Saturday 21 April, 2018

उत्तर-सत्य के इस काल में कम्युनिस्टों की मुक्तिकामी राजनीति को स्थापित करना होगा


यह समय भारत की राजनीति में एक नये प्रकार के उथल-पुथल का समय है, जिसमें भाजपा-आरएसएस सत्ता के मद में अपने सारे कपड़े उतार कर निपट नंगे रूप में सरे बाजार सीना फुलाये घूम रहे हैं और पूरा देश उनकी सारी उदंडताओं को देखते हुए 2019 के चुनाव की अधीरता से प्रतीक्षा कर रहा है। मोदी के स्वेच्छाचारी शासन के खिलाफ जनता के तमाम हिस्से लामबंद हो रहे हैं। दूसरी ओर यही समय भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन के लिए एक प्रकार के अस्तित्वीय संकट का समय भी जान पड़ता है जिसमें उसे पूरी तरह से दीवार से सटा दिए जाने की स्थिति से अपनी पूरी ताकत लगा कर पलट कर खड़ा होने की ताकत का परिचय देना है। संयोग से अभी भारत की दो प्रमुख कम्युनिस्ट पार्टियों की पार्टी कांग्रेस की प्रक्रिया का भी समय है, उनकी सर्वोच्च नीति नियामक सभा के आयोजन का समय।
    इसलिए देश और दुनिया के सामने आज के समय की बिल्कुल नई प्रकार की चुनौतियों के वक्त कम्युनिस्ट पार्टियों की कांग्रेस के ये आयोजन बहुत ही अर्थपूर्ण और संभावनापूर्ण साबित हो सकते हैं। समय और राजनीति का पूरा परिदृश्य तेजी से बदल चुका है और कम्युनिस्ट पार्टियों को इन नई परिस्थितियों के संदर्भ में खुद को रखते हुए यदि राजनीति की अपनी समझ को विकसित और समीचीन नहीं बनाती है, व्यापक मेहनतकश जनता के हितों से जुड़े अपने मूल तत्व की शक्ति को नये सिरे से अर्जित नहीं करती है तो भारत में वामपंथ की गिरावट के इसी बीच जो सभी संकेत सामने आ चुके हैं, उनसे आगे उबर पाना असंभव हो जाएगा। ये पार्टी कांग्रेस ही एक प्रकार से ऐसे बचे हुए अवसरों में से एक सबसे प्रमुख अवसर हैं जब हर प्रकार की कोरी गुटबाजी से ऊपर उठते हुए पार्टी एक गंभीर बहस और समकालीन परिस्थिति का सटीक विश्लेषण करके नये सिरे से भारत की राजनीति में मेहनतकशों के संगठित हस्तक्षेप की संभावनाओं को बनाये रख सकती है।
    सारी दुनिया में कम्युनिस्ट राजनीति की सबसे बड़ी विशेषता क्या है? कम्युनिस्ट राजनीति का मूल तत्व है जनता की मुक्ति, उसके जीवन को तमाम बंधनों से मुक्त करके उसकी सर्जनात्मक शक्ति को उन्मोचित करना। कम्युनिस्ट राजनीति का लक्ष्य कभी भी शुद्ध रूप में किसी राजसत्ता के दमनकारी तंत्र का निर्माण नहीं हो सकता है। समाजवादी क्रांति के बाद निर्मित समाजवादी व्यवस्था और राजसत्ता का लक्ष्य भी सभी प्रकार की राजसत्ता को खत्म करने की दिशा में ही चरितार्थ हो सकता है। जब भी समाजवादी राज्य अपनी उस भूमिका को भूल कर सिर्फ जनता पर शासन करने के एक तंत्र के रूप में काम करने लगता है, उसमें वे सारी विकृतियाँ उत्पन्न होने लगती हैं, जो समाजवाद के मुक्तिदायी चरित्र को उससे छीन लेती हैं। सोवियत संघ में समाजवाद के पराभव के मूल में यही सच्चाई काम कर रही थी जहाँ किसी भी वजह से क्यों न हो, समाजवादी व्यवस्था ने भी एक दमनकारी नौकरशाही व्यवस्था का रूप ले लिया था और इसलिए समाजवाद को मुक्तिकामी चरित्र और पूँजीवाद-सामंतवाद के शोषणकारी चरित्र के बीच का फर्क ओझल होने लगा जो अंत में समाजवाद के पूरी तरह से पराभव का कारण बना।
