1943, बंगाल का अकाल, अनाज की कमी नहीं लेकिन लोगों को मिला नहीं.
तीस लाख लोग भूख से मारे गए लेकिन अंग्रेज सरकार के कान पर जूं तक ना
रेंगी। जब ब्रिटेन के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल से मदद मांगी गई कि
बंगाल में लोग भूखे मर रहे हैं तो उन्होंने जबाब भेजा-अच्छा, तो गांधी अब
तक क्यों नहीं मरे! उधर दूसरा विश्वयुद्ध दुनिया की राजनैतिक समीकरण बदलने
को उतारू था। रूस की क्रांति ने भारत में भी बदलाव की ललक पैदा की।
ऐसे में कम्युनिस्ट पार्टी ने एक ऐसी संस्था की परिकल्पना की जो देश भर में
ना सिर्फ आजादी की अलख जगाए बल्कि सामाजिक बुराइयों अशिक्षा और अंधविश्वास
से भी लोहा ले। मनोबल टूटा था लेकिन जिजीविषा बाकी थी। सही अर्थों में
सर्वहारा समाज के उत्थान के लिए इप्टा का निर्माण हुआ।

25 मई 1943 को मुंबई के मारवाड़ी हाल में प्रो. हीरेन मुखर्जी ने इप्टा की
स्थापना के अवसर पर अध्यक्षता करते हुए यह आह्वान किया, “लेखक और कलाकार
आओ, अभिनेता और नाटककार आओ, हाथ से और दिमाग से काम करने वाले आओ और स्वंय
को आजादी और सामाजिक न्याय की नई दुनिया के निर्माण के लिए समर्पित कर दो”।
इसका नामकरण प्रसिद्ध वैज्ञानिक होमी जहाँगीर भाभा ने किया था। इसका नारा
था, “पीपल्स थियेटर स्टार्स पीपल”। इसे आकार देने में मदद की श्रीलंका की
अनिल डि सिल्वा ने। इप्टा का प्रतीक चिह्न बनाया भारत के प्रसिद्ध चित्रकार
चित्ताप्रसाद ने। ‘रंग दस्तावेज’ के लेखक महेश आनंद के अनुसार ‘इप्टा यानी
इंडियन पीपल्स थिएटर असोसिएशन के रूप में ऐसा संगठन बना जिसने पूरे
हिन्दुस्तान में कलाओं की परिवर्तनकारी शक्ति को पहचानने की कोशिश पहली बार
की। कलाओं में भी अवाम को सजग करने की अद्भुत शक्ति है जिसे हिंदुस्तान की
तमाम भाषाओं में पहचाना गया। ललित कलाएं, काव्य, नाटक, गीत, पारंपरिक
नाट्यरूप, इनके कर्ता, राजनेता और बुद्धिजीवी एक जगह इकठ्ठा हुए, ऐसा फिर
कभी नहीं हुआ।”
बंगाल कल्चरल स्क्वाड बंगाल-अकाल पीड़ितों
के लिए राहत जुटाने के लिए स्थापित ‘बंगाल कल्चरल स्क्वाड’ के नाटकों
‘जबानबंदी’ और ‘नबान्न’ की लोकप्रियता ने इप्टा के स्थापना की प्रेरणा दी।
मुंबई तत्कालीन गतिविधियों का केंद्र था लेकिन बंगाल, पंजाब, दिल्ली, युक्त
प्रांत, मालाबार, कर्णाटक, आंध्र, तमिलनाडु में प्रांतीय समितियाँ भी
बनीं। स्क्वाड की प्रस्तुतियों और कार्यशैली से प्रभावित होकर बिनय राय के
नेतृत्व में ही इप्टा के सबसे सक्रिय समूह ‘सेंट्रल ट्रूप’ का गठन हुआ।
भारत के विविध क्षेत्रों की विविध शैलियों से संबंधित इसके सदस्य एक साथ
रहते। इनके साहचर्य ने ‘स्पिरिट ऑफ इंडिया’, ‘इंडिया इम्मोर्टल’, कश्मीर
जैसी अद्भुत प्रस्तुतियों को जन्म दिया।
पीसी जोशी और इप्टा
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पहले महासचिव पूरन चंद जोशी ने इस बात को
