Saturday 31 July, 2010

थम नहीं रहा है थाईलैंड का संकट

थम नहीं रहा है थाईलैंड का संकट

थाईलैंड गंभीर उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा है। हालांकि सेना ने राजधानी बैंकाक को सरकार विरोधी रेडशर्ट पर कड़ प्रहार करके तत्काल प्रदर्शनकारियों से मुक्त कर दिया है लेकिन राजनीतिक असंतोष, बेचैनी तथा संघर्ष अभी खत्म नहीं हुआ है। पिछले कुछ समय से बैंकाक तथा आसपास के इलाके हिंसा की गिरफ्त में थे। सेना की कार्रवाई से स्थिति भले ही नियंत्रण में मालूम पड़े लेकिन असंतोष उबल रहा है। 45 दिनों से चला आ रहा उग्र प्रदर्शन अभिसित बेज्जजीवा के इस्तीफे की मांग कर रहे थे। वे नए चुनाव की भी मांग कर रहे थे। इस कार्रवाई से उन लोेगों में रोष और बढ़ेगा जो यह समझते रहे हैं कि वर्तमान सरकार ने गैरकानूनी तरीके से सत्ता पर कब्जा कर रखा है। इससे अभिसित विरोधी और सरकार समर्थक ताकतों के बीच राजनीतिक धु्रवीकरण बढ़ेगा ही। सरकार विरोधी ताकतों ने तानाशाही के खिलाफ लोकतंत्र के लिए संयुक्त मोर्चा (यूडीडी) का गठन किया है। उसमें रेड शर्ट भी शामिल है।
ऐसा नहीं लगता है कि रेड शर्ट सरकार को अपदस्थ करने का प्रयास छोडें़गे और सरकार भी ताकत के सहारे उसे दबाने का प्रयास करेगी। दो ऐसे अवसर आए थे जब इस गतिरोध को दूर किया जा सकता था लेकिन दोनों पक्षों ने उसका उपयोग करने से इंकार कर दिया। हाल के सप्ताहों में दो बड़ी घटनाओं में रेडशर्ट तथा सुरक्षा बलों के बीच संघर्ष में कम से कम 60 लोग मारे गए। पहले प्रधानमंत्री अभिसित बेज्जजीवा ने निर्धारित समय से एक वर्ष पहले नवंबर में चुनाव कराने की पेशकश की। लेकिन रेडशर्ट ने उसे अस्वीकार कर दिया। वे पहले अभिसित बेज्जजीवा सरकार का इस्तीफा चाहते थे। प्रदर्शनकारी यह भी चाहते थे कि सरकार के वरिष्ठ मंत्री को हिंसा के प्रथम दोैर के लिए जिम्मेदार घोषित किया जाए जो अप्रैल में घटित हुई थी। फिर मई के दूसरे सप्ताह में हिंसा की घटना हुई। उसके तीन दिन पहले संकट का समाधान सन्निकट मालूम पड़ता था लेकिन सरकार की ओर से उसे ठुकरा दिया गया। ऐसा लगता है कि दोनों पक्षों के गरमपंथी शांति कायम करने के पक्ष में नहीं हैं।
वर्तमान थाई सरकार पूर्व प्रधानमंत्री थाकसिन शिनवात्रा को इसके लिए दोषी मानती है जिन्हें 2006 में सत्ताहरण के दौरान अपदस्थ कर दिया गया था और जो अभी विदेश में स्व-निर्वासन में रह रहे हैं एवं थाईलैंड में सरकार विरोधी कार्रवाई को हवा दे रहे हैं। सरकार शिनवात्रा को वर्तमान संकट तथा हिंसा के लिए दोषी समझती है। रेडशर्ट का एक तबका शिनवात्रा का समर्थन बताया जाता है जो यह समझता है कि उन्हें गलत एवं गैरकानूनी तरीके से अपदस्थ कर दिया गया था। लेकिन यह भी सच है कि विरोध प्रदर्शन