    इसी मानदंड पर भारत में कम्युनिस्ट पार्टियों को भी अपनी राजनीति की बार-बार समीक्षा-पुनर्समीक्षा करने की जरूरत है। भारत में आजादी के इन सत्तर सालों में एकाधिक राज्यों में कम्युनिस्ट पार्टियों को राज्य सरकारें बनाने का मौका मिला है और केरल, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा की इन सरकारों ने खास तौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में भूमि सुधार और पंचायती राज के कामों के जरिए गाँव के गरीबों के जीवन को जिस प्रकार से शोषण के जुए से मुक्त किया, वह भारतीय राजनीति के इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय कहलाएगा। इसीका परिणाम रहा कि पश्चिम बंगाल में तो रिकर्ड 34 सालों तक लगातार वाम मोर्चा सरकार का शासन कायम रहा, लेकिन भूमि सुधार के इन कामों के अलावा शहरी और औद्योगिक क्षेत्र में वामपंथी सरकारें अपनी भूमिका को दूसरी पूँजीवादी पार्टियों से अलग रूप में दिखाने में असमर्थ रहीं। उल्टे तंत्र पर उसकी निर्भरशीलता ने मौके-बेमौके इन सरकारों को अपनी ही जनता की आकांक्षाओं के विरुद्ध खड़ा कर दिया। शहरी विकास के लिए जमीन के
अधिग्रहण के मामले में इसका नजरिया गरीब जनता के हित में होने के बजाए उनके खिलाफ तक देखा गया, और भारतीय वामपंथ को इससे एक भारी राजनैतिक खामियाजा भुगतना पड़ा है। इसके कारण वामपंथ अपने मुक्तिकामी चरित्र के साथ समझौता करता हुआ दिखाई देने लगता है।
    पश्चिम बंगाल में नंदीग्राम और सिंगुर के बाद अभी हाल में केरल के कन्नूर जिले के एक छोटे से गाँव में एक बाईपास बनाने के लिए जमीन के अधिग्रहण के मामले में विवाद ने जो रूप लिया, वह भी कुछ ऐसा ही मामला था, लेकिन सौभाग्य की बात है कि अंततः केरल की सरकार के वामपंथी नेतृत्व में शुभ बुद्धि का उदय हुआ और उन्होंने इस समस्या के समाधान का एक वैकल्पिक रास्ता खोज लिया-जमीन के अधिग्रहण के बिना फ्लाई ओवर के जरिए काम को आगे बढ़ाने का रास्ता।
    यह विवाद इसी बीच इतना बढ़ गया था कि वह राष्ट्रीय खबरों में शामिल हो गया था। वहाँ की एलडीएफ सरकार और पार्टी गाँव के अंदर से ही सड़क को ले जाने पर तुले हुए थे और किसान अपनी जमीन को न देने पर आमादा थे। जाहिर है कि यह हमें अनायास ही बंगाल की नंदीग्राम और सिंगुर की घटनाओं की याद दिला रहा था। सत्ता पर आकर राजनीति को भूल सिर्फ अर्थनीतिक ‘विकास’ के प्रति मोहांधता सचमुच एक कथित क्रांतिकारी पार्टी के द्वारा जनता के अराजनीतिकरण का काम करने की तरह है। समाज में कोई भी परिवर्तन सर्व-मान्य धारणाओं से चिपके रह कर संभव नहीं है, बल्कि नया कुछ करने के लिए प्रचलित सोच से अपने को काटना पड़ता है। वही राज्य की अपनी जड़ता को भी तोड़ने का कारक बन सकता है और इस प्रक्रिया में जनता के साथ वैर की कोई जगह नहीं हो सकती है। पार्टी का नौकरशाही ढाँचा अक्सर अपने को जनता की इस प्रकार की अन्दुरूनी सक्रियता, उसके आंदोलन के खिलाफ खड़ा कर लेता है।