समझा कि एक दृढ़ राजनैतिक जागृति का आधार सांस्कृतिक और सामाजिक जागरूकता ही
हो सकती है। प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव प्रो. अली जावेद कहते हैं, वे
बहुत दूरदर्शी आदमी थे। उन्होंने देश भर में योग्य कलाकारों, लोगों को
पहचाना और उन्हें इस मूवमेंट से जोड़ने की कोशिश की।
कैफी आजमी और अली सरदार जाफरी
प्रोफेसर जावेद ने बताया कि कैफी आजमी आजमगढ़ के एक गाँव के रहने वाले थे
और लखनऊ आए थे मौलवी बनने के लिए। कानपुर की एक ट्रेड यूनियन के एक मुशायरे
में पीसी जोशी ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और उन्हें अपने साथ जोड़ा। हिंदी
के वरिष्ठ लेखक विश्वनाथ त्रिपाठी कहते हैं कि भारत की रचनात्मकता और
अभिव्यक्ति पर गांधी के बाद अगर किसी और राजनेता का प्रभाव पड़ा तो वे पी सी
जोशी ही थे। इप्टा से पहले उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना में और
आजादी के बाद जब दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की स्थापना हुई
तो उसकी परियोजना और विकास में भी पीसी जोशी का बड़ा योगदान रहा।
मिथक पुरुष
बलराज सिंह और दमयंती सिंह। विश्वनाथ त्रिपाठी बताते हैं कि उनके परिचितों
में राजनेताओं के अलावा सभी भारतीय भाषाओं के रचनाकर्मियों की लंबी सूची
थी। वे लोगों में एक मिथक पुरुष की तरह थे। जब वे कम्यून में रहते थे तो हर
सुबह वे पार्टी के सभी कार्यकर्ताओं के सिरहाने उन कामों की सूची की एक
छोटी सी चिट छोड़ दिया करते जो उस व्यक्ति को उस दिन करने होते। इतने लोगों
को जानने के बावजूद वे हरेक के रोजमर्रा के सुख और दुख में शामिल होते।
लेखक अभिनेता भीष्म साहनी
भीष्म साहनी ने अपने संस्मरण ‘आज के अतीत’ में पीसी जोशी से पहली मुलाकात
का जिक्र किया है। साहनी लिखते हैं, ‘वे लापरवाह तरह से कपड़े पहने हुए थे,
पैरों में पुरानी चप्पल थी और वे तंबाकू खा रहे थे। मैंने खुद से कहा, बेशक
ये वे पीसी जोशी नहीं हो सकते जिनका नाम हरेक की जुबान पर है। लेकिन जब
उन्होंने अपना हाथ मेरे कंधे पर रखा तो उनकी आँखों की स्नेहपूर्ण चमक और एक
चमकीली मुस्कान ने मेरे सारे शक को दूर कर दिया।’ भीष्म साहनी की बेटी
कल्पना साहनी के शब्दों में, ‘पीसी जी अनोखी शख्सियत थे, विनम्र,
स्नेहपूर्ण, सरल लेकिन अपने विजन और विचारों में एकदम स्पष्ट।’ बलराज साहनी
ने अपने संस्मरण में जिक्र किया है कि पीसी जोशी को जीवन के हर पहलू से
गहरा लगाव था। वे हर पल अपनी जानकारी की हदों को बढ़ाने में मशगूल रहते। वे
इस पर कत्तई विश्वास नहीं करते थे कि कला को राजनेताओं के हाथ की कठपुतली
होना चाहिए। बलराज साहनी ने माना कि ये पीसी जोशी का प्रभावशाली और आकर्षक
व्यक्तित्व ही था कि देश भर के कई कलाकार इप्टा से जुड़े और उसके सदस्य बने।
इप्टा में कौन थे?