गहरे असंतोष को भी प्रतिबिंबित करता है। बैंकाक में चल रहे प्रदर्शनों तथा विरोध कार्रवाइयांे में मुख्य तौर से आर्थिक रूप से पिछड़े एवं उपेक्षित ग्रामांचल के लोगों ने हिस्सा लिया। ये लोग चाहते हैं कि सरकार और प्रशासन में उनकी आवाज को भी महत्व दिया जाए। राष्ट्रीय मेल-मिलाप के लिए कोई रोड मैप तैयार नहीं किया जा सकता है। यदि लोकतंत्र की उनकी मांग पर गौर नहीं किया जाएगा जो पूरे राष्ट्र को सत्ताधिकार में शामिल करें न कि केवल सेना तथा राजशाही द्वारा समर्थित शासक विशिष्ट वर्ग को।
थाईलैंड के वर्तमान संकट में अनेक चीजें शामिल हैं। आंशिक रूप से ही सही यह एक वर्ग संघर्ष भी है जिसमें उत्तर तथा पूरब के गरीब किसान शामिल हैं जिन्हें यह भय है कि वे कारपोरेट खेती तथा अन्य किस्म के कृषि व्यवसाय को अपनी जमीन खो देंगे। एक अंश में यह दो किस्म की राजनीति के बीच संघर्ष है एक ओर सेना समर्थित तथा शाही समर्थक विशिष्ट वर्ग एवं संकुचित लोकतंत्र है जिसने दशकों से किसी चुनौती का सामना नहीं किया है तथा दूसरी ओर थाकसिन शिनवात्रा जैसे पूंजीपति का भूमंडलीकृत पूंजीवाद जिन्होंने जनता को लामबंद करने के लिए सार्वभौम का लाभ उठाया एवं अपने नियंत्रण में टेलीविजन स्टेशनों का उपयोग किया।
थाईलैंड में प्रकट रूप से असमानता नहीं है जहां इडोनेशिया या भारत जैसी बड़े पैमाने पर शहरी झुग्गी-झोपड़ियां हैं। संपत्ति की खाई अधिकांशतः छिपी है क्योंकि वह भौगोलिक रूप से निर्धारित है। कुछ आप्रवासन के बावजूद दो-तिहाई से अधिक थाई अभी भी ग्रामांचल में रहते हैं और उनमें से करीब आधे गरीबों की श्रेणी में आते हैं। नगरों में नव मध्यम वर्ग लोकतंत्र का अच्छा ड्राइवर साबित नहीं हुआ है जिसकी अनेक विश्लेषकों ने भविष्यवाणी की थी। उसके अधिकांश सदस्य सुधार को दबाने के सरकार के प्रयासों का समर्थन करते हैं जिसमें हाल का विरोध प्रदर्शन भी शामिल हैं
अभी सबसे अधिक जरूरत इस बात की है कि सरकार बातचीत शुरू करने की रेडशर्ट की मांग को स्वीकार करे। यह सच है कि नवंबर में चुनाव कराने की सरकार की पेशकश को स्वीकारनहीं किया क्योंकि प्रदर्शनकारियों को गरमपंथी तबके ने बेरिकेड को खत्म करने से इंकार कर दिया। लेकिन फिर भी प्रधानमंत्री अभिसित बेज्जजीवा को अपनी पेशकश तथा रियायत को रद्द नहीं करना चाहिए था और सेना को कार्रवाई के लिए नहीं बुलाना चाहिए था। इस कार्रवाई से तो यही लगता है कि अभी भी वहां सेना प्रभुत्वकारी शासक तंत्र बनी हुई है। उन्होंने अपने एक अलग वायदे को भी पूरा नहीं किया। उन्होंने दक्षिण में मुस्लिम बहुल इलाके में सुरक्षा बलों को नियंत्रित करने का वायदा किया था जहां एक अलग विद्रोह थम नहीं रहा है।
