यह सपना अधूरा है अब तक पूँजीवादी व्यवस्था का खात्मा चाहते थे कार्ल मार्क्स
कार्ल मार्क्स का नाम आते ही एक ऐसे व्यक्तित्व की छवि उभरती है, जिसने
पूरी दुनिया को वैज्ञानिक समाजवाद का दर्शन दिया। 5 मई सन 1818 को कार्ल
मार्क्स का जन्म जर्मनी के एक यहूदी परिवार में हुआ था। इनके परिवार ने
ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था लेकिन जब कार्ल मार्क्स बड़े हुए तब उन्होंने
ईसाई धर्म को त्याग कर नास्तिकता की राह अपनाई और पूरे जीवन भर अपने
अर्थशास्त्रीय ज्ञान के आधार पर समाजवाद की स्थापना में लगे रहे। उनका
आर्थिक-राजनैतिक चिंतन आज भी महत्वपूर्ण है और दुनिया भर के मजदूरों को
एकजुट करने का उनका सपना पूरी मानवता के लिए महत्व रखता है। मार्क्स के
जीवन को हम देखें, तो आश्चर्य होता है कि पूरी दुनिया में पूँजीवाद के
खिलाफ संघर्ष करने वाले ऐसे दार्शनिक को घनघोर आर्थिक मुसीबतों का सामना
करना पड़ा। 14 मार्च 1883 को लंदन में कार्ल मार्क्स का निधन हुआ।
कार्ल मार्क्स ने ‘दास कैपिटल’ जैसी कालजयी कृति की रचना की। कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणा पत्र भी कार्ल मार्क्स ने तैयार किया था। इस घोषणा पत्र को साम्यवादी घोषणा पत्र के रूप में याद किया जाता है, जिसमें पूँजीवादी विसंगतियों के बारे में बताते हुए सर्वहारा लोगों की सत्ता कैसे स्थापित हो, इस पर गंभीर विमर्श किया गया है। कार्ल मार्क्स ने यह घोषणा पत्र फ्रेडरिक एंगेल्स के साथ तैयार किया था। 1848 में पहली बार यह घोषणा पत्र जर्मन भाषा में ही तैयार हुआ। बाद में तो दुनिया के अनेक देशों की भाषाओं में इसका अनुवाद भी हुआ। मार्क्स का चिंतन आज भी पूरी दुनिया में संघर्षशील बिरादरी को लगातार हौसला प्रदान करता है। समतावादी समाज की रचना की दिशा में मार्क्स का घोषणा पत्र काबिलेगौर है। दुर्भाग्य है कि ऐसे समय में जबकि साम्यवाद पूरी दुनिया का आधार बन सकता था, तब उसकी जगह पूँजीवादी व्यवस्था ने ले ली है। यही कारण है कि पूँजीवादी व्यवस्था ने संघर्षशील मनुष्य के दमन की परिपाटी शुरू कर दी है तथा वर्ग संघर्ष की स्थिति निरंतर बनी हुई है। गरीब और गरीब होता जा रहा है, पूँजीपति और अधिकतम सम्पन्न बनता जा रहा है। विषमता की खाई बढ़ रही है और समाज में विद्वेष भी फैलता जा रहा है। जिसके कारण हिंसा भी बढ़ी है। ऐसी विषम स्थिति के बीच जब हम कार्ल मार्क्स के चिंतन को देखते हैं तो समझ में आता है कि दुनिया को इसी रास्ते से आगे बढ़ना था, लेकिन हर महान सपना बहुत जल्दी तार-तार हो जाता है। वैज्ञानिक समाजवाद भी
धीरे-धीरे हाशिए पर चला गया।