फैज अहमद फैज
एम. के रैना. लिखते हैं ‘उस दौर
में नाटक संगीत, चित्रकला, लेखन, फिल्म से जुड़ा शायद ही कोई वरिष्ठ
संस्कृतिकर्मी होगा जो इप्टा से नहीं जुड़ा था’। यह एक ऐसी संस्था थी जो
अपनी राजनैतिक प्रतिबद्धताओं के परे जाकर भी लोगों से जुड़ी।
संगीतकार सलिल चौधरी
पृथ्वीराज कपूर, बलराज और दमयंती साहनी, चेतन और उमा आनंद, हबीब तनवीर,
शंभु मित्र, जोहरा सहगल, दीना पाठक इत्यादि जैसे अभिनेता, कृष्ण चंदर,
सज्जाद जहीर, अली सरदार जाफरी, राशिद जहां, इस्मत चुगताई, ख्वाजा अहमद
अब्बास जैसे लेखक, शांति वर्द्धन, गुल वर्द्धन, नरेन्द्र शर्मा, रेखा जैन,
सचिन शंकर, नागेश जैसे नर्तक, रविशंकर, सलिल चौधरी जैसे संगीतकार, फैज अहमद
फैज, मखदूम मोहीउद्दीन, साहिर लुधियानवी, शैलेंद्र, प्रेम धवन जैसे
गीतकार, विनय रॉय, अण्णा भाऊ साठे, अमर शेख, दशरथ लाल जैसे लोक गायक,
चित्तो प्रसाद, रामकिंकर बैज जैसे चित्रकार। ये आंदोलन नाटक, गीत और संगीत
को थिएटर हॉल की बंद दीवारों के बाहर लोगों के बीच ले आया।
जोहरा सहगल
इप्टा के सदस्य हर जगह सामाजिक जागरूकता की अलख जगाने के लिए नाटक कर रहे
थे- गलियों में, सड़कों पर, ट्रेन में, ट्रकों के ऊपर। इस तरह शुरू हुआ एक
ऐसा सांस्कृतिक पुनर्जागरण, जिसने ना सिर्फ कला और संस्कृति में नए आयाम
जोड़े बल्कि जो आज भी देश भर में समाज के जागरण के लिए काम कर रहा है।
कम्युनिस्ट नेता फिदेल कास्त्रो ने करीब 50 साल तक क्यूबा में एकछत्र राज
किया। इस दौरान क्यूबा में कोई दूसरी पार्टी नहीं थी, जो उनकी दावेदारी को
चुनौती दे पाती। यह वह दौर भी था, जब दुनिया भर में कम्युनिस्ट शासन ढहते
जा रहे थे। लेकिन फिदेल कास्त्रो अपने सबसे बड़े दुश्मन संयुक्त राज्य
अमरीका की खुलकर आलोचना करते रहे और लाल झंडे को कभी झुकने नहीं दिया।
कास्त्रो ने इंदिरा गांधी को गले लगाया। कास्त्रो के समर्थक उन्हें समाजवाद
का सूरमा बताते हैं और एक ऐसा सैन्य राजनीतिज्ञ मानते हैं, जिसने अपने
लोगों के लिए क्यूबा को आजाद कराया। क्यूबा के पूर्व राष्ट्रपति फिदेल
कास्त्रो पर यह आरोप भी लगते रहे कि उन्होंने क्रूर तरीकों से अपने
विपक्षियों को दबाया। साथ ही खराब आर्थिक नीतियों की वजह से क्यूबा की
अर्थव्यवस्था को अपंग बना दिया। क्यूबा के तानाशाह फुलखेंशियो बतीस्ता के
संयुक्त राज्य अमरीका से घनिष्ठ संबंध थे। फिदेल अलजांद्रो कास्त्रो रुज का
जन्म 13 अगस्त 1926 को एक धनी किसान के घर हुआ था. उनकी मां का नाम लीना
रुज था, जो उनके पिता की सेविका थीं। लेकिन कास्त्रो के जन्म के बाद उनके
पिता ने लीना से शादी कर ली।
फिदेल कास्त्रो के जीवन की नौ बातें
सैंटियागो के कैथोलिक स्कूलों में कास्त्रो ने अपनी स्कूली पढ़ाई की. इसके
बाद की पढ़ाई करने के लिए वे हवाना चले गए। 1940 के दशक के मध्य में हवाना
विश्वविद्यालय से लॉ की पढ़ाई करते वक्त ही कास्त्रो राजनैतिक कार्यकर्ता
बने। उन्होंने जल्द ही सार्वजनिक वक्ता के रूप में अपनी पहचान बना ली थी और
लोग उन्हें सुनना पसंद करने लगे थे।