यह बात छिपी नहीं है कि सेना के पीछे राजभवन है। हालांकि राजा के समर्थकों ने यह प्रचारित किया कि वे राजनीतिक संघर्ष से ऊपर है लेकिन यह भी सच है कि राजा ने अपने 60 वर्षों के शासनकाल में हर सैनिक सत्ताहरण का समर्थन किया। लेकिन बहुत की कम थाई खुलकर यह बात कहता है फिर भी लोग महसूस करने लगे हैं कि अब समय आ गया है कि थाईलैंड में संसदीय लोकतंत्र स्थापित किया जाए। पिछले सितंबर से ही राजा भूमिबोल आदुल्यादेज अस्पताल में हैं उनकी अनुपस्थिति ने एक शून्य पैदा कर दिया है। जिसे एक कामचलाऊ सरकार से भरा जाना चाहिए जो चुनाव की तैयारी करे और राजशाही की शक्ति कम करने के लिए एक आयोग की पहल करे। हाल की अवधि में विदेश मंत्री कासित पिरोम्या विदेशी राजनयिकों से थाई संकट में हस्तक्षेप नहीं करने का आग्रह करते रहे हैं लेकिन हाल में उन्होंने ऐसी बातें स्पष्ट रूप से कही जो अनेक थाई महीनों से निजी रूप से कहते रहे हैं।
कासित पिरोम्या ने अप्रैल में बाल्टीमोर में जोन्स होपकिन्स विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ एडवास्ड इंटरनेशनल स्टडीज में भाषण देते हुए कहा कि थाई राजनीतिक घटनाक्रम में एक सकारात्मक चीज यह है कि 15 या 20 वर्ष पूर्व थाईलैंड की स्थिति के विपरीत सामान्य जन राजनीतिक प्रक्रिया में भाग ले रहे हैं। 15 या 20 वर्ष पूर्व राजनीतिक खिलाड़ी नौकरशाहों, कुछ हद तक उद्योगपतियों, कुछ हद तक पेशेवर राजनीतिज्ञों तथा कुछ हद तक सैनिक आधिकारियों तक सीमित थे। उन्होंने आगे कहा कि हम आशा करते हैं कि घातक हिंसक अनुभवों के साथ ही वहां एक ऐसा लोकतंत्र होगा जो प्रत्यक्ष लोकतांत्रिक भागीदारी के साथ प्रतिनिधित्वपूर्ण लोकतंत्र को जोड़ेगा। फिर उन्होंने यह महत्वपूर्ण बात कही कि मैं समझता हूं कि हमें इतना साहसी होना चाहिए कि हमें राजशाही की संस्था के वर्जित विषय के संबंध में भी बातचीत करनी चाहिए। हमें बहस करनी चाहिए कि हमें किस प्रकार का लोकतांत्रिक समाज चाहिए। उन्होंने अंत में यह भी कहा कि बैंकाक की सड़कों पर अब कोई रक्तपात नहीं होना चाहिए और फिर थाईलैंड की निश्चलता समाप्त हो।
जब थाईलैंड के भविष्य के संबंध में संघर्ष चल रहा है तो एक व्यक्ति जो पहले ऐसे कठिन संघर्षों का समाधान निकालने में सक्षम थे, एकदम चुप है। वे हैं राजा भूमिबोल आदुल्यादेज जो एक लम्बे समय तक अपने देश को एकताबद्ध करने वाले विशिष्ट व्यक्ति थे। जब देश कठिन दौर से गुजर रहा है एवं देश के विशिष्ट वर्ग और उसके अधिकार वंचित गरीबों के बीच तीक्ष्ण संघर्ष चल रहा है तो 82 वर्षीय राजा घटनाक्रम को प्रभावित करने वाले अपने अधिकार को क्षीण होते देख रहे हैं। थाईलैंड के एक विशेषज्ञ चार्ल्स केयेस ने कहा है कि यह राजनीतिक सहमति की समाप्ति है जिसे राजा ने बनाए रखने में मदद की। यह उत्तराधिकार के मसले से अधिक कुछ है। राजा ने अभी तक कुछ भी नहीं कहा है कि जिससे तनाव समाप्त हो जैसा कि उन्होंने 1993 और 1992 में किया जब उन्होंने अपनी बात कहकर राजनीतिक रक्तपात होने से रोक दिया था।