    इसलिए वामपंथ के लिए प्रमुख बात यह है कि जनता के जो भी हिस्से अपने जीवन की समस्याओं के लिए जो भी आंदोलन कर रहे हो, वामपंथी ताकतों को उन आंदोलनों में अपनी मौजूदगी और उनके साथ हमेशा अपनी एकजुटता के लिए हमेशा तत्पर रहना चाहिए। क्रांतिकारी राजनीति का दायित्व शासन की समस्याओं का समाधान नहीं है, जनता की समस्याओं का समाधान है और अपने इसी दायित्व के तहत उन्हें  अपने शासन को भी संचालित करना चाहिए। फिर यह समस्या आम लोगों की अपनी राष्ट्रीय-जातीय पहचान से जुड़ी हुई भी हो सकती है, वर्ण-वैषम्य से मुक्ति की भी हो सकती है, गाँव के किसानों के उत्पाद के वाजिब मूल्य की माँग की हो सकती है या संगठित-असंगठित क्षेत्र के मजदूरों, कर्मचारियों और विभिन्न पेशेवरों की जीविका के सवालों से भी जुड़ी हो सकती है। 
    आज सामान्य तौर पर देखा जाए तो भारत की राजनीति के लिए भारतीय गणतंत्र की रक्षा का सवाल एक सबसे प्रमुख सवाल है। मोदी-आरएसएस सरकार के रूप में एक ऐसी शक्ति ने यहाँ राजसत्ता पर अपना कब्जा कर रखा है जो इस देश के धर्म-निरपेक्ष और जनतांत्रिक
संविधान पर, नागरिकों के मूलभूत अधिकारों पर विश्वास नहीं करती है। हिटलर की प्रेरणा से निर्मित इस संगठन का एकमात्र लक्ष्य है सारी सत्ता को केंद्रीभूत करके एक अधिनायकवादी शासन-व्यवस्था कायम करना। नागरिकों की हैसियत इनकी नजर में गुलामों से बेहतर नहीं है। पिछले चार सालों में अपने अनेक कदमों से इसने अपने इन इरादों को पूरी नंगई के साथ प्रकट किया है। नोटबंदी और जीएसटी की तरह के कदम एक वही स्वेच्छाचारी सरकार उठा सकती है जो जनता को अपना गुलाम मानती है। इसी प्रकार जिस धृष्टता के साथ ये न्यायपालिका के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं, जज की हत्या तक के मसलों को दबाने की कोशिशों से बाज नहीं आ रहे हैं, उसने जनतांत्रिक राजनीति के सभी रूपों के सामने संकट पैदा कर दिया है। पूरी अर्थ-व्यवस्था ठप है।
    इन सबके साथ ही आज के समय में मीडिया के विभिन्न रूपों के प्रयोग से जिस प्रकार झूठ को ही राजनीति का आधार बना दिया जा रहा है, वह आज के समय का एक बेहद खतरनाक पहलू है। इसी वजह से आज के युग को ही उत्तर-सत्य का युग कहा जाने लगा है। हम जानते हैं कि हर जगह बुर्जुआ राजनीतिज्ञ झूठ बोलते रहे हैं, लेकिन यहाँ समस्या यह है कि राजनीतिज्ञों की इस नई पौध का सच से जैसे कोई नाता ही नहीं है! और इससे भी बड़ी समस्या यह है कि इतनी नंगई के साथ झूठ बोलने वाला भी राजनीति में जनता के द्वारा पुरस्कृत हो जाता है। साधारण लोगों को उसकी उटपटांग बातों से कुछ इस प्रकार का अहसास होने लगता है कि देखो, यह एक शेर आया है जो अब तक के सारे बुद्धिमानों, कुलीनों की अक्ल ठिकाने लगा सकता है।