मार्क्सवाद और अमरीका से टकराव
सक्रिय राजनीति में आने के बाद कास्त्रो ने क्यूबा सरकार को अपने निशाने
पर लिया। इस दौर में राष्ट्रपति रेमन की सरकार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप
थे और कास्त्रो अपने भाषणों में सरकार को घेरने लगे थे। यह क्यूबा में
हिंसक विरोध प्रदर्शनों का दौर था, जिसके चलते पुलिस ने कास्त्रो को निशाना
बनाना शुरू कर दिया। कास्त्रो डोमिनिकन गणराज्य के दक्षिणपंथी नेताओं के
खिलाफ थे। उन्होंने दक्षिणपंथी नेता राफेल ट्रूजिलो की सत्ता को उखाड़
फेंकने का प्रयास किया। लेकिन अमरीकी हस्तक्षेप के बाद यह प्रयास नाकाम
रहा। सैंटियागो से सटी मोंकाडा की सैन्य बैरकों पर सशस्त्र हमला करने के
जुर्म में कास्त्रो को गिरफ्तार कर लिया गया था। 1948 में कास्त्रो ने
क्यूबा के एक धनी नेता की बेटी मिर्ता डियाज बालार्ट से शादी की। उस वक्त
क्यूबा में यह चर्चा चली थी कि इस शादी के बाद कास्त्रो देश के कुलीन वर्ग
में शामिल हो जाएँगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ बल्कि शादी के बाद कास्त्रो तेजी
से मार्क्सवाद की ओर बढ़े। कास्त्रो का मानना था कि क्यूबा की आर्थिक
समस्याओं का महज एक ही कारण है, और वह है बेलगाम पूँजीवाद। कास्त्रो कहते
थे कि पूंजीवाद का इलाज सिर्फ जन-क्रांति द्वारा ही किया जा सकता है।
स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद कास्त्रो ने बतौर वकील काम करने का प्रयास
किया। लेकिन इसमें वे सफल नहीं हो पाए और उनके सिर पर लोगों का कर्ज बढ़ने
लगा। इस दौरान भी उन्होंने अपनी राजनैतिक सक्रियता बनाए रखी। वे सभी हिंसक
प्रदर्शनों में शामिल हुआ करते थे। साल 1952 में क्यूबा के तानाशाह
फुलखेंशियो बतीस्ता ने देश में सैन्य विद्रोह करवाया और क्यूबा के
राष्ट्रपति कार्लोस प्रियो को सत्ता छोड़नी पड़ी।
आक्रमण की तैयारी
फुलखेंशियो बतीस्ता के संयुक्त राज्य अमरीका से घनिष्ठ संबंध थे। उन्होंने
समाजवादी संगठनों का दमन करना शुरू कर दिया था। यह स्थिति कास्त्रो की
मौलिक राजनैतिक मान्यताओं के ठीक विपरीत थीं। इसे चुनौती देने के लिए
कास्त्रो ने एक संस्था बनाई, जिसका नाम था ‘द मूवमेंट’। इस संस्था ने
भूमिगत रहकर काम शुरू किया, ताकि बतीस्ता की सत्ता को पलटा जा सके। इसी
सिलसिले में जुलाई, 1953 में कास्त्रो ने सैंटियागो से सटी मोंकाडा की
सैन्य बैरकों पर सशस्त्र हमला किया। इस विद्रोह का मकसद हथियारों को जब्त
करना था। लेकिन यह योजना विफल हो गई और कई क्रांतिकारी इसमें मारे गए।
गुरिल्ला युद्ध की रणनीति
कास्त्रो को 15 साल की सजा सुनाई गई। लेकिन 19 महीने की सजा के बाद
कास्त्रो को रिहा कर दिया गया। जेल में अपनी सजा के दौरान कास्त्रो ने अपनी
पत्नी को तलाक दे दिया था और वे दिन-रात मार्क्सवादी साहित्य में डूबे
रहते थे। यह वह दौर था जब फुलखेंशियो बतीस्ता अपने विद्रोहियों को निपटा
रहा था। ऐसे में गिरफ्तारी से बचने के लिए कास्त्रो क्यूबा छोड़ मेक्सिको
चले गए। यहीं उनकी मुलाकात नामी क्रांतिकारी चे ग्वेरा से हुई। नवंबर 1956