करीब 64 वर्ष पहजे राजगद्दी पर आरूढ़ होने के बाद भूमिबोल ने राजनीतिक अधिकार के बिना एक संवैधानिक राजा की भूमिका ग्रहण की और उस भूमिका का विस्तार करके एक विपुल नैतिक शक्ति प्राप्त कर ली। उन्होंने शाही परिवार के विशाल व्यावसायिक संपत्ति का विस्तार किया। राजशाही का समर्थन करते हुए एक विशिष्ट राजतंत्रवादी वर्ग उभर कर सामने आ गया जिसमें नौकरशाही, सेना और उच्च व्यावसायिक वर्ग शामिल थे। वर्तमान संकट के दौरान एक पैलेस प्रिबी काँसिल ने अपनी शक्ति का प्रयोग किया। यही यह विशिष्ट वर्ग है जिसे अभी प्रदर्शनकारी चुनौती दे रहे हैं।
जो लेाग यथास्थिति बनाए रखना चाहते हैं, वे अपने को राजा के प्रति निष्ठावान घोषित करते हैं और रेडशर्ट पर राजशाही को समाप्त करने का प्रयास करने का दोषारोपण करते हैं क्योंकि वे थाई समाज में परिवर्तन लाना चाहते हैं। थाईलैंड के संबंध में एक ब्रिटिश इतिहासकार क्रिस बेकर ने कहा है कि राजा के नाम का राजनीतिकरण ने यह सुनिश्चित कर दिया है कि राजशाही अब केन्द्रीय सुलहकारी भूमिका अदा नहीं कर सकता है। अनेक रेडशर्ट का कहना है कि वे राजा का सम्मान करते हैं लेकिन उस व्यवस्था में परिवतर्न लाना चाहते हैं जिसका उन्होंने निर्माण किया है। ऐसा लगता है कि समाज में विभाजन काफी गहरा हो गया है और शेष इतना उग्र हो गया है कि मेल मिलाप करने में काफी समय लग जाएगा। अनेक विश्लेषकों को कहना है कि देश की जागरूक ग्रामीण जनता और उसके विशिष्ट वर्ग के बीच एक स्थायी संघर्ष शुरू हो गया है जिसे आसानी से दूर नहीं किया जा सकता है। राजा की बीमारी ने भविष्य की चिंता बढ़ा दी है। राजगद्दी के उत्तराधिकारी राजकुमार महाबाजी- रालोंगकोर्न ने अपनी पिता की लोकप्रियता हासिल नहीं की है।
उत्तराधिकारी तथा राजशाही की भावी भूमिका के बारे मंें बातचीत निषिद्ध है और उसके बारे में काना-फूसी ही हो सकती है। इसके लिए कठोर लेसे मैजेस्टी कानून बना हुआ है जिसके अंतर्गत किसी भी व्यक्ति को जो राजा रानी, उनके उत्तराधिकारी या रीजेंट को बदनाम, अपमानित या धमकी देता हो पंद्रह वर्ष की सजा दी जा सकती है। इसके तहत लेखकों, अकादमीशियनों, कार्यकर्ताओं तथा दोनों विदेशी एवं स्थानीय पत्रकारों को भी सजा दी जा सकती है।
हालांकि वे प्रदर्शनकारी ही हैं जो थाई समाज में परिवर्तन की मांग कर रहे हैं। इनमें वे कुछ लोग भी शामिल हैं जो भविष्य में एक रिपब्लिकन तरह की सरकार चाहते हैं। थाईलैंड के विदेश मंत्री कासित पिरोम्या ने भी इस संबंध में आवाज उठाई है।
- कमलेश मिश्र

