दोस्त रहे फिरोज गांधी के छोटे बेटे और अगर मुझ पर चापलूसी का इल्जाम न लगाया जाए, तो मेरी दोस्त इंदिरा गांधी के बेटे के प्राण नहीं जाते। मैं भरे दिल से यह सब कह रहा हूँ। 1981 में जब भूपेश गुप्त का निधन हुआ और उनके पार्थिव शरीर को अजय भवन लाया गया, तो इंदिरा गांधी स्वयं उन्हें श्रद्धांजलि देने कम्युनिस्ट पार्टी के मुख्यालय अजय भवन पहुँचीं। उस समय अतुल अंजान भी अजय भवन में मौजूद थे। अतुल बताते हैं, मैंने देखा कि इंदिरा जी आईं थीं। एकदम श्वेत परिधान में थीं...एकदम सफेद। काला चश्मा लगाए हुए थीं। जब वे भूपेश के पार्थिव शरीर के पास आईं तो बहुत देर तक खड़ी रहीं। उनका शरीर शीशे के कास्केड में रखा गया था, जिसमें उनका चेहरा दिखाई दे रहा था। वे अपनी लंबी गर्दन निकाल कर बहुत गौर से भूपेश के चेहरे को देखती रहीं। मैं उनकी बगल में खड़ा था। मैंने देखा कि काले चश्मे के नीचे से टप-टप आँसू बह रहे थे।
एक बार मशहूर रंगमंच आलोचक केनेथ टिनेन ने कहा था, अंग्रेज कंजूसों की तरह लफ्जों की जमाखोरी करते हैं, जबकि आयरिश एक शराबी की तरह उन्हें बाहर निकाल देते हैं। भूपेश गुप्त ने अपने जीवन में कभी शराब नहीं पी, लेकिन राज्यसभा में जब भी वे बोलने के लिए खड़े हुए, उनके मुँह से लफ्ज एक आयरिश मैन की तरह ही निकले। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव अतुल कुमार अंजान की भूपेश गुप्त से पहली मुलाकात तब हुई जब वे सिर्फ 16-17 साल के हुआ करते थे।
अंजान बताते हैं, कि मैं आल इंडिया स्टूडेंट फेडेरेशन के एक प्रदर्शन में दिल्ली आया था 1972 में, बोट क्लब पर हुए उस प्रदर्शन में मैंने भूपेश गुप्त को पहली बार बोलते हुए सुना। वहीं मैंने मधु लिमये, अमृतपद डाँगे और नाथ पाईजी को सुना। मैं इन सबसे प्रभावित हुआ, लेकिन सबसे अधिक प्रभावित हुआ भूपेश गुप्त की सिंहगर्जना से, जिसको सुनने से हृदय, शरीर और रोम में कंपन होता था।
अंजान आगे बताते हैं, क्या शब्द थे उनके! क्या था उनका उच्चारण! उस जमाने में उतनी अंग्रेजी नहीं जानता था लेकिन तब भी लगता था कि वे हमारी ही बात कर रहे हैं। जब वे उठकर जाने लगे तो मैं उनके पास जा कर खड़ा हो गया। उनसे बातचीत की, हाथ मिलाया। उन्होंने अंग्रेजी में पूछा कहाँ से? मैंने कहा लखनऊ से, ये मेरी उनकी पहली मुलाकात थी।
बाद में तो अतुल अंजान और भूपेश गुप्त का काफी साथ रहा। जब भी वे लखनऊ से दिल्ली आते तो, उन्हीं के घर ठहरते थे। सुबह साढ़े तीन बजे उठ जाते थे भूपेश गुप्त। तभी अखबार वाला धड़ाप की आवाज के साथ अखबार का बंडल फेंक जाता था।
दैनिक कार्य से निवृत्त होने के बाद वे चार बजे से अखबार पढ़ना शुरू कर देते थे। पाँच बजे से वे राज्यसभा में ध्यानाकर्षण प्रस्ताव के लिए तैयारी शुरू कर देते थे। एक ही उंगली से अपने पुराने टाइप राइटर पर टाइप करना शुरू कर देते थे। सात साढ़े सात बजे तक उनका काम रोको प्रस्ताव और जीरो आवर में कौन सा सवाल पूछेंगे-इन सब की तैयारी हो जाती थी।
आठ सवा आठ बजे राज्यसभा के सचिवालय में उनका प्रश्न पहुँच जाता था और ठीक दस बजे वे संसद पहुँच जाते थे। कुल मिलाकर उन्होंने राज्यसभा में 1500 से 2000 के बीच भाषण दिए हैं।
जब भूपेश बोलते थे तो सभापति तक के बूते की बात नहीं होती थी कि वे उनके भाषण में व्यवधान डालेें या उनसे कहें, योर टाइम इज अप मिस्टर भूपेश गुप्त। जब वे खड़े होते थे तो लोग अपनी कुर्सी से चिपक कर बैठ जाते थे। सुमित चक्रवर्ती मेनस्ट्रीम पत्रिका के संपादक और जाने माने पत्रकार निखिल चक्रवर्ती के बेटे हैं। वे बताते हैं, अबू अब्राहम ने एक बार लिखा था कि जब वे राज्यसभा में पहली बार एक सदस्य की हैसियत से घुसे तो उन्होंने देखा कि भूपेश गुप्त सदन में कोई मामला उठा रहे थे। उनका भाषण कुछ लंबा हो चला था। सभापति ने उनसे गुजारिश की कि मुद्दे पर आइए।