    दुनिया में डोनाल्ड ट्रंप को इस पोस्ट ट्रुथ का प्रवर्तक माना जाता है। लेकिन राजनीति के इस रूप का हमारा अनुभव तो ट्रंप से भी दो साल पुराना है, केंद्र की राजनीति में मोदी के उदय के समय से ही। हमने तो देखा था कि मोदी कैसे धड़ल्ले से तक्षशिला को बिहार में ले आए थे और सिकंदर की लड़ाई बिहारियों से करवा दी थी। उन्होंने जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी को क्रांतिकारी बताने के लिए उन्हें लंदन में श्याम कृष्ण वर्मा बता दिया। यहाँ तक कि धारा 370 के बारे में कह दिया कि वह तो सिर्फ औरतों के अधिकारों से जुड़ी एक धारा है। ऐतिहासिक तथ्यों की मनमानी व्याख्या में भी उनकी कोई बराबरी नहीं थी। भारत को वे 1000-1200 साल से गुलाम बताने से नहीं हिचकते। सामाजिक समरसता नामक पुस्तक का विमोचन करते हुए उन्होंने कह दिया कि “दलित मंद बुद्धि बच्चों की तरह होते हैं।” वाल्मीकि समुदाय के लोगों के बारे में कहा कि वे आध्यात्मिक अनुभव लेने के लिए मैला ढोया करते हैं और गटर साफ करते हैं। सोहराबुद्दीन शेख के फर्जी इनकाउंटर के बारे में भरी सभा में कहा कि वह इसी प्रकार के व्यवहार का हकदार था, और उस पर सभा में शामिल लोगों का अनुमोदन भी हासिल किया। हांकने में वे इतने उस्ताद रहे कि पश्चिमी सीमाओं पर डटे हुए सैनिकों के प्रति अपने प्रेम को जताने के लिए कह दिया कि वे 700 किलोमीटर की पाइप लाईन बैठा कर उनके लिये नर्मदा का पानी लाये हैं। इसके पहले अपनी एक सभा में उन्होंने फैला दिया था कि 15 दिसंबर 2012 के दिन भारत गुजरात और
सिंध को समुद्र में अलग करने वाले सर क्रीक मुहाने को पाकिस्तान को सौंप देगा, जबकि इस विषय पर कभी किसी की किसी के साथ कोई चर्चा तक नहीं हुई थी। सन् 2002 में मुसलमानों के बारे में कहा कि उनका उसूल है हम पाँच और हमारे पच्चीस। जबकि गुजरात में मुसलमानों की आबादी के अनुपात में पचास साल में कोई वृद्धि नहीं हुई है। सोनिया गांधी के इलाज पर सरकार ने 1800 करोड़ रुपये खर्च कर दिए, यह भी उनका फैलाया हुआ ही एक झूठ था। मोदी शुरू से लेकर आज तक ऐसी न जाने कितनी बेतुकी, तथ्यहीन बातें कहते रहे हैं, इसका कोई हिसाब नहीं है। नोटबंदी के समय तो वे हर रोज एक नया झूठ गढ़ा करते थे। अभी वे डावोस में अपने भाषण में कितनी झूठी बातें बोल रहे थे, भारत में शांति और समृद्धि के बारे में, लाल फीताशाही के खात्मे और इनक्लुसिव ग्रोथ के बारे में। इन बातों को हम सब जानते हैं। जिस समय वे भारत में सबका साथ सबका विकास की बात कह रहे थे, उसी समय यहाँ  पर इन तथ्यों पर चर्चा चल रही थी कि देश की 73 प्रतिशत संपदा पर 1 प्रतिशत लोगों का कब्जा है। देश में अपने को सुखी और समृद्ध समझने वालों की संख्या घटते-घटते अब आबादी का सिर्फ तीन प्रतिशत रह गई है और प्रधानमंत्री डावोस में बड़े लोगों के अपने टोले के साथ बेपनाह मौज में लगे हुए थे।