Thursday 29 July, 2010

धर्मयुद्ध

युद्ध कभी धार्मिक नहीं होता
या फिर यों कहा तो युद्ध का कोई धर्म नहीं होता है
यह बात अलग है कि विजय के
बाद धर्म जयी के साथ हो जाता है
यदि राम रावण युद्ध में
रावण जीत गया होता
तो हमारा सारा समय
सीता को कुलटा कहते बीतता
रात कायर, लक्ष्मण हिज,
और हनुमान हमें कमजोर नजर आता
जगह-जगह भगवान रावण पूजा जाता
और विभीषण को देशद्रोही कहते हुए देश से निकाला जाता
सच मानो दोस्तो
यदि इराक अमेरिका युद्ध में इराक जीत जाता
तो इराक में मानवता के खिलाफ अपराध के लिए
जार्ज बुश का आखिरी दिन फांसी के तख्ते पर बीतता
और तब धर्म यही कहता
क्योंकि धर्म हमेशा जयी के साथ होता है!
- राम सागर सिंह परिहार

Saturday 17 July, 2010

सुनो हिटलर

हम गाएंगे / अंधेरों में भी /
जंगलों में भी / बस्तियों में भी /
पहाड़ों पे भी / मैदानों में भी /
आँखों से / होठों से /
हाथों से / पाँवों से /
समूचे जिस्म से /
ओ हिटलर!
हमारे घाव / हमारी झुर्रियाँ /
हमारी बिवाइयाँ / हमारे बेवक़्त पके बाल /
हमारी मार खाई पीठ / घुटता गला/
सभी तो
आकाश गुनगुना रहे हैं।
तुम कब तक दाँत पीसते रहोगे?
सुनो हिटलर--!
हम गा रहे हैं।
- वेणूगोपाल
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी

Friday 16 July, 2010

अलविदा कामरेड हुकम सिंह भण्डारी

टिहरी षहर के ठीक सामने पड़ने वाली पट्टी रैका । दोनों के बीच भीलींगना नदी, भागीरथी की सहायक। पट्टी दोगी की तरह रियासत का एक बेहद गरीब और उपेक्षित इलाका । लोक मान्यताओं के मुताबिक घोषित तौर पर रागस भूमि। राक्षस का विकट क्षेत्र, जिसमें जाने से ऐषतलब देवता भय खाते हैं । देवी-देवता वहां से दूर-दूर, बाहर-बाहर रहते हैं ।उस रैका कीे ऊँचाई पर, पहाड़ की चोटी पर बसे एक गांव पोड़या में बयासी साल पहले हुकमसिंह भण्डारी ने जन्म लिया था ।

अपने गांव से निकलने के बाद भण्डारी ने श्री सरस्वती मिडिल स्कूल लंबगांव में दाखिला ले लिया था, जिसे आज़ाद टिहरी सरकारने हाई स्कूल बना दिया था। इस विद्यालय को टिहरी रियासत के सामंतीष्षासन की ‘‘रियासत के अंदर सिर्फ सरकारी विद्यालयों के चलाए जाने की अनुमति ’’की हिटलरी षिक्षा नीति के विरोध में क्षेत्र की उत्साही जनता आपस में चंदा करके जर्बदस्ती संचालित करने लगी थी । इसके संस्थापकों-संचालकों में ज़्यादातर को सामंती ष्षासन ने गिरफ्तार कर टिहरी जेल में लंबी-लंबी सजाएं और यातनाएं दी थीं । उनमें पुरूषोŸादŸा रतूड़ी (मास्टरजी), खुषहालसिंह रांगड़, नत्थासिंह कष्यप, लक्ष्मी प्रसाद पैन्यूली भी थे ।

लंबगांव से हाईस्कूल करने के बाद भण्डारी मसूरी चले गए थे। उस जमाने में रैका के ज़्यादातर लोग होटलों में काम करने मसूरी चले जाते थे। वहां से स्नातक हो जाने के बाद एम ए की पढ़ाई करने लिए भण्डारी ने देहरादून आकर डीएवी कॉलेज में दाखिला ले लिया। देहरादून में वे कॉ ब्रजेन्द्र गुप्ता के और निकट संपर्क में आए और उनके द्वारा संचालित किए जाने वाले मार्क्सवादी विचारधारा के स्टडी सर्कलों में भाग लेने लगे। डीएवी कॉलेज के अनेक दूसरे विद्यार्थी भी उन स्टडी सर्कलों में भाग लेते हुए कम्युनिस्ट राजनीति से जुड़ने लगे। रूप नेगी, षांति गुप्ता जैसी लड़कियां भी उनमें षामिल थीं । स्टडी सर्कलों में षिरकत करने वाले छात्र एस एफ (स्टूडंेट्ंस फेडरेषन ) के सदस्य के रूप में अपने अध्ययन की बदौलत अपनी-अपनी कक्षाओं में छात्रों के बीच अपनी एक नई छवि का निर्माण करने लगे। मार्क्सवादी विचारधारा के घेार-विरोधी अध्यापक भी उनके अध्ययन के कायल होने लगते थे। दिन में छात्रों के बीच रह कर उनकी रोजमर्रा की समस्याओं का समाधान करने के लिए उन्हें संगठित करने के कार्याें में व्यस्त रहने के बाद वे रात-रात भर गंभीर विषयों पर लिखी पुस्तकों का अध्ययन करने में डूबे रहते। उपन्यास, साहित्य,इतिहास और अर्थषास्त्र के बारे में उनके नई किस्म के विचारों से आम छात्र प्रभावित होने लगे। यह बात पूरे भारत के तत्कालीन एस एफ छात्रों पर लागू होती थी।