मार्क्स ने अपने घोषणा पत्र में यही चिंता व्यक्त की थी कि पूरी दुनिया में एक तरफ पूँजीवाद बढ़ रहा है, तो दूसरी तरफ सर्वहारा की समस्या भी बढ़ती जा रही है। दोनों के बीच संघर्ष की स्थिति है। एक मालिक है और दूसरा श्रमिक है। श्रमिक जीवन भर श्रमिक ही बना रहता है। वह अपनी तरक्की नहीं कर पाता। और दूसरी तरफ मालिक दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करता है। यही कारण है कि दोनों के बीच निरंतर संघर्ष की स्थिति बनी रहती है। कोई भी सत्ता जब बड़े पूँजीवादियों के हाथों में चली जाती है तो समाज के छोटे-छोटे लोग प्रभावित होते हैं। ये छोटे दुकानदार भी हो सकते हैं। कास्तकार हो सकते हैं। किसान हो सकते हैं, मजदूर हो सकते हैं। ये सब अंततः शोषित पीड़ित वर्ग में शरीक हो जाते हैं। मार्क्स मजदूर संगठनों पर विशेष जोर देते हैं और उनकी एकता के लिए प्रतिबद्ध दिखाई देते हैं। इस घोषणा पत्र के बाद सर्वहारा वर्ग में वैश्विक स्तर पर एक चेतना आई और लोग अपने अधिकारों के लिए उठ खड़े हुए। यही कारण है कि 1871 मैं पेरिस में संघर्ष हुआ। 70 दिनों तक मजदूरों ने सत्ता पर अपना एकाधिकार जमाए रखा। तब मार्क्स ने एक लेख लिखा था जिसमें उन्होंने कहा था कि सत्ता पर काबिज होकर ही हम अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सकते। सत्ता में सुधार कैसे लाया जाए, इस दिशा में चिंतन करना चाहिए। मार्क्स के दर्शन से प्रभावित होकर रूस में 1917 में मजदूर आंदोलन ने क्रांति का रुप ले लिया और उसका साम्यवादी चेहरा उभर कर पूरी दुनिया के सामने आया, लेकिन कहीं-न-कहीं आंतरिक विफलताओं और सामंजस्य के अभाव के कारण साम्यवादी स्वप्न तार-तार हो गया। ऐसा किसलिए हुआ, इस पर आज भी मिल-जुलकर के विचार करने की जरूरत है। समाज में पूँजीवादी व्यवस्था खत्म हो, यही मार्क्स के घोषणापत्र का पवित्र लक्ष्य था। लेकिन हम देख रहे हैं इस दिशा में बहुत संतोषजनक प्रगति नहीं हो रही है और अब तो पूरी दुनिया जैसे पूँजीवादी बाजार के खूनी पंजे में ही कैद होकर रह गई है। ऐसे समय में एक बार फिर नए सिरे से मार्क्स को पढ़ने, समझने और समझाने की जरूरत है।
कार्ल मार्क्स ने ‘दास कैपिटल’ जैसी कालजयी कृति की रचना की। कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणा पत्र भी कार्ल मार्क्स ने तैयार किया था। इस घोषणा पत्र को साम्यवादी घोषणा पत्र के रूप में याद किया जाता है, जिसमें पूँजीवादी विसंगतियों के बारे में बताते हुए सर्वहारा लोगों की सत्ता कैसे स्थापित हो, इस पर गंभीर विमर्श किया गया है। कार्ल मार्क्स ने यह घोषणा पत्र फ्रेडरिक एंगेल्स के साथ तैयार किया था। 1848 में पहली बार यह घोषणा पत्र जर्मन भाषा में ही तैयार हुआ। बाद में तो दुनिया के अनेक देशों की भाषाओं में इसका अनुवाद भी हुआ। मार्क्स का चिंतन आज भी पूरी दुनिया में संघर्षशील बिरादरी को लगातार हौसला प्रदान करता है। समतावादी समाज की रचना की दिशा में मार्क्स का घोषणा पत्र काबिलेगौर है। दुर्भाग्य है कि ऐसे समय में जबकि साम्यवाद पूरी दुनिया का आधार बन सकता था, तब उसकी जगह पूँजीवादी व्यवस्था ने ले ली है। यही कारण है कि पूँजीवादी व्यवस्था