भूपेश ने जवाब दिया मैं धीरे-धीरे वही कर रहा हूँ। एक मोती से माला नहीं बन जाती। उनको एक-एक कर पिरोने से ही माला बनती है। उनकी एक और अदा होती थी कि अपना भाषण देने के बाद वे अपना हियरिंग एड उतार देते थे। लोग मजाक में कहते थे कि वे ऐसा इसलिए करते थे ताकि उनके भाषण की आलोचना उनके कानों तक न पहुँच सके। एक बार नेहरू के भाषण के दौरान ही उन्होंने अपना हियरिंग एड उतार दिया था। जब नेहरू ने कहा था कि हम में से बहुतों को यह सौभाग्य नहीं प्राप्त है कि हम वह न सुनें जो हम सुनना नहीं चाहते।
हिरण्मय कार्लेकर हिंदुस्तान टाइम्स के संपादक रह चुके हैं। उन्होंने भूपेश गुप्त के राजनैतिक जीवन को बहुत नजदीक से देखा है। वे बताते हैं, अगर उनसे बात करनी होती थी तो आपको बहुत जोर से बोलना पड़ता था, क्योंकि वे ऊँचा सुनते थे। दूसरा वे खुले इंसान थे। जो कुछ कहना होता था साफ बोलते थे। तीसरे विवादास्पद बात करने में उन्हें बहुत मजा आता था। एक बात करके वे छोड़ देते थे और फिर देखते थे कि उसका उन लोगों पर क्या असर पड़ रहा है जिनके लिए वह बात कही गई थी।
भूपेश शराब को हाथ नहीं लगाते थे। सुमित चक्रवर्ती एक किस्सा सुनाते हैं, एक बार नव वर्ष के मौके पर एक महिला ने उनसे कहा कि आज तो कम से कम आप शैरी पी सकते हैं। भूपेश ने जोर से ठहाका लगाते हुए कहा था कि तुम मुझसे वह काम करने के लिए कह रही हो जो मुझसे माओत्से तुंग और निकिता रुशचेव भी नहीं करवा पाए। उन्होंने कितनी बार मुझसे शराब पीने का इसरार किया लेकिन मैंने कभी उनकी बात नहीं मानी।
मेनस्ट्रीम के पूर्व संपादक निखिल चक्रवर्ती भूपेश गुप्त को उनके लंदन के दिनों से जानते थे। उनकी मौत के बाद उन्होंने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा था, भूपेश संसदीय बहस के लिए बहुत तैयारी करते थे। वे अपने निजी सचिव खुद थे। उनका कमरा हमेशा बेतरतीब रहता था लेकिन वह मेज जिस पर वे काम करते थे, हमेशा साफ सुथरी होती थी। उस जमाने में संसद में ध्यान आकर्षित करने के कई तरीके हुआ करते थे। एक था राजनारायण स्टाइल जहाँ आप मसखरापन कर सांसदों का ध्यान खींचते थे और दूसरा था संजय गांधी स्टाइल जहाँ आप ताकत और ऊँची आवाज के जोर पर अपनी बात मनवाते थे। भूपेश इन दोनों से अलग थे। उन्हें इसलिए सुना जाता था क्योंकि वे हमेशा नाइंसाफी और असमानता के खिलाफ आवाज उठाते थे। भूपेश गुप्त की अकेली संपत्ति उनकी किताबें थी। उनके पास बहुत कम कपड़े होते थे। अगर कोई उन्हें कोई कपड़ा देता भी तो वे उसे किसी जरूरतमंद को बाँट देते थे। कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्व नेता मोहित सेन उनके बहुत करीबी थे।
उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘द ट्रैवलर एंड द रोड’ में लिखा है, जब वे मरे तो उनके बैंक अकाउंट में बहुत कम पैसे थे। उनके पास किताबों, नोटबुक्स और बहुत मामूली वार्डरोब के अलावा कुछ भी नहीं था। मुझे वे बहुत पसंद करते थे और अक्सर हम उनके फिरोज शाह रोड वाले घर से बंगाली मार्केट पैदल जाया करते थे जहाँ वे गोलगप्पे और मिठाइयाँ खाते थे। तीस के दशक से ही वे इंदिरा गांधी से बहुत जुड़े हुए थे और उनके और फिरोज गाँधी के बीच संदेशवाहक का काम करते थे, लेकिन 1977 के बाद से वे उनके सख्त खिलाफ हो गए थे, हालाँकि उन्होंने इमरजेंसी का समर्थन किया था। उसके बाद वे उनसे निजी तौर पर कभी नहीं मिले। भूपेश गुप्त और इंदिरा गांधी की दोस्ती के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है। इंदिरा