सन् 1951 में एस एफ के आंदोलन में भाग लेने के कारण देहरादून प्रषासन ने उसके अनेक सदस्यों को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया। उनमें टिहरी के हुकमसिंह भण्डारी,विद्यादŸा रतूड़ी, गोविंदसिंह रांगड़, बलदेवसिंह रांगड़, राजेष्वरप्रसाद उनियाल (डाक्टर साहब), गोकुलचन्द रमोला और ललित भण्डारी, पौड़ी गढ़वाल के कॉ भारती और 11 अन्य जिलों के एस एफ सदस्य भी थे । उससे कुछ समय पहले तेज बुखार की हालत में गिरफ्तार करने के बाद संयुक्त प्रान्त(यू0पी0) की सरकार कॉ रूद्रदŸा भारद्वाज को ष्षहीद बना देने का कलंक अपने माथे पर ले चुकी थी। एस एफ के छात्रों को नौ दिनों तक बेवजह जेल में रखने के बाद ही सरकार ने उन्हें रिहा किया। गिरफ्तार होने वाले एस एफ के इन बहादुर लड़ाकू छात्रों के नाम रातों-रात समूचे गढ़वाल और मैदान के निकटवर्ती जिलों में मषहूर हो गए।

देहरादून से एम ए अर्थषास्त्र की डिग्री लेने के बाद कॉ भण्डारी लंबगांव लौट आए । सरस्वती हाई स्कूल में उन्हें अध्यापक बना दिया गया, जहां वे सेेवानिवृŸिा तक कार्यरत रहे । विद्यादŸा रतूड़ी प्रिंसिपल। इन लोगों के अथक परिश्रम की बदौलत उस विद्यालय को बहुत जल्द इंटर कॉलेज की मान्यता प्राप्त हो गई । अपने ज्ञान और सरल स्वभाव के कारण भण्डारी की अपने विद्यार्थियों के बीच बहुत अच्छी छवि बनने लगी । कॉलेज में उनके सहयोगी भी उनकी सम्मतियों को महत्वपूर्ण मानते हुए उनसे प्रभावित होने लगे ।

उनके संपर्क में आने वाले ग्रामीण जन पर भी उनके सरल व्यक्तित्व और मृदु व्यवहार की अमिट छाप पड़ने लगी । कॉ भण्डारी के आमजन को सरल भाव से समझाने का नतीजा था कि टिहरी क्षेत्र के ग्रामीण मतदाताओं ने आम निर्वाचन में कम्युनिस्ट प्रत्याषी कॉ गोविंदंिसंह नेगी को तीन बार विधान सभा में विजयी बना कर अपने प्रतिनिधि के रूप में लखनऊ भेजा ।

बाद के दिनों में क्षेत्रीय जनता के आग्रह पर कॉ भण्डारी को प्रतापनगर क्षेत्र समिति का प्रमुख बनने को सहमत होना पड़ा । कुछ समय पूर्व कॉ भण्डारी के पुराने साथी,देहरादून में सहबन्दी रहे गोकलचन्द रमोला इस क्षेत्र समिति के प्रमुख चुने गए थे । भण्डारी ने अपने कार्यकाल में साधनों की कमी के बावजूद उपेक्षित व अलग-थलग पड़े अनेक इलाकों में सार्वजनिक महत्व के अनेक ऐसे कार्यभी संपन्न करवा दिए, जिनकी ओर तब तक किसी ने तवज्जो नहीं दी थी ।