ने संघर्षशील मनुष्य के दमन की परिपाटी शुरू कर दी है तथा वर्ग संघर्ष की स्थिति निरंतर बनी हुई है। गरीब और गरीब होता जा रहा है, पूँजीपति और अधिकतम सम्पन्न बनता जा रहा है। विषमता की खाई बढ़ रही है और समाज में विद्वेष भी फैलता जा रहा है। जिसके कारण हिंसा भी बढ़ी है। ऐसी विषम स्थिति के बीच जब हम कार्ल मार्क्स के चिंतन को देखते हैं तो समझ में आता है कि दुनिया को इसी रास्ते से आगे बढ़ना था, लेकिन हर महान सपना बहुत जल्दी तार-तार हो जाता है। वैज्ञानिक समाजवाद भी
धीरे-धीरे हाशिए पर चला गया।
मार्क्स ने अपने घोषणा पत्र में यही चिंता व्यक्त की थी कि पूरी दुनिया में एक तरफ पूँजीवाद बढ़ रहा है, तो दूसरी तरफ सर्वहारा की समस्या भी बढ़ती जा रही है। दोनों के बीच संघर्ष की स्थिति है। एक मालिक है और दूसरा श्रमिक है। श्रमिक जीवन भर श्रमिक ही बना रहता है। वह अपनी तरक्की नहीं कर पाता। और दूसरी तरफ मालिक दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करता है। यही कारण है कि दोनों के बीच निरंतर संघर्ष की स्थिति बनी रहती है। कोई भी सत्ता जब बड़े पूँजीवादियों के हाथों में चली जाती है तो समाज के छोटे-छोटे लोग प्रभावित होते हैं। ये छोटे दुकानदार भी हो सकते हैं। कास्तकार हो सकते हैं। किसान हो सकते हैं, मजदूर हो सकते हैं। ये सब अंततः शोषित पीड़ित वर्ग में शरीक हो जाते हैं। मार्क्स मजदूर संगठनों पर विशेष जोर देते हैं और उनकी एकता के लिए प्रतिबद्ध दिखाई देते हैं। इस घोषणा पत्र के बाद सर्वहारा वर्ग में वैश्विक स्तर पर एक चेतना आई और लोग अपने अधिकारों के लिए उठ खड़े हुए। यही कारण है कि 1871 मैं पेरिस में संघर्ष हुआ। 70 दिनों तक मजदूरों ने सत्ता पर अपना एकाधिकार जमाए रखा। तब मार्क्स ने एक लेख लिखा था जिसमें उन्होंने कहा था कि सत्ता पर काबिज होकर ही हम अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सकते। सत्ता में सुधार कैसे लाया जाए, इस दिशा में चिंतन करना चाहिए। मार्क्स के दर्शन से प्रभावित होकर रूस में 1917 में मजदूर आंदोलन ने क्रांति का रुप ले लिया और उसका साम्यवादी चेहरा उभर कर पूरी दुनिया के सामने आया, लेकिन कहीं-न-कहीं आंतरिक विफलताओं और सामंजस्य के अभाव के कारण साम्यवादी स्वप्न तार-तार हो गया। ऐसा किसलिए हुआ, इस पर आज भी मिल-जुलकर के विचार करने की जरूरत है। समाज में पूँजीवादी व्यवस्था खत्म हो, यही मार्क्स के घोषणापत्र का पवित्र लक्ष्य था। लेकिन हम देख रहे हैं इस दिशा में बहुत संतोषजनक प्रगति नहीं हो रही है और अब तो पूरी दुनिया जैसे पूँजीवादी बाजार के खूनी पंजे में ही कैद होकर रह गई है। ऐसे समय में एक बार फिर नए सिरे से मार्क्स को पढ़ने, समझने और समझाने की जरूरत है।
-गिरीश पंकज
मोबाइल : 09425212720
लोकसंघर्ष पत्रिका अप्रैल 2018 विशेषांक में प्रकाशित
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