    इसके अतिरिक्त मीडिया का विस्फोट भी उत्तर-सत्य की इन परिस्थितियों में अपनी भूमिका अदा कर रहा है। सूचना केंद्रों के बिखराव से झूठ और अफवाहों के केंद्रों में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। व्हाट्स अप इंडस्ट्री तो झूठ की फैक्ट्री है। इसके ग्रुप के सदस्य आपस में ही एक-दूसरे पर विश्वास करते हैं, और किसी पर नहीं। इस प्रकार के केंद्रों से फैलाये जाने वाले झूठ की काट भी मुश्किल होती है। इन सब चक्कर में अक्सर जिसका नुकसान होता है वह है सच का नुकसान। बहसें सच पर नहीं, झूठ पर केंद्रित हो जाती हैं। जीवन के असली विषय पीछे छूट जाते हैं। भारत के टीवी मीडिया पर जब मोदी के आईटी सेल का छोड़ा हुआ दूसरा कोई मुद्दा नहीं होता है तब किम जोंग उन या सीरिया, इराक की कहानियां छाई रहती हैं। इन हालात का इसके अलावा हमें दूसरा कोई उत्तर नहीं दिखाई देता है कि परिस्थितियाँ जितनी भी प्रतिकूल क्यों न हो, सत्य की लड़ाई लड़ने वालों को पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ अपने सत्य पर अडिग रहना होगा। झूठ से मुकाबले के नाम पर उसी के जाल में फंसने से बचना होगा। सत्य की ताकत पर भरोसा रखना होगा। आज मीडिया के विस्फोट के इस काल का एक सच यह भी है इसमें झूठी बातों पर से बहुत जल्द ही पर्दा भी उठ जाता है। फैलाए गए झूठ का तत्काल सही काट भी व्हाट्सअप, फेसबुक आदि पर आ जाता है। हर षड्यंत्र के बेनकाब होने की संभावना भी बनी रहती है। यह सोशल मीडिया का ही दबाव है कि जज लोया के मामले की तलवार आज भी अभियुक्त अमित शाह पर लटक रही है। कानून की दुनिया को अगर इस उत्तर सत्य ने प्रभावित किया है, तो उसमें विद्रोह के बीज भी सत्य की लड़ाई के जरिए देखने को मिल रहे हैं। आज उत्तर-सत्य के मोदी-शाह जैसे नायकों को भी इसी के औजारों का डर सता रहा है। कहना न होगा इससे राज्य के और ज्यादा दमनकारी होने का खतरा है, तो आम लोगों में विद्रोह की संभावना भी बन रही है। मोटे तौर पर यह एक राजनैतिक परिस्थितियों का संदर्भ है जिसमें भारत के कम्युनिस्टों को अपनी मुक्तिकामी राजनीति को नए सिरे से अर्जित करना है। यह काम सभी जनतंत्र-प्रेमी और धर्म-निरपेक्ष ताकतों को लामबंद करने की एक व्यापक राजनैतिक दृष्टि के जरिये ही किया जा सकता है। भविष्य सिर्फ और सिर्फ जनता को बंधनों से मुक्त करने वाली राजनीति पर विश्वास करने वाली ताकतों का ही है।  
-अरुण माहेश्वरी
मो-09831097219
लोकसंघर्ष पत्रिका अप्रैल 2018 विशेषांक में प्रकाशित

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