सेवानिवृŸा होते ही भण्डारी कम्युनिस्ट पार्टी की दैनिक कार्यवाहियों में व्यस्त होने लगे अपने दिन-प्रतिदिन बिगड़ते स्वास्थ्य की परवाह न करते हुए । मिलने वालों साथियों या आमजन को वे अपने स्वास्थ्य के बारे में कभी कुछ बताते ही नहीं थे । उनकी किडनी तक ने जवाब दे दिया था । सिवा आंखों के और जुबान के बाकी ष्षरीर के एक-एक अंग को असाध्य रोगों ने अपनी चपेट में ले लिया था । पार्टी कार्य करने के लिहाज से वे अपने गांव पोड़या से नई टिहरी की कोटी कॉलोनी में आकर निवास करने लगे थे । वहीं से 10 जून 2010 को फोन पर दिल्ली के एक अस्पताल में मेरे एंजियोप्लास्टी किए जाने की जानकारी होने पर उन्हांेने मुझसे बात की । इससे पहले कि मैं उनके स्वास्थ्य के बारे में पूछूं, उन्होंने फोन रख दिया। अब ,10 जुलाई 2010 को उनके हमें छोड़ कर चले जाने के बाद उनकी वही आवाज लगातार मेरे कानों में गूंजती रहती है ।
लाल सलाम कॉ भण्डारी!

- विद्यासागर नौटियाल

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी

Sunday 11 July, 2010

जीवन-लक्ष्‍य

जीवन-लक्ष्‍य
कठिनाइयों से रीता जीवन
मेरे लिए नहीं,
नहीं, मेरे तूफानी मन को यह स्‍वीकार नहीं।
मुझे तो चाहिए एक महान ऊंचा लक्ष्‍य
और उसके लिए उम्र भर संघर्षों का अटूट क्रम।

ओ कला! तू खोल
मानवता की धरोहर, अपने अमूल्‍य कोषों के द्वार
मेरे लिए खोल!
अपनी प्रज्ञा और संवेगों के आलिंगन में
अखिल विश्‍व को बांध लूंगा मैं!

आओ,
हम बीहड़ और कठिन सुदूर यात्रा पर चलें
आओ, क्‍योंकि -
छिछला, निरुद्देश्‍य और लक्ष्‍यहीन जीवन
हमें स्‍वीकार नहीं।
हम, ऊंघते कलम घिसते हुए
उत्‍पीड़न और लाचारी में नहीं जियेंगे।
हम - आकांक्षा, आक्रोश, आवेग, और
अभिमान में जियेंगे!
असली इन्‍सान की तरह जियेंगे।





(18 वर्ष की आयु में मार्क्‍स द्वारा लिखी गई कविता)

ग़रीबी


आह, तुम नहीं चाहतीं--
डरी हुई हो तुम
ग़रीबी से
घिसे जूतों में तुम नहीं चाहतीं बाज़ार जाना
नहीं चाहतीं उसी पुरानी पोशाक में वापस लौटना

मेरे प्यार, हमें पसन्द नहीं है,
जिस हाल में धनकुबेर हमें देखना चाहते हैं,
तंगहाली ।
हम इसे उखाड़ फेंकेंगे दुष्ट दाँत की तरह
जो अब तक इंसान के दिल को कुतरता आया है

लेकिन मैं तुम्हें
इससे भयभीत नहीं देखना चाहता ।
अगर मेरी ग़लती से
यह तुम्हारे घर में दाखिल होती है
अगर ग़रीबी

तुम्हारे सुनहरे जूते परे खींच ले जाती है,
उसे परे न खींचने दो अपनी हँसी

जो मेरी ज़िन्दगी की रोटी है ।
अगर तुम भाड़ा नहीं चुका सकतीं
काम की तलाश में निकल पड़ो
गरबीले डग भरती,
और याद रखो, मेरे प्यार, कि