गांधी, उनके होने वाले पति फिरोज गांधी और भूपेश गुप्त ब्रिटेन से एक ही पानी के जहाज से भारत वापस लौटे थे। इंदिरा गांधी की नजदीकी दोस्त पुपुल जयकर ने उन पर लिखी जीवनी में लिखा है, जब इंदिरा गांधी फिरोज गाँधी से शादी के मुद्दे पर अपने पिता जवाहरलाल नेहरू को नहीं मना पाईं तो वे और फिरोज, कम्युनिस्ट नेता और अपने बहुत अच्छे दोस्त भूपेश गुप्त के पास गए। जब भूपेश ने यह सुना तो वे फिरोज की तरफ मुड़ कर बहुत गंभीरता से बोले क्या तुम वफादार रह पाओगे? फिरोज जोर से हँसे और घुटनों के बल बैठ कर बोले, क्या तुम चाहते हो कि मैं वफादारी का प्रण लूँ? भूपेश गुप्ता ने फिरोज गांधी को कोई जवाब नहीं दिया, बल्कि इंदिरा गांधी की तरफ मुड़ कर पूछा, क्या तुम वास्तव में फिरोज से शादी करना चाहती हो? उनको पता था कि इंदिरा जिद्दी है और उन्हें कोई ताज्जुब नहीं हुआ जब इंदिरा ने कहा कि उनका यही इरादा है। भूपेश ने तब दोनों से कहा कि वे महात्मा गांधी से सलाह लें। इंदिरा गाँधी से निकटता होने के बावजूद दोस्ती कभी भी उनके राजनैतिक विचारों के आड़े नहीं आई। वक्त का तकाजा हुआ तो उन्होंने इंदिरा गांधी पर राजनैतिक हमलों से परहेज नहीं किया।
अतुल कुमार अंजान बताते हैं, इंदिरा गांधी के साथ उनके संबंध नीतियों के सवाल पर कठोर होते थे। लंदन के अध्ययन काल में दोनों के संबंधों के बीच बहुत जीवंतता और आत्मीयता थी। एक बार मैं उनके निवास स्थान से संसद भवन पैदल जा रहा था। अचानक उनके सामने एक एंबेसडर कार आ कर रुकी। शीशा उतार कर एक महिला बोल रही थी भूपेश... भूपेश, मैंने देखा वह प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थीं। उन्होंने अपनी कार का दरवाजा खोला और उनसे अपनी कार में बैठने का आग्रह करने लगीं। लेकिन भूपेश कार में बैठने में झिझक रहे थे। अंततः वे कार में नहीं बैठे। तब मुझे लगा कि यह सिर्फ एक अद्वितीय सांसद और प्रधानमंत्री के बीच का मामला नहीं है, बल्कि यह बहुत गहरा आत्मीय संबंध है। जब 1980 में अचानक इंदिरा गांधी के छोटे बेटे संजय गांधी का एक हवाई दुर्घटना में निधन हो गया, तो घोर राजनैतिक विरोधी होते हुए भी भूपेश गुप्त ने संजय गांधी को जिस तरह की भावभीनी श्रद्धांजलि दी, वैसी शायद किसी ने भी नहीं दी। भूपेश गुप्त बोले, कई मौके ऐसे आते हैं जब नियमों को ताक पर रख दिया जाता है। अगर नियमों को ताक पर नहीं रखा गया होता तो 23 जून को हुई दुर्घटना नहीं हुई होती, तो प्रधानमंत्री के बेटे, सत्ताधारी पार्टी के महासचिव और 25 सालों तक मेरे दोस्त रहे फिरोज गांधी के छोटे बेटे और अगर मुझ पर चापलूसी का इल्जाम न लगाया जाए, तो मेरी दोस्त इंदिरा गांधी के बेटे के प्राण नहीं जाते। मैं भरे दिल से यह सब कह रहा हूँ। 1981 में जब भूपेश गुप्त का निधन हुआ और उनके पार्थिव शरीर को अजय भवन लाया गया, तो इंदिरा गांधी स्वयं उन्हें श्रद्धांजलि देने कम्युनिस्ट पार्टी के मुख्यालय अजय भवन पहुँचीं। उस समय अतुल अंजान भी अजय भवन में मौजूद थे। अतुल बताते हैं, मैंने देखा कि इंदिरा जी आईं थीं। एकदम श्वेत परिधान में थीं...एकदम सफेद। काला चश्मा लगाए हुए थीं। जब वे भूपेश के पार्थिव शरीर के पास आईं तो बहुत देर तक खड़ी रहीं। उनका शरीर शीशे के कास्केड में रखा गया था, जिसमें उनका चेहरा दिखाई दे रहा था। वे अपनी लंबी गर्दन निकाल कर बहुत गौर से भूपेश के चेहरे को देखती रहीं। मैं उनकी बगल में खड़ा था। मैंने देखा कि काले चश्मे के नीचे से टप-टप आँसू बह रहे थे।
-रेहान फजल
बीबीसी संवाददाता
बीबीसी संवाददाता
लोकसंघर्ष पत्रिका अप्रैल 2018 विशेषांक में प्रकाशित
0 Comments:
Post a Comment