में कास्त्रो 81 सशस्त्र साथियों के साथ क्यूबा लौटे और साल 1959 में
क्यूबा के तानाशाह फुलखेंशियो बतीस्ता को सत्ता से हटाकर फिदेल कास्त्रो ने
क्यूबा में कम्युनिस्ट सत्ता कायम की।
विचारधारा
कास्त्रो के संचालन में बनी क्यूबा की नई सरकार ने गरीबों से वादा किया कि
लोगों को उनकी जमीनें लौटा दी जाएँगी और गरीबों के अधिकारों की रक्षा की
जाएगी, लेकिन सरकार ने जल्द ही देश में एक पार्टी सिस्टम लागू कर दिया।
सैंकड़ों राजनैतिक लोगों को कैद कर लिया गया। कुछ को जेल भेजा गया, तो कुछ
को श्रम शिविरों में नजरबंद कर दिया गया। वहीं हजारों की संख्या में मध्यम
वर्गीय क्यूबाई नागरिकों को निर्वासन के लिए मजबूर किया गया। साल 1959 में
हवाना में दाखिल हुई थी कास्त्रो की क्रांतिकारी सेना। उन्होंने कई बार
अपने भाषणों में कहा कि देश में साम्यवाद या मार्क्सवाद नहीं है, बल्कि एक
ऐसा लोकतंत्र है, जिसमें सभी को प्रतिनिधित्व की आजादी है। 1960 में फिदेल
कास्त्रो ने अमरीकी स्वामित्व वाले सभी व्यवसायों का राष्ट्रीयकरण कर दिया।
जवाब में, वाशिंगटन ने क्यूबा पर कई व्यापारिक प्रतिबंध लगा दिए। क्यूबा
इस दौर में एक शीत युद्ध का मैदान बन गया था। कास्त्रो दावा करते थे कि
सोवियत संघ और उसके नेता निकिता ख्श्चेव ने उनसे समझौते का प्रस्ताव रखा
था। इसके बाद ही दोनों के बीच संधि हुई और उन्हें सोवियत संघ का समर्थन
मिला। दूसरी ओर अमरीका कास्त्रो की सरकार का तख्ता पलट करवाने के लिए
क्यूबा के राजनैतिक कैदियों के साथ मिलकर एक निजी सेना बना रहा था।
एक विचित्र घटना...
कास्त्रो अमरीका के लिए सबसे बड़े दुश्मन बन चुके थे। सीआई के नेतृत्व में
एक टीम भी बनाई गई, जिसका मकसद कास्त्रो की हत्या करना था। इसके लिए
कास्त्रो के सिगार में विस्फोटक लगाकर उन्हें मारने का तरीका चुना गया। कई
ऐसे विचित्र तरीकों की जानकारी सार्वजनिक हुई, जिनके जरिए कास्त्रो की
हत्या प्लान की जा रही थी। इस बीच कास्त्रो को और क्यूबा को आर्थिक मदद
पहुंचाने के लिए सोवियत संघ ने क्यूबा में पैसा लगाना शुरू किया।
क्यूबा का घाटा
कमजोर आर्थिक स्थिति के बावजूद कास्त्रो ने अफ्रीका में अपने सैनिकों को
भेजा और अंगोला समेत मोजाम्बिक के मार्क्सवादी छापामार लड़ाकों का समर्थन
किया, लेकिन 1980 के मध्य तक वैश्विक राजनीति में भारी बदलाव हो गया। यह
दौर कास्त्रो की क्रांति के लिए घातक साबित हुआ. इस दौर में मास्को के लिए
भी कास्त्रो को प्रभावी ढंग से मदद दे पाना मुश्किल हो गया था और इसके साथ
ही क्यूबा की एक बड़ी उम्मीद भी टूट गई। मरते दम तक फिदेल कास्त्रो की
लोकप्रियता कायम रही।
कैरेबियन साम्यवाद इसके बावजूद 1990
के मध्य तक क्यूबा ने कई प्रभावशाली घरेलू उपलब्धियों को हासिल किया। देश
में अच्छी चिकित्सा व्यवस्था को लोगों को मुफ्त मुहैया कराया गया। इसने
क्यूबा की शिशु मृत्यु दर को पृथ्वी पर कुछ बड़े विकसित देशों के बराबर ला
दिया। बाद के वर्षों में कास्त्रो का रुख विनम्र हो गया।