मैं तुम्हारी निगरानी पर हूँ
और इकट्ठे हम

सबसे बड़ी दौलत हैं
धरती पर जो शायद ही कभी
इकट्ठा की जा पाई हो ।
- पाब्लो नेरूदा

Thursday 8 July, 2010

लोगों के लिए गीत


आओ ! दुख और जंज़ीर के साथियों

हम चलें कुछ भी न हारने के लिए

कुछ भी न खोने के लिए

सिवा अर्थियों के


आकाश के लिए हम गाएंगे

भेजेंगे अपनी आशाएँ

कारखानों और खेतों और खदानों में

हम गाएंगे और छोड़ देंगे

अपने छिपने की जगह

हम सामना करेंगे सूरज का


हमारे दुश्मन गाते हैं--

"वे अरब हैं... क्रूर हैं..."


हाँ, हम अरब हैं

हम निर्माण करना जानते हैं

हम जानते हैं बनाना

कारखाने अस्पताल और मकान

विद्यालय, बम और मिसाईल

हम जानते हैं

कैसे लिखी जाती है सुन्दर कविता

और संगीत...

हम जानते हैं

- महमूद दरवेश

Monday 5 July, 2010

मज़दूरों का गीत


मिल कर क़दम बढ़ाएँ हम
जय, फिर होगी वाम की !

शोषित जनता जागी है
पीड़ित जनता बाग़ी है
आएँ, सड़कों पर आएँ,
क्या अब चिंता धाम की !

ना यह अवसर छोड़ेंगे
काल-चक्र को मोडेंगे
शक्लें बदलेंगे, साथी
मूक सुबह की, शाम की !

नारा अब यह घर-घर है
हर इंसान बराबर है
रोटी जन-जन खाएगा
अपने-अपने काम की !

झेलें गोली सीने से
लथपथ ख़ून-पसीने से
इज़्ज़त कभी घटेगी ना
‘मेहनतकश’ के नाम की !

- महेंद्र भटनागर

Saturday 3 July, 2010

भाग मनमोहन जनताआती है -

पेट्रो कीमतों के बारे में कुछ तथ्य - संप्रग जवाब दे -
भाग मनमोहन जनता
आती है !!!!
कुछ देशों में पेट्रोल की वर्तमान कीमतें इस प्रकार है :

पाकिस्तान में २६ रूपये लीटर
बंगला देश में २२ रूपये लीटर
क्यूबा में १९ रुपये लीटर
नेपाल में २४ रूपये लीटर
बर्मा में ३० रूपये लीटर
अफगानिस्तान में ३६ रूपये लीटर
क़तर में ३० रूपये लीटर
लेकिन हिंदुस्तान में ५३ रूपये लीटर
जरा देखिये इन ५३ रुपयों में क्या-क्या शामिल करती है जनद्रोही संप्रग और
मायावती सरकारें :

एक लीटर पेट्रोल की हिंदुस्तान में लागत कीमत : १६-५० रूपये
एक लीटर पेट्रोल पर हम से वसूला जाता है ११.८० रूपये का केन्द्रीय कर
एक लीटर पेट्रोल पर हम से वसूला जाता है ९.७५ रूपये का एक्साइज ड्यूटी
एक लीटर पेट्रोल पर हम से वसूला जाता है ८.०० रूपये का उत्तर प्रदेश
सरकार के टैक्स
एक लीटर पेट्रोल पर हम से वसूला जाता है ४.०० का सेस
बाकी लिया जाता है सरमायेदारों और सरकार का मुनाफा
फिर भी सरकार रोती है अनुदान के बोझ का !
आयल कंपनियों के नुक्सान का !!
तेल कंपनियों के पिछले दस सालों के मुनाफे देखिए जो जा रहे हैं
सरमायेदारों और सरकार की जेब में
भाईयों बहुत हो गया है 5 जुलाई को सरकार को दिखा दो अपनी ताकत
लगाओ नारा भाग मनमोहन जनता आती है !!!!

हिन्दी ब्लॉग टिप्सः तीन कॉलम वाली टेम्पलेट